Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

सत्ता का भारतीय खेल

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सत्ता का भारतीय खेल

 

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आज खेती के लिए उसे मोंसेंटो और बीटी का बीज खरीदना पड़ रहा है। कीटनाशक और खाद भी बाजार से खरीदने होते हैं। सरकार इस पर अनुदान देती है, लेकिन उससे इसे बनाने वाली कंपनियों को कहीं ज्यादा फायदा होता है। सिंचाई के लिए पानी और बिजली की समस्या अलग है। यही वजह है कि उसकी आमदनी घटती जा रही है। 1991 से लेकर आज तक हर सरकार और 1957 से लेकर आज तक की हर पंचवर्षीय योजना हर समस्या का उपाय औद्योगीकरण और उदारीकरण की मौजूदा नीतियों में ही तलाशती रही है। सरकारी तंत्र और सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मौजूदा दौर की ज्यादातर समस्याओं की असली वजह यही आर्थिक नीतियां ही हैं।
खेती को भी मुनाफे और स्वावलंबन का धंधा बनाया जाना जरूरी है। अनाज की कमी नहीं हो, लोगों को जरूरत के हिसाब से वह उपलब्ध हो, इसके लिए जरूरी है कि सरकार कृषि को प्राथमिकताओं की सूची में रखे। पहली पंचवर्षीय योजना में के. एन. राज ने कृषि को प्राथमिकता दिया था। महात्मा गांधी के विचारों की तब तक सरकार में इज्जत थी। 1957 से महात्मा गांधी की कृषि केन्द्रित सर्वोदयी समाज की पुनर्रचना की कार्ययोजना भुला दी गई। उसको फिर से लागू करने की जरूरत है। परन्तु यह तभी संभव है जब भारतीय राजनीति में सत्ता का खेल बदल दिया जाये। यह बिना जन आंदोलन के संभव नहीं है। समकालीन भारत में सत्ता के खेल को समझने के लिए हाल की दो हिन्दीं फिल्मों के स्वरूप पर विचार करना ज्ञानवर्धक हो सकता है।
माय नेम इज खान (2010) न्यूयार्क (2009) की तरह एक महत्वपूर्ण फिल्म है लेकिन दोनों कलात्मक फिल्में नहीं हैं। यह सहज संयोग नहीं है कि आदित्य चोपड़ा ने कबीर खान निर्देषित 'न्यूयार्क' बनायी और करण जौहर ने शाहरूख खान के साथ मिलकर 'माय नेम इज खान' बनायी। जिस तरह कांग्रेस आजकल मुस्लिम वोट के चक्कर में पड़ी रहती है उसी तरह दोनों बड़े हिन्दू फिल्ममेकर मुस्लीम थीम उठा कर तथा अमेरिका की आलोचना करके जाने - अनजाने बड़ी मुस्लिम रणनीति के हिस्सा बन रहे हैं। युवा दर्शकों को फिल्म बहुत अच्छी लगी। 'चक दे इंडिया' (शिमित अमीन) से शाहरूख मुस्लिम चरित्रों की भूमिका निभाने लगा है। यह उसकी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। इसी के तहत ' बिल्लू' बनायी गई थी। शाहरूख राहुल ब्रिगेड का उसी तरह हिस्सा बनने की कोशिश में है जिस तरह अमिताभ बच्चन शुरू में राजीव टीम के सदस्य थे।
मैं मानता हँ कि भारतीय समाज बदल रहा है। इस बदलते हुए भारत में एक समुदाय के रूप में मुस्लिम समुदाय आत्मचेतस बना हुआ है जबकि हिन्दू समुदाय आत्मचेतस नहीं है। खासकर हिन्दी सिनेमा में। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि भारत अमेरिका की तरह एक मल्टी इथनिक और मल्टी कल्चरल सोसाइटी है जो आज काफी अच्छा कर रहा है। हाल के दिनों में बराक ओबामा ने बार - बार कहा है कि अगर इसी तरह भारत और चीन हमसे ज्यादा वैज्ञानिक और इंजीनियर पैदा करते रहे तो हम पिछड़ जायेंगे। अमेरिका में हर साल 70 हजार इंजीनियर निकलते हैं जबकि चीन और भारत में यह संख्या छह व साढ़े तीन लाख है। अमेरिका की फौजी ताकत उसकी नायाब मिसाइल टेक्नोलॉजी पर टिकी है। पर उसके डिफेंस साइंस बोर्ड का कहना है कि देश को अगले कुछ वर्षों में 22 लाख वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की कमी का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में नई मिसाइल रक्षा प्रणाली विकसित करना तो दूर, मौजूदा प्रणाली को बनाये रखना ही मुश्किल हो जाएगा। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के 2009 के सर्वे के मुताबिक गणित व विज्ञान की शिक्षा के मामले में भारत व चीन अमेरिका से काफी आगे हैं। दूसरी ओर इस्लामी जेहादी उस देशों का विरोध करते हैं जिसकी विचार धारा वहाबी इस्लामी विश्वदृष्टि से मेल नहीं खाती। मैं मानता हँ कि 'माय नेम इज खान' एक पावरफुल फिल्म है। यह अपना असर छोड़ती है। लेकिन इसके और कलात्मक ढंग से बनाया जाना चाहिए था। खासकर इसलिए भी क्योंकि यह फिल्म इस्लाम की एक सकारात्मक छवि पेश करने के लिए बनायी गई है। इसमें कोई बुराई नहीं है। 'खुदा के लिए' और 'काबुल एक्सप्रेस' भी ऐसी ही फिल्म थी। परन्तु यह समझना आवश्यक है कि 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे' बनाने वाले आदित्य चोपड़ा 'न्यूयार्क' क्यों बनाने लगे हैं ? 'कुछ कुछ होता है 'और' कभी खुशी कभी गम' बनाने वाले करण जौहर 'माय नेम इज खान' जैसी अमेरिका विरोधी और इस्लाम समर्थक फिल्म क्यों बनाने लगे हैं? खासकर 11 सितम्बर 2001 (9/11) के इतने वर्षों बाद ? खासकर उस कालखंड में जब अमेरिका और भारत के बीच मधुरता बढ़ रही है और आर्थिक प्रतियोगिता के बावजूद अमेरिका और पश्चिम में बसे भारतीय मूल के लोग (इंडियन डायस पोरा) भारत और अमेरिका में घनिष्ट दोस्ती एवं सहकार चाहते हैं। ये लोग देश के बाहर भारतीय सिनेमा के प्रमुख दर्शक हैं और इनसे कमाया गया धन निर्माताओं को आकर्षित करता है। क्या भारतीय मूल का पश्चिमी दर्शक 'न्यूयार्क' और 'माय नेम इज खान' जैसी फिल्मों से अपने आपको ज्यादा जोड़ पाता है और इसमें अपनी सांस्कृतिक अस्मिता का अपना संदर्भ खोजता है या वह इसे मात्र एक भारतीय फिल्म मानकर मनोरंजन के लिए देख लेता है ? एक ऐसे काल खंड में जब कांग्रेस पार्टी मुस्लिम वोटरों को एक बार फिर कांग्रेस के घनघोर समर्थक के रूप में जोड़ना चाहती है (जो 1992 से 2008 तक उससे बिदक गये थे) 'न्यूयार्क' और 'माय नेम इज खान' का बनाया जाना अपने आप में महत्वपूर्ण राजनीतिक सवाल बन जाता है। क्या 'न्यूयार्क ' बनाने में कबीर खान और ' माय नेम इज खान ' को बनाने में शाहरूख खान की राजनीतिक प्रतिबध्दता नहीं झलकती और इसके व्यावसायिक पहलुओं को तौलते वक्त आदित्य चोपड़ा और करण जौहर भारतीय समाज के राजनीतिक संक्रमण से प्रभावित नहीं हुए हैं ? चोपड़ा और जौहर हिन्दू मध्यवर्ग के दुलारे फिल्मकार रहे हैं और इनकी फिल्मों ने भाजपा के राजनीतिक उठान में रामायण और महाभारत जैसे टेलीविजन सिरियलों के बाद बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। क्या मई 2004 में एन. डी. ए. शासन के पतन के बाद आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने बदले राजनीतिक संदर्भ में दर्शकों के मनोविज्ञान में वोट की राजनीति का प्रतिबिम्ब देखा ? क्या उनकी हाल की फिल्मों का व्यावसायिक गणित यू. पी. ए. सरकार की वापसी से प्रभावित है?

इनका सही उत्तर तो आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ही दे सकते हैं लेकिन इतना स्पष्ट है कि हिन्दी फिल्म उद्योग और भारतीय समाज 1950 के दशक से 2004 तक अलग तरह का था। यूसूफ खान दिलीप कुमार कहलाते थे। फिरोज खान के भाई का नाम संजय खान था। हिन्दू बहुल देश में दिलीप कुमार, फिरोज खान से लेकर शाहरूख खान तक हिन्दू चरित्रों को निभाते थे। निर्देशक यश चोपड़ा ने 2004 की फिल्म वीर - जारा में शाहरूख खान को वीर प्रताप सिंह की भूमिका सौंपी थी जबकि प्रिटी जिंटा जारा हयात खान बनी थी। फिर ' चक दे इंडिया ' 'बिल्लू ' और ' माय ने इज खान ' में शाहरूख खान को मुस्लिम चरित्र निभाना क्यों जरूरी लगा ? क्या 3 फिल्मों को महज संयोग कहा जा सकता है या इसके पीछे सोची - समझी - सचेत रणनीति है ? सच यही है कि 2004 के बाद फिल्म निर्माण की संस्कृति बदली है। स्टार सिस्टम कमजोर हुआ है। स्टुडियों सिस्टम और निर्माण - निर्देशक का महत्व बढ़ा है। एक स्टार के रूप में शाहरूख की पकड़ बॉक्स ऑफिस पर घटी है। पहेली, स्वदेश और डॉन को दर्शकों ने उस तरह नहीं सराहा जिस तरह 1995 से 2004 की फिल्मों को सराहा था। उसके बाद शाहरूख ने अपनी रणनीति बदली। इस बदली रणनीति का एक पक्ष    'ओम शांति ओम' का अतुलनीय प्रोमोशन था तो दूसरा पक्ष 'चक दे इंडिया', 'बिल्लू' और 'माय नेम इज खान' में मुस्लिम चरित्र निभाने की रणनीति है। जिस तरह देश में मुस्लिम वोट बैंक है उसी तरह हिन्दी सिनेमा में भारतीय, पाकिस्तानी, बंगलादेशी मूल के मुस्लिम दर्शक हैं। जेहादी इस्लाम के युग में अमेरिका विरोधी मुस्लिम दर्शक दुनिया भर में मिल सकते हैं यह व्यावसायिक गणित भी है।

 

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