Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

सत्ता का भारतीय खेल

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सत्ता का भारतीय खेल

 

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यशराज बैनर का जादू 2004 के बाद फीका पड़ने लगा है। अब उनकी असफल फिल्मों का औसत सफल फिल्मों से ज्यादा है। करण जौहर की पिछली फिल्म 'कभी अलविदा न कहना' भी बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। फलस्वरूप वे मूलत: निर्माता बन चुके थे। 'माय नेम इज खान' में करण और शाहरूख दोनों निर्माता हैं। शाहरूख करण से सीनियर हैं। अत: न्यूयार्क में आदित्य चोपड़ा और 'माय नेम इज खान' में करण जौहर बदली हुई परिस्थिति में नए ढंग की फिल्में लेकर आये हैं। यह भारतीय राजनीति में बदलाव की प्रतीक फिल्में है। इसका नायक रिजवान खान अपने ईमान और प्रेम की खातिर कुछ भी कर सकता है। शाहरूख द्वारा अभिनित रिजवान खान की यह भूमिका दर्शकों को पसंद आयी है। वह एक बीमारी से पीडित आम मुसलमान है जो जेहादी इस्लाम को मुंहतोड़ जवाब देता है और अमेरिका के बाढ़ पीडितों की अकेले सहायता करता है। वह इस्लाम की एक नई व्याख्या करता है और अपने व्यवहार से दर्शकों को रोमांचित करता है। इस फिल्म की तुलना एक सीमा तक अनिल कपूर अभिनित के विश्वनाथ की फिल्म 'ईश्वर' से की जा सकती लेकिन 'ईश्वर' और रिजवान खान का भोलापन ही समान है। रिजवान को जेहादी इस्लाम और प्राकृतिक आपदा (बाढ़) से अकेले लड़ते हुए दिखलाया गया है। 1970 और 1980 के दशक में युवा अमिताभ बच्चन इसी तरह अकेले व्यवस्था से लड़ा करते थे। अमिताभ बच्चन उन दिनों एक सुपर स्टार थे और उनको सुपरमैन की तरह पेश किया जाता है। इसके विपरीत 'माय नेम इज खान' का नायक रिजवान खान एक बीमारी से पीडित आम आदमी है जो व्यवस्था से अकेले लड़कर जीतता है। उसकी शक्ति का आधार एक मुसलमान के रूप में उसका ईमान और एक इंसान के रूप में उसका प्रेम है। इस्लाम की उसकी समझ उसकी मां की सीख और कुराण का उसका अपना पाठ है। लेकिन 'माय नेम इज खान' में मंदिरा का चरित्र विकसित नहीं है। बल्कि किसी भी अन्य पात्र का चरित्र विकसित नहीं है। ऐसा लगता है मानों हम कोई कलात्मक फिल्म न देखकर रिजवान खान के चरित्र की डाक्युमेंटरी देख रहे हैं। इस फिल्म में मंदिरा समेत अन्य पात्रों के साथ पोयेटिक जस्टिस (कलात्मक न्याय) नहीं हुआ है। इस दृष्टि से यह फिल्म एक आयामी है।
ठीक उसी तरह राहुल गांधी को भारतीय राजनीति के इस दौर में 1970 - 80 के दशक के अमिताभ बच्चन और माय नेम इज खान के रिजवान खान की तरह अपनी ही सरकार से आम जनता खासकर युवा मतदाताओं के पक्ष में अकेले लड़ते हुए दिखलाया जा रहा है। प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक राहुल गांधी की महामानव (सुपर मैन) की तरह ब्रांडिग हो रही है। लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए ऐसे नेता की जरूरत पड़ती है जो वृहद तस्वीर पेश कर सके, जो जनता को बता सके कि उसका शत्रु कौन है। विकास का ऐसा कौन सा वैकल्पिक मॉडेल है जिसकी इस देश को तलाश है ? तेल आधारित अर्थव्यवस्था और महानगर केन्द्रित विकास को लोक कल्याणकारी बनाना मनमोहन सिंह की सरकार के लिए काफी मुश्किल हो रहा है। मनमोहन सिंह की अमेरिका केन्द्रित विदेश नीति से मुस्लिम मतदाता आशंकित रही है। इसीलिए जुलाई 2008 में इंडो - यूएस न्यूक्लियर ट्रीटी के मुद्दे पर सरकार गिरने की नौबत आ गई थी। तब से राहुल गांधी मुस्लिम मतदाता को रिझाने में लगे हुए हैं। इसी संदर्भ में राहुल और प्रियंका के मित्र शाहरूख खान माय नेम इज खान लेकर आये हैं। संभव है कबीर खान के न्यूयार्क बनाने के पीछे भी यही रणनीति हो।
सिनेमा और राजनीति का भारत में बहुत घनिष्ट संबंध है। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल और बंगाल के सिनेमा ने इन राज्यों की राजनीति को काफी गहराई में प्रभावित किया है। मेहबूब खान की 1957 में बनी फिल्म मदर इंडिया और राजकपूर की 1949 से 1970 तक की फिल्में कांग्रेसी राजनीति से प्रेरित रही हैं। मनोज कुमार की 1967 में बनी फिल्म उपकार भी एक राजनीति फिल्म थी। एम. एस. सथ्यु की 1973 में बनी फिल्म गरम हवा भी राजनीतिक फिल्म थी। 2002 में बनी मधुर भंडारकर की सत्ता भी एक राजनीतिक फिल्म थी। इतना तक की इमरजेंसी के दौरन 1957 में बनी गुलजार की आंधी और रमेश सिप्पी की शोले का भी राजनीतिक संदर्भ था। सत्ता के भारतीय खेल में राजनीति और सिनेमा के बीच बहुत घनिष्ट संबंध रहा है। दोनों जगह विजन का अभाव है। पिछले चार सालों में खाद्य पदार्थों, पानी और तेल ने ऐसा दुश्चक्र बना दिया कि आम लोगों का जीना दूभर हो गया है। हमारे गांवों की हालत तो 1957 से खराब है ही अब शहरों की हालत भी खराब होने जा रही है। अगले चार सालों में शहरों में और 10 करोड़ लोग पहुंच जाएंगे। सड़के कारों से जाम हो रही हैं, हवा की गुणवत्ता और पर्यावरण में बड़ी तेजी से गिरावट आ रही है। गांवों में किसान ऊंची लागत दरों का सामना कर रहे हैं। जमीन की उत्पादकता गिर रही है, भू जल स्तर भी लगातार नीचे जा रहा है। क्या राजनीतिक दलों के पास इनत तमाम मसलों के समाधान का कोई विकास मॉडेल है ? क्या हमारे पटकथा लेखकों के पास पैकल्पिक ऊर्जा पर आधारित विकास मॉडेल का कोई मेटा नैरेटिव (कथा विन्यास) है ? अगर नहीं है तो अमेरिकी मॉडल एवं हॉलीवुड फिल्मों की नकल या भावनात्मक कहानियों का फिल्मांकन दो ही विकल्प बचता है। भारतीय राजनीति और हिन्दी सिनेमा में ज्यादतर भावनाओं का दोहन ही चलते रहा है। न्यूयार्क और माय नेम इज खान के कथानक तथा राहुल गांधी का प्रचार अभियान भावनात्मक मुद्दों के दोहन के ही उदाहरण हैं। हमारे यहां चमत्कारिक नेतृत्व के पास विजन होना जरूरी नहीं माना जाता।
हमारे यहां सत्ता के खेल में प्रतीकात्मक नाटक बरसों से चल रहा है। किसी दलित के घर भोजन कर लेने से या आंबेडकर की आरती उतार लेने से क्या सचमुच दलितोध्दार हो सकता है ? नौकरियों के प्रतीकात्मक आरक्षण से क्या सचमुच सामाजिक न्याय हो सकता है ? सर्वोदय और अंत्योदय की विचारधारा का क्या सचमुच कोई विकल्प है ? क्या सर्वोदय का लक्ष्य सबको शिक्षा और सबको काम के बिना हासिल किया जा सकता है ? क्या दलितों के हाड़तोड़ कामों को लज्जत और इज्जत दिए बिना भारत एक कल्याणकारी राष्ट्र होने का दावा कर सकता है ? क्या शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम का फासला घटाये बिना इस देश में अमन या शांति स्थापित हो सकती है ? जो पार्टियां सत्ता में आने को बेताब हैं, उन्हें यह पता ही नहीं है कि वह  सत्ता में आकर करेंगी क्या ? जो पार्टी सत्ता में है उसके पास महंगाई, बेरोजगारी, आंतकवाद, नक्सलवाद और सुरक्षा के बारे में कोई विजन या मौलिक सोच नहीं है। भारत की अधिकांश पार्टियों के पास विदेश नीति के क्षेत्र में न तो कोई बड़ा नक्शा है न कोई ठोस सुझाव। अधिकांश दलों में मौलिक विचारकों का अभाव है। वैकल्पिक ऊर्जा नीति और वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की संकल्पना के बिना भारत के 80 करोड़ लोगों का भला नहीं होने वाला चूंकि ये लोग 20 रूपये रोजाना पर किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। भारत में इस समय 180 खरबपति हैं और 77 प्रतिशत आबादी रोज 20 रूपये में गुजारा करती हैं। भारत में सबसे अमीर और निर्धनतम नागरिक के बीच 20 लाख गुना का फर्क है।

भारत के अधिकांश दलों में नेतृत्व से भी ज्यादा विचारधारा का संकट है। अधिकांश दल अंतर्विरोध, दिग्भ्रम और संशयों में घुट रही हैं। एक ऐसे कालखंड में भारतीय सिनेमा में कहानियों और पटकथाओं की नई पौध लहलहाना चाहिए था। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। वहां भी भावुकता और नकल का बोलबाला है। जबकि दुनिया बदल रही है। प्रथम विश्वयुध्द तक हर सैनिक अभियान में 95 प्रतिशत सैनिक मरते थे और केवल 5 प्रतिशत आम नागरिक (सिविलियन) मरते थे। द्वितीय विश्वयुध्द में आम नागरिकों का मरने का प्रतिशत बढ़ गया था। 1945 के बाद से यह प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। 21 वीं शताब्दी के प्रथम दशक में हर सैनिक अभियान में 95 प्रतिशत आम आदमी मरते हैं और केवल 5 प्रतिशत सैनिक मरते हैं।

 

 

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