Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय सभ्यता का भविष्य

भारतीय सभ्यता का भविष्य

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भारत की सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता है। ईस्वी सन् 1192 तक इस सभ्यता में काल का प्रवाह निरंतर बिना अवरोध के चला।1192 से 1947 तक यह सभ्यता निरंतर विदेशियों से संघर्षशील रही। 1947 से इस सभ्यता के राज्य व्यवस्था और समाज व्यवस्था में लगातार संघर्ष चल रहा है। करीब हजार वर्षों तक निरंतर संघर्षशील रहने के बावजूद भारतीय सभ्यता आज तक कायम है यह एक प्रकार की अद्वितीय घटना है। विपरीत परिस्थिति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी रहने और इतना सब कुछ झेलने के बावजूद भारत के सामान्य लोग अपने जीवन में एक संतुलन कायम करने के लिए उनसे जो कुछ बन पड़ता है और जो कानून व उसके रखवाले उन्हें करने देते हैं, या जो कानूनवालों से छिपा करके किया जा सकता है, करते हीं हैं। एक तरह से यह सब जहां भी जो हो सकता है, पहल अपने हाथों में लौटाने के उनके तरीके हैं और अगर उन्हें एक क्षेत्र में पहल का अवसर मिलता है तो वह दूसरे क्षेत्रों में भी मिल ही जायेगा, ऐसी उनकी सोच है। नैतिक सत्ता या किसी तरह की अध्यात्म-शक्ति तो हमारे पास है नहीं। हमारे सन्यासियों व धर्मगुरूओं के पास तक ऐसी नैतिक व अध्यात्मिक शक्तियों का ह्रास हुआ है। 

 हमारे समाज पर आक्रामकों का प्रभाव तो पड़ा, पर इतना नहीं, कि हम पूर्णत: रूपान्तरित होकर उनके औजार हो जाएं। हां, हमारे अभिजात वर्ग या राज्यकर्ता एवं शक्तिशाली वर्ग में अवथ्य पिछले 800-1000 बरस में गठबंधन की प्रवृत्ति प्रबल रही। समाज से वे अधिकाधिक कटते गये। पर अभी भी भारतीय समाज की अपनी परम्परा प्रवाहित है। हमारा समाज इनकी अभिव्यक्ति विविध रूपों में करने का प्रयास भी करता रहता है।

जब यूरोपीय समाजों ने फैलना शुरू किया तो उनके पास विशेष साधन नहीं थे। न शिक्षा, न विज्ञान, न प्रौधोगिकी, न कृषि, न शिल्प, दूसरों की तुलना में उनके पास उपरोक्त कोई भी चीज विशेष रूप में नहीं था। उत्पादन और पूंजी भी अन्य समाजों से अधिक नहीं थी। किन्तु उन्होंने संकल्प बल और इच्छा-शक्ति के साथ संगठित ढ़ग से फैलना शुरू किया। भारत लौटने के बाद गांधी जी ने भी आत्मबल एवं इच्छा-शक्ति से भारतीय समाज को संगठित करना प्रारंभ किया तथा समाज के आत्मबल और इच्छा को जगाया।  विश्व के सभी समाज जय-पराजय के अलग-अलग क्रमों से उतार-चढ़ाव से गुजरते रहे हैं।

भारतीय समाज अपने राज्र्यकत्तावर्ग को सदा ही अपने नियंत्रण और मर्यादा में रखता रहा है। किन्तू दूसरी ओर, सैन्य आक्रमण की स्थिति में, प्रतिकार का सीधा भार जिस सेना पर आ पड़ता है, उस सैन्य-शक्ति के बारे में भारतीय समाज एक विशेष काल-खंड में पर्याप्त ध्यान नहीं दे  पाया। इसका प्रमुख कारण यही था कि विश्व में ऐसे समूहों, समाजों और संस्थाओं तथा आदर्शों के उदय और विस्तार के बारे में भारतीय मनीषा बहुत कुछ अनजान रही, जो दूसरे मनुष्यों और समाजों का विध्वंस या कि पूर्णत: अधीन बनाकर उनका अपने अनुरूप रूपान्तरण करना अपना परम पुरूषार्थ या परम कर्त्तव्य मानते हैं और इसी में जीवन का वैभव देखते हैं। भारतीय मनीषा में अपनी विश्व दृष्टि के कारण स्वयं को ही परिष्कृत-सुसंस्कृत बनाये रहने की साधना करते रहने का स्वध्सर्म-भाव प्रबल रहा। फलस्वरूप, बाहरी विश्व एवं बाहरी धर्मों का पर्याप्त ज्ञान आवश्यक नहीं समझा गया। दूसरी ओर, अपने सैन्य - बल से विश्वविजय एंव विश्व विध्वंस के लिए तत्पर और सक्रिय समाजों एवं समुदायों का विकास एवं उत्थान होता रहा। इससे बेखबर अंतर्मुखी भारतीय समाज इनका सामना करने योग्य आवश्यक सैन्य - शक्ति का संग्रह और संगठन करने की ओर भारतीय समाज ध्यान नहीं दे पाया। मूलत: भारतीय मनीषा की यह एक प्रमुख ऐतिहासिक विफलता रही है।

अपनी उपरोक्त स्थिति के कारण ही भारतीय समाज आक्रमणकारियों को परास्त कर उन्हें लौटने को विवश कर देना अथवा समाज के एक अंग के रूप में घुलमिल कर रहने देना तो जानता रहा है। किन्तु यदि स्थायी शत्रु लम्बे समय तक देश के भीतर जमा - टिका रहे और युध्दरत रहे तथा अधिकांश भारतीय समाज को विनष्ट करने और अवशिष्ट समाज को अपने अनुरूप रूपान्तरित करने की दीर्घकालीन वैर - नीति पर चल रहा हो, तो ऐसे आक्रमणकारी का सामना करने की क्या - क्या नीतियाँ, उपाय व्यवस्थाएँ हो सकती हैं, इस पर भारतीय मनीषा ने अभी तक पर्याप्त विमर्श नहीं किया है।
हमारे समाज को धर्म और स्वधर्म का बोध हमेशा रहा है परन्तु पर - धर्म का ठीक - ठीक ज्ञान और उसके रूपों एवं अभिव्यक्तियों की पर्याप्त जानकारी नहीं रही है। हमारी गुलामी का कारण आक्रामकों की तुलना में अपने समाज में विषमता की अधिकता, या शिक्षा की कमी या विज्ञान- प्रौधोगिकी का अभाव या सामाजिकता का अभाव अथवा मानवीय गुणों की विशेष कमी नहीं थी अपितु एक विशिष्ट राजनैतिक बुध्दि का और  आवश्यक बौध्दिक - राजनैतिक निर्णयों का अभाव था। दूसरी ओर, अंग्रेजो को सामाजिक विध्वंस तथा बलात् सामाजिक रूपान्तरण का, जन - गण को दास बनाने का बहुत लम्बा अनुभव था और इसमें दक्षता थी। यूरोप में शताब्दियों से ऐसा ही होता रहा था।

 

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