एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती
पेज 2 वर्षा नहीं होने पर पचास प्रकार की जड़ी - बूटियों और विशेष प्रकार की समिधा की आहुति (वर्षा - यज्ञ) से वर्षा कराने का विधान है। यज्ञों से बादल का निर्माण होता है, जिससे वर्षा होती है। यज्ञ में अग्नि एवं जल (सोम) का मेल होता है। जल तीर्थ है। जल अव्यक्त देवता है। जल सृष्टि का गर्भ है। जल वाक (भाषा), धर्म और नदी की गतिशीलता का भी प्रतीक है।
तीर्थ एवं तीर्थयात्रा तीर्थ प्रवाहमान् देश का साक्षात्कार है। तीर्थयात्रा धर्मसाधना का बड़ा ही सरल एवं सस्ता नुस्खा है। इससे पवित्र जीवन के लिए प्रेरणा मिलती है। पवित्र भावना वाले व्यक्तियों के संगम से पवित्रता की नयी अनुभूति मिलती है। तीर्थयात्रा काल का अतिक्रमण करके देश में प्रवेश करने का पुरूषार्थ है। तीर्थों को देखकर हम अपने स्वरूप को ज्यादा अच्छी तरह पहचानते हैं, इनको स्पर्श करके हम कालजयी होते हैं। तीर्थ करने का अधिकार केवल उसे है जो तीनों ऋणों से मुक्त है, अपने कर्तव्य का पालन कर चुका है। तीर्थयात्रा करने से पूर्व व्रत करने का विधान है। तीर्थ में रहते हुए तीर्थ के नियम - पालन करने का विधान है। तीर्थभावना स्वेच्छा से विसर्जन की भावना है, लुटने की भावना है, नि:स्व होने की भावना है, विशेष के रूप में गरने की और सामान्य के रूप में जीने की भावना है, अपने कलुष धोने की भावना है, विश्व के प्रति कृतज्ञता की भावना है, अपने पूर्वपुरूषों के तप से, त्याग से स्मरण के द्वारा जुड़ने की भावना है। तीर्थस्थान एक बड़ा संकल्प है, एक बड़ा भावैक्य है। बड़े सुख के लिए छोटे सुख के उत्सर्ग की कितनी बड़ी बुध्दिमत्ता है। यह जीवन के रस को आस्वादन की एक जगह है। समकालीन भारत में व्रत, तीर्थ एवं कृषि आधुनिकता के प्रभाव में व्रतों एवं तीर्थों का स्वरुप बदल रहा है। इस बदलाव का असली कारण कृषि एवं कृषक समाज की बदलती हुई स्थिति है। जब पारम्परिक खेती एवं पारम्परिक समाज ही बदल रहा है तो पारम्परिक तीर्थों एवं व्रतो में परिवर्तन अवश्यंभावी है। लेकिन यह आदर्श स्थिति नहीं है। देसी खेती एवं पारम्परिक जीवन पध्दति से ही भारतीय समाज का उत्थान हो सकता है।
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