Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती

एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती

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वर्षा नहीं होने पर पचास प्रकार की जड़ी - बूटियों और विशेष प्रकार की समिधा की आहुति (वर्षा - यज्ञ) से वर्षा कराने का विधान है। यज्ञों से बादल का निर्माण होता है, जिससे वर्षा होती है। यज्ञ में अग्नि एवं जल (सोम) का मेल होता है। जल तीर्थ है। जल अव्यक्त देवता है। जल सृष्टि का गर्भ है। जल वाक (भाषा), धर्म और नदी की गतिशीलता का भी प्रतीक है।
अग्नि व्यक्त देवता है। अग्नि सृष्टि का अंकुरण है। सोमयाग में अग्नि में सोम की आहुति होती है, अग्नि की स्फीति होती है और पुन: सोम एक - एक कला बढ़ाते - बढ़ाते नवजन्म पाता है। सोम आदित्य द्वारा अमावस्या की रात्रि में निर्गीण होता है, और पूर्णिमा की रात्रि को पूर्ण हो जाता है।

 

तीर्थ एवं तीर्थयात्रा

तीर्थ प्रवाहमान् देश का साक्षात्कार है। तीर्थयात्रा धर्मसाधना का बड़ा ही सरल एवं सस्ता नुस्खा है। इससे पवित्र जीवन के लिए प्रेरणा मिलती है। पवित्र भावना वाले व्यक्तियों के संगम से पवित्रता की नयी अनुभूति मिलती है। तीर्थयात्रा काल का अतिक्रमण करके देश में प्रवेश करने का पुरूषार्थ है। तीर्थों को देखकर हम अपने स्वरूप को ज्यादा अच्छी तरह पहचानते हैं, इनको स्पर्श करके हम कालजयी होते हैं। तीर्थ करने का अधिकार केवल उसे है जो तीनों ऋणों से मुक्त है, अपने कर्तव्य का पालन कर चुका है। तीर्थयात्रा करने से पूर्व व्रत करने का विधान है। तीर्थ में रहते हुए तीर्थ के नियम - पालन करने का विधान है।

तीर्थभावना स्वेच्छा से विसर्जन की भावना है, लुटने की भावना है, नि:स्व होने की भावना है, विशेष के रूप में गरने की और सामान्य के रूप में जीने की भावना है, अपने कलुष धोने की भावना है, विश्व के प्रति कृतज्ञता की भावना है, अपने पूर्वपुरूषों के तप से, त्याग से स्मरण के द्वारा जुड़ने की भावना है। तीर्थस्थान एक बड़ा संकल्प है, एक बड़ा भावैक्य है। बड़े सुख के लिए छोटे सुख के उत्सर्ग की कितनी बड़ी बुध्दिमत्ता है। यह जीवन के रस को आस्वादन की एक जगह है।
यह असंख्य मनुष्यों की पवित्र भावना की सूक्ष्म शक्ति का सघन संचयन है।   तीर्थयात्रा में दुगर्म स्थानों में यात्रा का रोमांच है। परिवेश की पवित्रता में अपनी पवित्रता का स्रोत पाने की संतुष्टी है। सच्ची तीर्थयात्रा केवल यात्रा, स्नान, श्राध्द, दान से पूरी नहीं होती, यह आत्म - विसर्जन से पूरी होती है। जो आदमी अपने को विशाल प्रवाह में बहने के लिए जितना ही ज्यादा छोड़ देता है वह उतना ही बड़ा तीर्थयात्री है। तीर्थ में अहंकार का ध्वंस होता है, पाप का भी ध्वंस होता है। तीर्थयात्रा की कठिन प्रक्रिया में शरीर और चित्त दोंनो की शुध्दि होती है। तीर्थयात्रा का विधान प्रायश्चित एवं श्राध्द के उद्देश्य से भी किया जाता है। तीर्थ में पूर्व पुरूषों के तप से आदमी जुड़ता है और उन्हें श्रध्दा निवेदन करके और अपने पापों का प्रायश्चित करके भी पूर्व पुरूषों के तप से स्वयं संस्पृष्ट होता है। तीर्थयात्रा एक प्रकार का आत्मयज्ञ है।
कुछ तीर्थ विद्या और कला के विशेष केन्द्र बने। कुछ तीर्थ परिव्रात्रकों के विशेष पर्वों पर समागम के पड़ाव बने और कुछ तीर्थ नित्य लीलाधाम के रूप में प्रतिष्ठित हुए। कुछ तीर्थ - शक्ति के पीठ के रूप में धाम के रूप में प्रसिध्द हुए। तीर्थ यात्रा जीवन यात्रा का विराम नहीं, न धर्म की इतिश्री है, यह धर्म के संकल्प का पुनर्नवीकरण है।   

समकालीन भारत में व्रत, तीर्थ एवं कृषि

आधुनिकता के प्रभाव में व्रतों एवं तीर्थों का स्वरुप बदल रहा है। इस बदलाव का असली कारण कृषि एवं कृषक समाज की बदलती हुई स्थिति है। जब पारम्परिक खेती एवं पारम्परिक समाज ही बदल रहा है तो पारम्परिक तीर्थों एवं व्रतो में परिवर्तन अवश्यंभावी है। लेकिन यह आदर्श स्थिति नहीं है। देसी खेती एवं पारम्परिक जीवन पध्दति से ही भारतीय समाज का उत्थान हो सकता है।

 

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