Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती

एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती

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वैज्ञानिक या आधुनिक खेती के नाम पर पिछले कुछ दशकों में देश के किसानों को जिस राह पर ढ़केला गया यह वही राह है जो ऐलोपैथिक चिकित्सा, सर्जरी  और केमोथेरैपी की राह है। इस खेती में लागत इतनी ज्यादा है कि भारत के ज्यादातर छोटे और मंझोले किसानों के लिए इसका खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसे में स्थानीय साहूकार और बैंक ही इनका सहारा बनते हैं और कुछ दिनों बाद मौत (आत्महत्या) का कारण भी।
सच तो यह है कि बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अनाज का उत्पादन बढ़ाने की दलील देकर आधुनिक कृषि के पैरोकारों और सरकार ने खेती की जिस पध्दति को आगे बढ़ाया, वह मूलत: बाजार और साहूकारों के लिए ही फायदेमंद साबित हुआ है। इसलिए कल तक खेती के सहारे खुशहाल जिंदगी जीने वाला परिवार आज खेती से भाग रहा है। उसके व्रत, तीर्थ, त्योहार खोखले होते जा रहे हैं।
आधुनिक खेती में लागत साल दर साल बढ़ती जाती है और उत्पादन घटता जाता है। फिर एक समय ऐसा भी आता है कि कितना भी खाद - कीटनाशक - पानी डालो, उत्पादन उतना ही रहेगा यानी उपज बढ़ेगी नहीं। मिट्टी की ऊर्बरता भी साल दर साल घटती ही जाती है और कुछ सालों बाद उस जमीन पर घास उगाना भी मुश्किल हो जाता है। कीट - पतंगों से फसलों को बचाने के नाम पर की जाने वाली कीटनाशक दवाइयां घोंघा और केचुए का नामों - निशान मिटा देती हैं जो मिट्टी को नया प्राण देते हैं। इससे होने वाला जल प्रदूषण एक अलग समस्या है।

इसका उपाय भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक (देसी) खेती है। देसी खेती एक ऐसी कृषि व्यवस्था है जो मोटे तौर पर आत्म - निर्भर रहा है। दसमें खाद - बीज से लेकर तमाम स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो जाता है। इसमें लागत भी कम आती है। और उपज भी अच्छी होती है। मिट्टी की ऊर्बरता भी बनी रहती है। लेकिन आधुनिक खेती से बर्बाद हो चुके खेत में जब पारंपरिक तरीके से खेती की जाती है तो शुरूआत में उपज काफी कम होती है। रासायनिक खाद से उसर हो चुकी जमीन को गोबर की खाद से आबाद होने में थोड़ा समय लगता है। दो-तीन साल बाद उपज बढ़ने लगती है। पारंपरिक खेती में फसलों का चुनाव बाजार के लिए न होकर खेत और पर्यावरण को ध्यान में रखकर किया जाता है ताकि मिट्टी के पोषक तत्वों की कमी न हो और नमी बनी रहे। पानी का इस्तेमाल भी   आवश्यकतानुसार होता है।

पारम्परिक या देसी खेती का आधार यह अवधारणा है कि यह जगत भगवान विष्णु या मां काली के शरीर का विस्तार है और यह संसार भगवान श्री कृष्ण या मां भगवती की लीला स्थली है। ग्रामीण समुदाय एक साधना स्थली है और कृषि व्यवसाय या व्यापार न होकर उपासना की एक पध्दति है। इस परिवेश में हिन्दु -पर्व सनातन जीवन-भाव के बार-बार उमड़ने के पर्व हैं। तीर्थ और पर्व दोनों ही मिलकर देश और काल को जगाने और भुलाने के लिए हैं। तीर्थ यात्रा में आदमी एक ओर देश को पहचानता है, दूसरी ओर वह देश से एक होता रहता है क्योंकि देश की विविधता और देश के विस्तार, देश के विस्तार, देश की संभावना और देश के इतिहास का स्मरण करते- करते वह देशमय हो जाता है। इसी प्रकार पर्व मनाते मनाते, ऋतुओं के मोड़ देखते देखते , उत्सवों में अपने को रीता करते वह काल की अनन्ता में रमने लगता है। हिन्दू जीवन अनुभव की विविधता को सार्थकता देता है, बहुविध प्रकारों को एकोन्मुख करके हिन्दू धर्म इसीलिए स्वयं सनातन तीर्थ है, सनातन पर्व है।

समकालीन परिवेश में देसी खेती का महत्व कम हो गया है। रासायनिक खेती काफी महंगा एवं किसानों के लिए जान लेवा हो गया है। देसी खेती को मजबूत बनाए बिना इस देश का काम नहीं चलने वाला है। इसलिए आवश्यक है कि खेती की तकनीक सस्ता किया जाए। जो तकनीक गाँव में व गाँव के आसपास उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करे, किसानों को आत्म निर्भर बनाये, मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन की रक्षा करे व जल का अधिक दोहन न करे, वे ही किसानो के लिए सबसे उपयुक्त है। सरकार व गाँव वासियों के सहयोग से जल - संरक्षण व   हरियाली बढ़ाने का कार्य बड़े पैमाने पर करने से कृषि व पशुपालन को बहुत लाभ मिलेगा। छोटे किसानों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
गाँवों व कस्बों में खेती के विकास के अतिरिक्त अनेक लघु व कुटीर उद्योगों, उद्यमों व दस्तकारियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जिन औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन अपेक्षाकृत श्रम - सघन तकनीकों से गाँव, कस्बो या छोटे शहर के स्तर पर हो सकता है, उसे इस स्तर पर ही प्रोत्साहित करना चाहिए। विशेष कर युवा किसानों के लिए यह  महत्वपूर्ण है। हाल के समय में किसानों की आत्महत्या एक हकीकत है और इसके समाधान को उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इसके बिना सनातन जीवन के पर्व, त्योहर या तीर्थ अर्थहीन हो रहे हैं।
जीवन के आनंद के लिए स्वस्थ एवं समृध्द होना आवश्यक है। देसी खेती के  द्वारा भोजन एवं औषधि दोनों का उत्पादन होता है। देसी खेती स्वस्थ एवं समृध्द समाज का आधार है। जिस व्यक्ति के शरीर में तीनों तत्व - वात, पित, कफ साम्य अवस्था में हों, पंच महा भूतों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश की पांच, सातों धातुओं - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र की सात और तेरहवीं जठर की अग्नि - सभी तेरहो तत्व समान पुष्ट हों, मलमूत्र विसर्जन क्रिया ठीक हो, आत्मा, इन्द्रियां व मन प्रसन्न अवस्था में हों उसी व्यक्ति को स्वस्थ कहा जा सकता है।

शरीर को धारण करने वाले तत्व को धातु कहा जाता है और रोग पैदा करने वाले तत्व को दोष कहा जाता है। शरीर में जब वात, पित, कफ तीनों समान और शांत अवस्था में रहते हैं तो इन्हें धातु कहा जाता है। जब ये विषम और कुपित स्थिति में होते हैं तब इन्हें दोष कहा जाता है। शरीर में सारे रोग इन्हीं त्रिदोषों - वात, पित, कफ के बढ़ने या घटने से होता है। धातुओं की विषम स्थिति ही विकार या दोष है। धातुओं की साम्य अवस्था का नाम प्रकृति यानि स्वस्थ अवस्था है। आरोग्य का नाम सुख है। संतृप्त संवत्सर एवं जीवन का आनंद हिन्दू समाज में व्रतों त्यौहारों, तीर्थयात्र एवं देसी खेती का लक्ष्य है।

 

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