एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती
पेज 3 वैज्ञानिक या आधुनिक खेती के नाम पर पिछले कुछ दशकों में देश के किसानों को जिस राह पर ढ़केला गया यह वही राह है जो ऐलोपैथिक चिकित्सा, सर्जरी और केमोथेरैपी की राह है। इस खेती में लागत इतनी ज्यादा है कि भारत के ज्यादातर छोटे और मंझोले किसानों के लिए इसका खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसे में स्थानीय साहूकार और बैंक ही इनका सहारा बनते हैं और कुछ दिनों बाद मौत (आत्महत्या) का कारण भी। इसका उपाय भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक (देसी) खेती है। देसी खेती एक ऐसी कृषि व्यवस्था है जो मोटे तौर पर आत्म - निर्भर रहा है। दसमें खाद - बीज से लेकर तमाम स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो जाता है। इसमें लागत भी कम आती है। और उपज भी अच्छी होती है। मिट्टी की ऊर्बरता भी बनी रहती है। लेकिन आधुनिक खेती से बर्बाद हो चुके खेत में जब पारंपरिक तरीके से खेती की जाती है तो शुरूआत में उपज काफी कम होती है। रासायनिक खाद से उसर हो चुकी जमीन को गोबर की खाद से आबाद होने में थोड़ा समय लगता है। दो-तीन साल बाद उपज बढ़ने लगती है। पारंपरिक खेती में फसलों का चुनाव बाजार के लिए न होकर खेत और पर्यावरण को ध्यान में रखकर किया जाता है ताकि मिट्टी के पोषक तत्वों की कमी न हो और नमी बनी रहे। पानी का इस्तेमाल भी आवश्यकतानुसार होता है। पारम्परिक या देसी खेती का आधार यह अवधारणा है कि यह जगत भगवान विष्णु या मां काली के शरीर का विस्तार है और यह संसार भगवान श्री कृष्ण या मां भगवती की लीला स्थली है। ग्रामीण समुदाय एक साधना स्थली है और कृषि व्यवसाय या व्यापार न होकर उपासना की एक पध्दति है। इस परिवेश में हिन्दु -पर्व सनातन जीवन-भाव के बार-बार उमड़ने के पर्व हैं। तीर्थ और पर्व दोनों ही मिलकर देश और काल को जगाने और भुलाने के लिए हैं। तीर्थ यात्रा में आदमी एक ओर देश को पहचानता है, दूसरी ओर वह देश से एक होता रहता है क्योंकि देश की विविधता और देश के विस्तार, देश के विस्तार, देश की संभावना और देश के इतिहास का स्मरण करते- करते वह देशमय हो जाता है। इसी प्रकार पर्व मनाते मनाते, ऋतुओं के मोड़ देखते देखते , उत्सवों में अपने को रीता करते वह काल की अनन्ता में रमने लगता है। हिन्दू जीवन अनुभव की विविधता को सार्थकता देता है, बहुविध प्रकारों को एकोन्मुख करके हिन्दू धर्म इसीलिए स्वयं सनातन तीर्थ है, सनातन पर्व है। समकालीन परिवेश में देसी खेती का महत्व कम हो गया है। रासायनिक खेती काफी महंगा एवं किसानों के लिए जान लेवा हो गया है। देसी खेती को मजबूत बनाए बिना इस देश का काम नहीं चलने वाला है। इसलिए आवश्यक है कि खेती की तकनीक सस्ता किया जाए। जो तकनीक गाँव में व गाँव के आसपास उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करे, किसानों को आत्म निर्भर बनाये, मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन की रक्षा करे व जल का अधिक दोहन न करे, वे ही किसानो के लिए सबसे उपयुक्त है। सरकार व गाँव वासियों के सहयोग से जल - संरक्षण व हरियाली बढ़ाने का कार्य बड़े पैमाने पर करने से कृषि व पशुपालन को बहुत लाभ मिलेगा। छोटे किसानों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। शरीर को धारण करने वाले तत्व को धातु कहा जाता है और रोग पैदा करने वाले तत्व को दोष कहा जाता है। शरीर में जब वात, पित, कफ तीनों समान और शांत अवस्था में रहते हैं तो इन्हें धातु कहा जाता है। जब ये विषम और कुपित स्थिति में होते हैं तब इन्हें दोष कहा जाता है। शरीर में सारे रोग इन्हीं त्रिदोषों - वात, पित, कफ के बढ़ने या घटने से होता है। धातुओं की विषम स्थिति ही विकार या दोष है। धातुओं की साम्य अवस्था का नाम प्रकृति यानि स्वस्थ अवस्था है। आरोग्य का नाम सुख है। संतृप्त संवत्सर एवं जीवन का आनंद हिन्दू समाज में व्रतों त्यौहारों, तीर्थयात्र एवं देसी खेती का लक्ष्य है।
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