यूरोपीय आधुनिकता एवं समकालीन भारतीय समाज
पेज 1 महात्मा गांधी ने पश्चिम को भारतीय दृष्टि से समझने की बड़ी ईमानदार कोशिश की थी। जबकि भारत में जो पाश्चिम परस्त तबका है, वह ठीक से न भारत को समझता है और न यूरोप को। इन लोगों की यूरोप की समझ भी सतही, एकआयामी एवं किताबी है। वे लोग आम यूरोपीय लोगों की जीवन पध्दति एवं जीवन दृष्टि तथा जीवंत आस्था एवं विश्वास को नहीं समझते। आधुनिक यूरोपीय विश्वविद्यालय काफी हद तक यूरोपीय ज्ञानोदय (एनलाइटेनमेन्ट) केन्द्रित हैं। परंतु यूरोपीय समाज तो ज्ञानोदय केन्द्रित नहीं रहा है। यूरोपीयन समाज में तो कई प्रवृत्तियाँ रही हैं। डेरिडा, फुको जैसे कुछ लोग अब विज्ञान केंन्द्रीयता के बारे में, तर्कसंगत विवेक के बारे में तथा यूरोपीय विज्ञान के बारे में पुनर्विचार करते दिखाई देते हैं। यह प्रवृत्तिा पश्चिम में उत्तार-आधुनिक काल के (1968 के) बाद धीरे-धीरे बढ़ रही है। यूरोपीय परंपरा को विज्ञान केन्द्रित विमर्श से पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता। इसके लिए तो यूरोप का दर्शन, इतिहास, धर्म, कला एवं साहित्य पढ़ना पड़ेगा। इन पाँचो अंगो के सहयोग के बिना तो यूरोपीय आधुनिकता को समझना भी मुश्किल होगा परंतु विज्ञान एवं तकनीक यूरोपीय आधुनिकता की पारिभाषिक विशेषता है इसमें संदेह नहीं। भारतीय परंपरा में भी विज्ञान-तकनीक तो होता है परंतु यह उस प्रकार संगठित नहीं होता जैसा आधुनिक यूरोपीय समाजों में होता है। विज्ञान-तकनीक परंपरा में अपने-आप में लक्ष्य नहीं होता बल्कि साधान भर होता है। अब उत्तार-आधुनिकता वाले सवाल पूछ रहे हैं कि हमें आकाश का क्यों अन्वेषण करना चाहिए? हमें स्पेस टेक्नोलॉजी एवं न्युक्लियर टेक्नोलॉजी क्यों चाहिए? ऐसा नहीं है कि थेरवादी बौध्द-जैन श्रावक और पूर्वी ईसाई परंपरा के तत्वचिंतन में अन्तर नहीं है परंतु जहाँ तक नीति निर्देश एवं जीवन पध्दति का सवाल है समानता तो है ही। अठारहवीं शताब्दी तक आते आते यूरोपीय ईसाईयत यूरोपीय आधुनिकता से मुख्य धारा के स्तर पर हार चुकी थी। लेकिन रूस तब तक पूरी तरह आधुनिक नही हुआ था। रसियन ऑर्थोडक्स चर्च की परंपरा तब तक काफी जीवंत थी। मुझे नहीं मालूम कि रसियन ऑर्थोडक्स चर्च वाले धर्मपरिवर्तन के मामलों में किस हद तक उत्सुक रहते हैं परंतु इतना तय है कि गांधीजी पराजित हो चुके रोमन कैथोलिक चर्च या यूरोपीय प्रोटेस्टेंट चर्च से बहुत प्रभावित नहीं थे। ईसा मसीह एवं सर्मन ऑन द माउन्ट का यूरोपीय परंपरा में तुलनात्मक रूप से तब तक केवल प्रतीकात्मक महत्तव रह गया था जबकि रसियन परंपरा एवं टाल्सटाय में दोनों का तुलनात्मक महत्तव तब भी सुरक्षित था। टाल्सटाय की दिशा एवं दृष्टि से प्रभाव ग्रहण करके गांधीजी ने गुजराती वैष्णव परंपरा एवं भारत की गुलामी की व्याख्या की और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा एवं दृष्टि देने का प्रयास किया। कुमारस्वामी और गांधी बहुत मामलों में एक जैसे माने जाते हैं। परंतु तात्तिवक रूप से कुमारस्वामी गांधीजी की तुलना में सनातन हिन्दू/ महायानी बौध्द परंपरा के ज्यादा नजदीक (प्रवृत्तिमार्गी) माने जाते हैं। उनकी तुलना में महात्मा गांधी तात्तिवक रूप से मधयकालीन रसियन आर्थोडॉक्स चर्च और रस्किन की पारंपरिक यूरोपीय कलादृष्टि से प्रभावित आधुनिक व्यक्ति माने जाते हैं। अपने स्वभाव में कुमारस्वामी प्रवृत्तिमार्गी कहे जाते हैं जबकि गांधी निवृत्ति मार्ग के ईसाई मॉडेल के ज्यादा नजदीक माने जाते हैं। ऐसे ही विद्वानों का मानना है कि कुमारस्वामी में मधयकालीन ईसाई कला एवं विचार पध्दति का उसी तरह अपनी वैधाता के लिए इस्तेमाल है जिस तरह गांधी में हिन्दू धर्म की लौकिक परंपरा के स्रोतों का। इसी तर्क से, गांधी आधुनिक यूरोप के विरोधी थे और इसी अर्थ में अंग्रेजी राज के विरूध्द भारत की स्वाधीनता चाहते थे। स्वामी विवेकानंद एवं श्रीअरबिंदो के अनुयायियों ने महात्मा गांधी और कुमारस्वामी की उपरोक्त व्याख्या एवं सनातन धर्म और पारंपरिक सभ्यता की पुनर्व्याख्या करके इतिहास सुधारने का काम किया है। परंतु सनातन परंपरा में इतिहास को सुधारने की कोई अवधारणा नहीं है। सनातन परंपरा में समय की चक्रिय गति का सिध्दांत चार युगों के स्तर पर चक्र की गति से घुमता है, फलस्वरूप किसी व्यक्ति या किसी संप्रदाय के लिए इतिहास सुधारने का कोई उपाय नहीं होता। दूसरी ओर सनातन परंपरा यह भी मानती है कि एक आत्मा अपने कर्म फल को भोगने के लिए 84 लाख योनियों तक भ्रमण करती रह सकती है। हर नयी योनि में जन्म लेने पर पूर्व जन्मों के संस्कार सूक्ष्म रूप में साथ होते हैं। व्यक्ति पर जन्म काल से हीं बहुत प्रकार के पर्यावरण, वातावरण, शिक्षण, प्रशिक्षण, सामाजीकरण, सांस्कृतीकरण, संवाद एवं सजग-असजग प्रेरणाओं का प्रभाव पड़ता है। अत: व्यक्ति खुद एक ऐतिहासिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रिया के तहत धीरे-धीरे विकसित होता है। इसी क्रम में स्वाभाविक रूप से उसके विचार बनते बिगड़ते रहते हैं। हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने साफ-साफ कहा है कि हमलोग 1757 से 1857 तक अंग्रेजों से उनकी श्रेष्ठता के कारण नहीं हारे हैं बल्कि हमने स्वेच्छा से उन्हें भारत दान में दिया है और जब हम एक स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में उनसे अपना देश लेने का संकल्प करेंगे उस दिन उन्हें देश छोड़ कर जाना पड़ेगा। इतिहास गवाह है कि महात्मा गांधी की बात अंतत: सच साबित हुई। दूसरी ओर स्वामी विवेकानंद और कुछ हद तक श्रीअरबिंदो भी यह मानते थे कि अंग्रेजों ने अपनी बेहतर विज्ञान एवं तकनीक के बल पर हमें जीता था और भारत के स्वर्णिम भविष्य के लिए पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान, तकनीक एवं मैनेंजमेंट आदि सीखना अत्यावश्यक है। गांधीजी ने जो कहा/लिखा वह पश्चिमी साम्राज्यवाद से लड़ने में आज हमारा सबसे प्रमुख हथियार है। जबकि स्वामी विवेकानन्द ने गुलामी के दौरान भारतीय समाज की कमजोरियों के बारे में जो कहा या लिखा तथा भारतीय समाज के विकास के लिए यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की जो तारीफ किया वह भारतीय परंपरा के विरोधिायों के द्वारा भारत विरोधा के आधार के रूप में दुरूपयोग किया जाता रहा है। इतना तक कि कुछ लोग स्वामी विवेकानंद की कुछ बातों को संदर्भ से अलग करके स्वामी रामकृष्ण की आलोचना के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। अपनी सारी वैज्ञानिक चमक दमक के बावजूद आज आधुनिक पश्चिमी सभ्यता अपने असंतुलन, अपूर्णता एवं दंभ के कारण हार रही है। इससे समझौता की हर कोशिश (चाहे वह ऊपर से जितना अनुकूल दिखे) नुकसानदेह साबित होगी। उत्तार आधुनिक दौर के सांस्कृतिक उहा-पोह के बाद आज पश्चिमी सभ्यता में असुरक्षा एवं निराशावाद बहुत बढ़ गया है। दूसरी ओर चर्च-केन्द्रित एवं संगठित ईसाई धर्म की तुलना में घर-केन्द्रित एवं व्यक्ति-केन्द्रित स्वैच्छिक समुदायों एवं संप्रदायों की लोकप्रियता पश्चिमी सभ्यता में लगातार बढ़ रही है। बौध्द धर्म, नव-पैगन संप्रदायों एवं योग-धयान से संबंधिात आधयात्मिक समुदायों का आकर्षण भी लगातार बढ़ रहा है। श्रध्दालुओं के अभाव में कहीं-कहीं तो बड़े-बड़े विशाल गिरजाघर सूने पड़ने लगे हैं एवं नीलाम हो रहे हैं। इसके विपरीत इस्लाम धर्म के संगठित स्वरूप में पढ़े-लिखे मुसलमानों का आकर्षण बढ़ रहा है; जिससे कई बार ईसाई धर्म एवं इस्लाम धर्म के बीच सभ्यतामूलक संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। पश्चिमी सभ्यता पर इन प्रवृत्तिायों के सम्मिलित प्रभाव का व्यवस्थित अधययन होना अभी बाकी है। परंतु इतना तो कहा ही जा सकता है कि पश्चिमी सभ्यता एक सांस्कृतिक त्रासदी के दौर से गुजर रही है। वह इस त्रासदी से उबर पायेगी या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि वह अपने वैज्ञानिक एवं तकनीकि पक्ष का अपने समकालीन धार्मिक एवं धर्मशास्त्रीय (थियोलॉजिकल) जिज्ञासाओं के साथ तात्तिवक स्तर पर कितना समन्वय कर पाती है। पश्चिमी सभ्यता के निर्माण में धर्मशास्त्र की भूमिका विज्ञान एवं तकनीक से ज्यादा रही है परंतु आधुनिकता के दौर में धर्मशास्त्र और विज्ञान के बीच एक अजीब प्रकार का द्वंद्वात्मक संबंधा विकसीत हुआ था। अंतर्विरोधा के बावजूद यूरोप का आधुनिक विज्ञान एवं यूरोप का आधुनिक धर्म (प्रोटेस्टेन्ट मत) एक दूसरे को संबल देते रहे हैं। इसकी सबसे उत्कट अभिव्यक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका में देखी जा सकती है। आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक का सबसे निर्द्वंद्व विकास संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है। यूरोप की तुलना में अमेरिका के लोग ज्यादा धार्मिक माने जाते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार करीब 92 प्रतिशत अमेरिकी लोगों ने अपने को धार्मिक माना है जिसमें से करीब 21 से 23 प्रतिशत लोग कैथोलिक एवं 17 प्रतिशत लोग गैर-ईसाई धर्मों को मानते हैं इसके अलावे अन्य सभी लोगों पर प्रोटेस्टेन्ट एवं एंगलिकन संप्रदायों तथा पैगन-कल्टस का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव है। ये सभी गैर-कैथोलिक संप्रदाय किसी औपचारिक संगठन के तहत संगठित तो नहीं हैं परंतु यह संयोग नहीं है कि जॉन एफ. कैनेडी के अलावे कोई दूसरा कैथोलिक आज तक अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं हो पाया है। भारत में बहुत से लोग आधुनिक विज्ञान-तकनीक एवं विश्वविद्यालयों को ईसाई धर्म की परंपरा से काटकर देखने के आदी हैं। परंतु यह एक प्रकार का सरलीकरण है। पश्चिमी सभ्यता के समकालीन संकट का प्रभाव गैर पश्चिमी परंपराओं पर भी पड़ सकता है चूँकि पिछले 200 सालों में पश्चिम ने हर परंपरा के भीतर अपने समर्थकों का एक वर्ग तैयार कर लिया है। इसी अर्थ में कुछ लोग पश्चिमी सभ्यता को वैश्विक सभ्यता कहते हैं। भारत में भी कुछ लोग हिन्द स्वराज और गांधीवादी दृष्टिकोण की तुलना में यूरोपीय आधुनिकता के मूल स्वर को भारतीय सनातन दृष्टि के ज्यादा करीब पाते हैं। स्वामी विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ जैसे व्यक्तियों को सनातन भारतीय दृष्टिकोण का ज्यादा अधिाकारी प्रवक्ता माना जाता है। ज्यादातर भारतीय आधुनिकतावादियों की दृष्टि में महात्मा गांधी भारतीय परंपरा के प्रतिनिधिा नहीं थे। वे यूरोप की वैकल्पिक परंपरा के प्रतिनिधि थे। वे भारतीय परंपरा-दर्शन और जीवन में सुधार चाहते थे। अंग्रेज भी भारतीय परंपरा में सुधार चाहते थे। गांधी खुद को हमेशा सनातनी हिन्दू कहते रहे परंतु उनका प्रोजेक्ट हमेशा सुधार का रहा। गांधी 'भारतीय परंपरा की आत्मा' में सुधार चाहते थे। जबकि आधुनिकतावादी लोग 'भारतीय शरीर' में सुधार चाहते थे। ऐसे लोग फख्र से कहते हैं कि गांधी में एक प्रकार का अतिवाद था जिसे रवीन्द्रनाथ ने 'गोरा' में दिखलाया है। जबकि ब्रह्म समाज और इसकी उपज विवेकानन्द तथा रवीन्द्रनाथ में आधुनिकता और भारतीयता का संतुलन स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। सभ्य समाज का काम संस्थाओं-संगठनों के बिना नहीं चल सकता। ऐतिहासिक संस्थाओं की सीमा हो सकती है। उनमें सतत सुधार होता रहा है। पश्चिम में भी और भारत में भी। गांधी, इलीच, सुमाखर आदि की आलोचनाओं से सुधार की प्रक्रिया प्रभावित हुई है और आगे भी इनकी आलोचनाओं को धयान में रखा जाना चाहिए परंतु इनके पास कोई वैकल्पिक दर्शन नहीं है। इनके पास एक प्रकार का अराजकतावाद/व्यक्तिवाद है जिसे अधिक से अधिक रूमानी स्वप्न कहा जा सकता है। एक अन्य अर्थ में यह संन्यासियों की जीवन दृष्टि हो सकती है। यह गृहस्थों के जीवन-दर्शन का विकल्प न रहा है, न होना चाहिए, न होगा। यह दृष्टि एकांगी है। यह दृष्टि चाहे जितना लोकप्रिय बन गयी हो पर यह तथ्यों पर आधारित नहीं है।
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