यूरोपीय आधुनिकता एवं समकालीन भारतीय समाज
पेज 2 इस दृष्टि के विपरीत 'मेरे सपनों का भारत' ('इंडिया ऑफ माई ड्रीम') नामक पुस्तक में गांधीजी द्वारा लिखित निबंधा को पढ़ने के बाद किसी के लिए भी गांधीजी को ईसाई कहना सम्भव नहीं होगा। वे एडवर्ड सईद की भाषा में प्राच्यवाद से प्रभावित हिन्दू तो कहे जा सकते हैं पर उन्हें पश्चिमी अर्थों में ईसाई कहना ज्यादती होगी। पश्चिमी अर्थों में केशवचन्द्र सेन भी ईसाई मानदण्डों पर खरे नहीं उतरते। ये लोग ईस्टर्न आर्थोडॉक्स चर्च के नजदीक या उससे प्रभावित लोग थे और इस दृष्टि से गांधीजी ए. के. सरण, कुमारस्वामी आदि के परंपरावाद से अलग नहीं थे। कुल मिला कर भारत में चार प्रकार का प्राच्यवाद प्रचलित है। एक प्रकार का प्राच्यवाद एशियाटिक सोसाइटी वाले विलियम जोंस लेकर आये। दूसरे प्रकार का प्राच्यवाद मैक्समूलर के प्रभाव में फैला। तीसरे प्रकार का प्राच्यवाद गांधी लेकर आये और चौथे प्रकार का ऐनी बेसेन्ट, कुमारस्वामी और श्रीअरबिन्दो लेकर आये। सत्य की परीक्षा उसके स्वरूप से होती है उसके उद्गम से नहीं होती। स्वदेशी की तुलना में स्वालंबन पर जोर सनातन भारतीय दृष्टि की विशेषता रही है। विवेकानन्द, सावरकर, गांधी, दयानन्द, राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ, अरबिन्दो सभी की चिन्ता भारत को मजबूत बनाना था। सभी अपनी-अपनी समझ से भारत की परंपरा को समझने की कोशिश कर रहे थे। सभी भारतीय परंपरा के आन्तरिक और बाह्य संकट को समझ कर भारतीय परंपरा का संवर्धान करना चाहते थे या युगानुकूलन करना चाहते थे। इसमें दृष्टि भेद अवश्य था। रोजर लिप्से की तो स्पष्ट मान्यता है कि कुमारस्वामी पर ईमाईल मेल द्वारा प्रस्तुत क्रिश्च्यन आईकोनोग्राफी (ईसाई मूर्तिविज्ञान) के अधययन का दूरगामी प्रभाव था। मॉरिस और मेल का कुमारस्वामी पर प्रभाव ज्यादा था या रस्किन और टाल्सटाय का गांधी पर प्रभाव ज्यादा था यह बहुत जटिल प्रश्न है। इसका उत्तार आसान नहीं है। दोनों आधुनिक यूरोपीय सभ्यता के खिलाफ थे। परंतु गांधी ईसा मसीह एवं ईस्टर्न आर्थोडॉक्स चर्च से प्रभावित माने जाते हैं जबकि कुमारस्वामी कैथोलिक बुध्दिवाद-रहस्यवाद और इसके समकालीन प्रतिनिधियों से प्रभावित माने जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि गांधी अपनी ईसाई समझ का उपयोग अंग्रेजी राज के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन के अपने नेतृत्व एवं राजनीति एवं अर्थनीति के क्षेत्र के प्रयोगों में कर रहे थे जबकि कुमारस्वामी अपनी ईसाई समझ का उपयोग भारतीय शास्त्रों एवं परंपरा की अधिाकारी व्याख्या करने में कर रहे थे। अत: रूढ़ अर्थों में, एक सीमा से ज्यादा न गांधी परंपरावादी हैं और न कुमारस्वामी (और न हीं श्रीअरबिन्दो)। जहाँ तक ये लोग वाचिक परंपरा को अस्वीकार नहीं करते वहीं तक आम भारतीयों ने इनको स्वीकारा। आम भारतीयों का असंदिग्धा भरोसा समकालीन लोगों में संभवत: केवल स्वामी रामकृष्ण परमहंस तक ही सीमित रहा है। हाँ, सभ्यतामूलक विमर्श में एक हथियार के रूप में अन्य लोगों का भी उपयोग किया गया है परंतु समझ बढ़ाने के लिए रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद् एवं पुराणों के साथ-साथ सांप्रदायिक आचार्यों के विमर्श को ज्यादा भरोसेमंद स्रोत माना जाता रहा है। असल में, हर शास्त्रीय परंपरा एवं सभ्यता में द्वैधावृति या एम्बीवैलेंस होता है। हर महान व्यक्ति एक रहस्यमय भाषा में अपने को अभिव्यक्त करता है। उसे दोनो प्रकार के लोग ठीक से नहीं समझ पाते, न मित्र, न शत्रु; परंतु वह दोनों के साथ सहज होता है। इनका वर्गीकरण इतना सरल नहीं होता। एक अर्थ में ये लोकोत्तार होते हैं। गांधी, अरबिन्दो और कुमारस्वामी तीनों ऐसे ही महान लोग थे। बहुत कुछ दुर्खीम, माक्र्स और वेबर की तरह। इसमें गांधी और कुमारस्वामी बहुत कुछ एक जैसे थे और अरबिन्दो थोड़े अलग थे, ठीक उसी प्रकार जैसे दुर्खीम और माक्र्स बहुत मामलों में एक जैसे थे और वेबर थोड़े अलग थे। अपने व्यक्तित्व के विकास के दौरान कुमारस्वामी और महात्मा गांधी ने कई तरह का एवं कई व्यक्तियों का प्रभाव ग्रहण किया परंतु अपने अन्तिम दिनों में कुमारस्वामी और गांधी दोनों काफी हद तक सनातनी हिन्दू बन गये थे। गांधी अपने अन्तिम समय में सनातनी जीवन मूल्यों को जीने लगे थे और उनके अन्तिम शब्द थे ''हे राम !'' उसी तरह अपने अन्तिम दिनों में कुमारस्वामी भी वानप्रस्थी हिन्दू की तरह व्यवहार करने लगे थे। अपने अन्तिम लेख को उन्होंने 'ओम नमो अनन्ताय कालान्तकाय' नामक मंत्र से खत्म किया था। अत: विषय वस्तु के साथ-साथ संरचना में भी वे सनातनी हिन्दू की तरह व्यवहार करने लगे थे और बार-बार अपने को भारतीय कहने लगे थे। परंतु इन लोगों ने अपना-अपना सनातन हिन्दूपन खोजा था विरासत के रूप पाया नहीं था और यह खोज पूरे जीवन की साधाना का फल था, किसी गुरू के मार्गदर्शन में एक फार्मूला के तहत नहीं खोजा था। हिन्द स्वराज की रचना भले हीं 1909 में हुई थी लेकिन अपने अंतिम समय तक महात्मा गांधी की आस्था इस पुस्तिका के सत्य एवं प्रासंगिकता के बारे में बनी रही। यदि किसी एक रचना के आधार पर महात्मा गांधी का मूल्यांकन करना पड़े तो वह रचना हिन्द स्वराज ही हो सकती है; परंतु सनातन धर्म के दायरे में किसी व्यक्ति का मूल्यांकन मात्र उसकी रचना एवं कार्य के आधार पर नहीं किया जाता बल्कि उसकी आत्मानुभूति एवं ब्रह्मानुभूति की साधाना एवं सिध्दि के आधार पर भी किया जाता है। फलस्वरूप एक कृति के रूप में हिन्द स्वराज एवं इसके कृतिकार महात्मा गांधी की जीवनानुभूतियों को अलग-अलग करके देखना उसी तरीके से संभव नहीं है जिस तरीके से पश्चिमी परंपरा में एक किताब को स्वायत्ता मान कर देखा-पढ़ा जाता है। इसी संदर्भ में यह धयान रखना भी आवश्यक है कि भारतीय परंपरा में जो रणनीतिक व्यावहारिकता पायी जाती है वह उपरि तौर पर अमेरिकी व्यवहारवाद (प्रैगमेटिज्म) के समान दिखती अवश्य है परंतु दोनों में गुणात्मक अंतर है। अमेरिकी प्रैगमेटिज्म का आधार यूरोप का मानववाद है। यूरोपीय मानववादी दृष्टि की तरह ही अमेरिकी दृष्टि में भी मनुष्य के रूप में व्यक्ति ब्रह्माण्ड का केन्द्र है और इसमें भी व्यक्ति को परम स्वतंत्र और परम स्वायत्ता कर्ता ही माना जाता है। परंतु जब एक भारतीय व्यक्ति सांसारिक युक्ति की बात करता है या किसी किताबी सिध्दांत के प्रति समर्पित होने के बदले अपनी अंतरात्मा की आवाज को ज्यादा महत्तव देता है तो वह ब्रह्माण्ड के केन्द्र में एक प्रकार की अतिमानवीय शक्ति या सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार रहा होता है। भारतीय दृष्टि में व्यक्ति इसी अतिमानवीय शक्ति की अभिव्यक्ति का एक माधयम भर होता है। यहाँ सांसारिक युक्ति का लक्ष्य नियति का एक प्रभावी माधयम (सुपात्र) बने रहने के उद्देश्य से प्रेरित होता है न कि परम स्वतंत्र, स्वायत्ता व्यक्ति बने रहने के मानववादी अहंकार से प्रेरित होता है। उसी तरह उत्तार-आधुनिकतावादियों के विमर्श के केन्द्र में भी यूरोपीय मानववाद की ही ज्यादा उत्कट अभिव्यक्ति हुई है। उत्तार-आधुनिकतावादियों को लगता है कि आधुनिक संस्थाओं के तहत मनुष्य के रूप में एक व्यक्ति उतना स्वतंत्र एवं स्वायत्ता नहीं रह पाता जितना कि उसे होना चाहिए या जितना कि वह होने में समर्थ है। अत: बहुसांस्कृतिक विकल्प की वकालत के पीछे उत्तार-आधुनिकतावादियों का उद्देश्य व्यक्ति की मानववादी दृष्टि को तार्किक परिणति देना है। उनका उद्देश्य मात्र इतना होना चाहिए कि व्यक्ति को अधिक से अधिक चुनाव का अवसर मिले। उनके लिए बहुसांस्कृतिक विमर्श बाजार में उपलब्धा मनोरंजक उत्पाद भर है जिसका उपयोग उत्तार-आधुनिक मानव एक परम स्वतंत्र, परम स्वायत्ता व्यक्ति के रूप में करता है। उत्तार-आधुनिक विमर्शों की प्रकृति एवं ईश्वरीय तत्व से, तात्तिवक रूप से, वही संबंधा है जो आधुनिक विमर्शों का रहा है। उत्तार-आधुनिक विमर्शों के केन्द्र में भी मनुष्य ही है और उनके यहाँ भी संस्कृति की अवधारणा में प्रकृति या ईश्वरत्व की कोई भूमिका पारिभाषिक रूप से अब तक स्वीकारी नहीं गई है।
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