Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी और उनके आलोचक

महात्मा गांधी और उनके आलोचक

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महात्मा गांधी के समकालीनों ने उनके जीवन में हीं उनकी व्यक्तिगत महानता स्वीकार कर ली थी परंतु उनमें से अधिकांश लोगों ने उनके विचारों, आस्थाओं एवं रणनीतियों की कटु आलोचना की थी। उदाहरण के लिए स्वदेशी एवं असहयोग आंदोलन के बारे में गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधीजी के विचारों की कठोर वैचारिक आलोचना प्रस्तुत की थी। टैगोर का औपचारिक रूप से स्कूल नहीं जाना उनके लिए वरदान साबित हुआ। दूसरा, उनकी विलक्षण प्रतिभा ने उन्हें ब्रह्म समाज की पश्चिम परस्त बौध्दिकता से मुक्त करके चंडीदास से जुड़ने में उनका साथ दिया। तीसरा, उनका सौभाग्य था कि वे यूरोप एवं आधुनिकता को गैर-ब्रिटिश, गैर-फ्रांसीसी या गैर-अमेरिकी दृष्टि से काउन्ट केसरलिंग से अपनी दोस्ती एवं संवाद के कारण देख पाये। टैगोर पर स्वामी विवेकानंद के अद्वैत वेदांत का भी प्रभाव था। उसी प्रकार भारत के पुनर्निर्माण के बारे में जवाहरलाल नेहरू एवं भीमराव अम्बेदकर ने गांधीजी के विचारों की लगातार आलोचना की। जवाहरलाल नेहरू पर एक ओर पश्चिमी समाजवाद का प्रभाव था, दूसरी ओर उनपर काश्मीरी शैव चिंतन का भी अप्रत्यक्ष प्रभाव था। बाबासाहब अम्बेडकर भगवान बुध्द, संत कबीर एवं महात्मा फुले से प्रभावित थे। मुहम्मद अली जिन्ना एवं कुछ माक्र्सवादी नेताओं को महात्मा गांधी एक कट्टर हिन्दुत्ववादी नजर आते थे तो श्रीअरबिंदो एवं वीर सावरकर के अनुयायियों को महात्मा गांधी अभारतीय एवं अहिन्दू नजर आते थे।

उसी तरह हिन्दी भाषी समाज में सांस्कृतिक नवजागरण के एक प्रमुख स्तंभ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ''चिन्तामणि-4'' में संकलित अपने लेख ''असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ'' में महात्मा गांधी के विचारों एवं उनकी नीतियों के फलितार्थों के प्रति विस्तृत एवं स्पष्ट सार्वजनिक आलोचना प्रस्तुत की थी। उन्होंने लिखा कि ''मि. गांधी यूरोपीय आन्दोलनकारी के सारे युक्ति कौशल में प्रशिक्षित होकर दक्षिण अफ्रीका से आए हैं। आन्दोलनकारी के रूप में वे अतुलनीय हैं। भारत को उनके जैसे व्यक्ति की अत्यधिक आवश्यकता थी । किन्तु आन्दोलनकर्ता समस्त मामलों में एक अच्छा प्रशासक भी सिध्द होगा, यह मेरे सामने उतना स्पष्ट नही है। मि. गांधी उन बिन्दुओं को अच्छी तरह जानते है जिन्हें स्पर्श किया जाय तो वे तीव्रतम उत्तोजना पैदा कर सकते हैं। उनके अर्ध्द धार्मिक - अर्ध्द राजनीतिक प्रवचनों ने करोड़ों के ह्रदय झकझोर दिए। व्यापारिक समुदाय को तो लगभग मतान्धाता की ओर परिचालित कर दिया है। इसका ही यह परिणाम था कि कलकत्ताा के विशेष कांग्रेस अधिावेशन में वयोवृध्द एवं सम्मानित नेता केवल नगण्य ही नहीं हुए अपितु उनके अनुयायियों द्वारा वे खुलेआम अपमानित भी किये गये। हमें नहीं मालूम कि मि. गांधी सदैव यह अनुभव कर पाते है अथवा नहीं कि उनके शब्दों से कभी-कभी ऐसे परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, जो उनकी पकड़ से बाहर हैं। हम तो यही देखना प्रारम्भ कर रहे हैं कि उनकी अहिंसा किसी भी प्रकार शांति सुव्यवस्था का पर्याय नहीं है। मि. गांधी ने असहयोग की अनिश्चित योजना प्रारम्भ कर दी। इसने जो शोर और कोलाहल पैदा किया उससे मुग्धा होकर इसके असंतुलित चरित्र को बिना सोचे-विचारे लोग इसकी ओर दौड़ पड़े। किन्तु यह पूर्णतया स्पष्ट है कि कोलाहल का सृजन मात्र, जिसमें असहयोगियों ने निश्चित रूपेण उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है, किसी भी तरह अन्यायों का निराकरण नहीं कर पायेगा और न ही उनकी (अंग्रेजों की) ख्याति के अवसरों में कमी कर सकेगा। विभाजन के विरूध्द बंगाल में जिस प्रकार आन्दोलन संगठित किया गया, उसी प्रकार अधिक सुनिश्चित एवं अधिक लक्ष्योन्मुख कार्य प्रदर्शन की आवश्यकता है। सत्याग्रह आन्दोलन की नियति देखकर मि. गांधी की प्रणाली के प्रति विश्वास डिग जाना चाहिए था, किन्तु व्यक्तित्तवों के प्रति रहस्यवादी भक्ति भारतीय जन समूह की चारित्रिक विशेषता है। लोकमान्य तिलक की मृत्यु ने राष्ट्रवादियों के पूरे दल को मि. गांधी की अनुकम्पा पर छोड़ दिया है। इसके बहुत से विचारशील नेता जिनमें महाराष्ट्रीय लोग भी सम्मलित हैं, अपनी पीठ पर तमाम सामाजिक एवं आर्थिक विचारधाराओं की गठरी लादे हुये कांग्रेस की प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए चुपचाप असहयोगियों की कतार में शामिल हो गये। और स्पष्ट कहा जाय तो उन्होंने ऐसा इसलिए किया है, ताकि वे अनभिज्ञ एवं तरूण लोगों की हूटिंग से अपने को बचा सकें।''

आचार्य शुक्ल महात्मा गांधी के चमत्कारी व्यक्तित्तव एवं नेतृत्व को भारतीय समाज के लिए कल्याणप्रद नहीं मानते। वे उनके नेतृत्व को अर्धाधार्मिक एवं अर्धाराजनैतिक प्रवचनों पर आधारित मानते हैं और उनकी लोकप्रियता को भारतीय जनसमूह में व्याप्त व्यक्तित्तवों के प्रति रहस्यवादी भक्ति का कुफल मानते हैं। शुक्लजी के विचार प्रसिध्द यूरोपीय विद्वान तेन से प्रभावित थे। उनकी व्याख्या से हर बार सहमत होना आवश्यक नहीं है। परंतु उनका यह कहना आश्चर्यजनक है कि महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गये असहयोग आंदोलन की कोई निश्चित योजना नहीं थी। हिन्द स्वराज का प्रकाशन एक दशक पहले हो चुका था। हिन्द स्वराज और असहयोग आंदोलन के बीच रिश्ता नहीं देखना अजीब विडंबना है। परंतु शुक्लजी का गांधी विरोधा ज्यादा गहरी मान्यताओं का प्रतिफल था। वे आगे लिखते हैं :-

''मि. गांधी की उक्तियों में बोलशेविज्म का स्पर्श लोकप्रिय (पापुलर) कल्पना को तभी तक आकर्षित कर रहा है जब तक इसका तरीका पक्षधार है। थोड़े से भी चिन्तन से वे यह देखने में समर्थ हो जायेंगे कि यह असहयोग केवल एक सतही विद्रोह है जिसमें बहुत से परस्पर विरोधी असंतुलनीय तत्व स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमें इस आन्दोलन में ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे जो यूरोप के किसी नवीनतम उन्माद को मानव प्रगति का चरम बिन्दु समझ कर स्वीकार कर लेते हैं और प्रत्येक वस्तु का पूरा सफाया कर देना चाहते हैं जो अतीत से उपलब्धा हुई है साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति भी इसमें सम्मलित हैं जो प्राचीन भारत के स्वप्न-चिन्तन में निरत हैं एवं पुरातन अवशेषों की प्रत्येक वस्तु के पुनरूत्थान का विचार कर रहे हैं। इस आन्दोलन में ऐसे व्यक्ति भी हैं जो अपनी जन्मभूमि के देश के प्रति भक्ति के आधुनिक बोधा से ओत-प्रोत हैं, साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति हैं जो जाति, धर्म या मत के आधार पर एकता के विचारों को दृढ़ता से पकड़े हुए हैं। ये सभी व्यक्ति-समूह इस विश्वास से अभिप्रेरित हैं कि वे अपने भिन्न आदर्शों एवं उद्देश्यों की पूर्ति की ओर बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार का विलक्षण सम्मिश्रण अपने विभिन्न घटकों को अधिाक दिन एक साथ नहीं रख पायेगा। अतएव मि. गांधी के स्वराज सम्बन्धी विचार कल्पना विलासी हैं। वह या अन्य कोई भी महात्मा इस प्रकार की परस्पर विरोधी चीजों में सामन्जस्य लाने का चमत्कार नहीं दिखा सकता।''

शुक्लजी के इस लेख में महात्मा गांधी को भारतीय समाज की व्यापारिक श्रेणियों का प्रतिनिधि एवं हित रक्षक एवं अव्यापारिक श्रेणियों के हितों के प्रति उदासीन बतलाया गया है। शुक्लजी ने लिखा है- ''अब हम देख सकते हैं कि असहयोग आन्दोलन ने व्यापारिक श्रेणियों के साथ इतनी अधिक पक्षधारता क्यों प्राप्त की और ऐसे बेमिसाल जोश के साथ उनमें से इतने अधिक लोग सिध्दान्त का उपदेश देने क्यों अग्रसर हुए। सर्वप्रथम तो यह इनसे त्याग की लेशमात्र अपेक्षा नहीं रखता, जबकि अव्यापारिक श्रेणियों को जो कुछ अब भी उनके पास शेष बचा है, वह बलिदान कर देने को कहता है। यद्यपि असहयोग के कार्यक्रमों में 'बहिष्कार' भी एक है तथापि इतना समझने के लिए वे पर्याप्त चतुर हैं कि अव्यावहारिक घोषित हो जाने से बहिष्कार, एक उपेक्षणीय इकाई हो जाता है जिसका दबाव किसी गंभीरता के साथ उन पर नहीं डाला जा सकता। इसकी व्यावहारिकता तो पूरी की पूरी अव्यापारिक श्रेणियों के पक्ष में लागू होती है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों से वापसी, राजकीय सेवाओं के त्याग, जमींदार और किसान के रूप में परस्पर एक दूसरे से युध्द करते रहने से अधिक व्यावहारिक तथा विदेशी व्यापारियों के साथ किसी एक भी वस्तु की सौदेबाजी के त्याग से बढ़कर अव्यावहारिक और क्या हो सकता है?  

दलाल, आढ़ती, सट्टेबाज, आयातक, निर्यातक एवं डीलर को अपना सम्बन्धित व्यापार पूरे ऐश्वर्य एवं शानोशौकत के साथ जारी रखना है। यह तो केवल अव्यापारिक और राजनीतिक श्रेणी हैं जिन्हें अपने क्षेत्र से बाहर आना है और उस व्यापारिक समुदाय की शरण में अपने घुटने टेक देना हैं जिनकी पूँजी अभी तक उन्हें आकर्षित कर पाने में असमर्थ रही है।

इस लेख में शुक्लजी स्वतंत्रता आंदोलन के वैचारिक टकराव को नये परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं। इसका उद्देश्य गांधीजी को वर्ग हित से जोड़ना है। शुक्लजी की हिम्मत को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने गांधीजी के बारे में अपने और अपने जैसों का विचार बड़ी ईमानदारी से रखा। वे कहते हैं कि जब असहयोग आंदोलन राजस्व का भुगतान न करने की सीमा तक जा सकता है तो भूमि अधिकारी या कृषक वर्गों के पास क्या गारन्टी है कि जिस समय उनकी भूमि नीलामी पर रखी जायेगी उस समय व्यापारिक समुदाय के सदस्य उनकी जमीनों को खरीद लेने के लिए आगे बढ़ कर भाग दौड़ नहीं करेगें। दोनों वर्गों द्वारा समान रूप से त्याग का सिध्दान्त असहयोगियों की नीति में चरितार्थ होना चाहिए। यदि वे वास्तव में सरकारी कार्यतंत्र को बन्द कर देने एवं ब्रिटिश व्यवसाय को पंगु बना देने में अपने को सक्षम समझते हैं तो उन्हें अपने कर्म के लिए अनिवार्यत: एक वृहत्तार दृष्टिकोण अपनाना होगा। अब तक किये गये गौरवपूर्ण बलिदान अव्यापारिक श्रेणियों तक ही सीमित रहे हैं। व्यापारिक वर्ग उदारता के अत्यन्त न्यून प्रदर्शन के साथ केवल कोलाहल और भाग दौड़ में सम्मिलित हुआ है।

बिड़ला, बजाज जैसे व्यवसायियों के साथ गांधीजी के जगजाहिर संबंधा को देखते हुए शुक्लजी के लेख में उपरोक्त दृष्टि एक नजर में अस्वाभाविक नहीं लगती। प्रस्तुत दृष्टि एक प्रकार के सरलीकरण पर ही आधारित है। यह ठीक है कि स्वदेशी आंदोलन से लेकर असहयोग आंदोलन तक भारत के विभिन्न वर्गों की भागीदारी एक जैसी नहीं थी और इस भागीदारी को वर्ग हितों ने भी प्रभावित किया था परंतु इसका यह अर्थ लगाना ठीक नहीं है कि महात्मा गांधी को अव्यापारिक श्रेणियों या वर्गों की चिंता नहीं थी। हिन्द स्वराज की प्रमुख चिंता भारतीय सभ्यता की दृष्टि से समकालीन भारत और पश्चिमी सभ्यता के बीच अंग्रेजी राज के दौरान विकसित हुए अस्वभाविक संबंधों की छान बीन करना था न कि वर्गों एवं श्रेणियों के हितों की दृष्टि से रणनीति तैयार करना था। परंतु अंग्रेजों से असहयोग की नीति या स्वदेशी आंदोलन में विसंगतियाँ थी और विभिन्न श्रेणियों के लोगों के बीच राष्ट्रीय हित की जगह वर्ग एवं श्रेणियों के हित का महत्तव काफी हद तक कायम था इसे स्वीकारा जा सकता है। परंतु अव्यापारिक श्रेणियों की अवधारणा हास्यास्पद है। जमींदार, किसान, मजदूर एवं सरकारी कर्मचारियों को एक हीं अव्यापारिक श्रेणी में रखना सामाजिक यथार्थ से मुंह मोड़ने का उदाहरण हैं। कुल मिलाकर शुक्लजी का यह लेख उन्हें नरमपंथियों के समूह में शामिल करता है जबकि वे खुद को तिलक की परंपरा से जोड़ते हैं और गांधीजी को एक तरीके से तिलक महाराज के विरोधी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अत: शुक्लजी के वैचारिक प्रेरणा की छानबीन करना आवश्यक है।

यह ठीक है कि शुक्लजी पर बंगाल रेनैसां का प्रभाव नहीं था। परंतु बंगाल में जो नवजागरण हुआ वह एक जटिल सांस्कृतिक घटना थी। यदि इसकी एक प्रवृत्ति के प्रवक्ता राममोहन राय और उनका ब्रह्म समाज था तो दूसरी प्रवृत्ति के प्रवक्ता लाहिड़ी महाशय, उनके शिष्य श्री युक्तेश्वर गिरी और उनके शिष्य परमहंस योगानंद थे; तीसरी प्रवृति के प्रवक्ता विशुध्दानन्द सरस्वती एवं गोपीनाथ कविराज थे; चौथी प्रवृत्ति के प्रवक्ता श्रृंगेरी पीठ से जुड़े स्वामी तोतापुरी महाराज एवं उनके ''शिष्य'' रामकृष्ण परमहंस थे; पाँचवीं प्रवृत्ति चैतन्य महाप्रभु की परंपरा थी जिसके समकालीन प्रतिनिधि प्रभुपाद रहे हैं। इसके अलावा बंगाल में तंत्र की परंपरा रही है जिसकी प्रतिनिधि रामकृष्ण के समय में भैरवी ब्राह्मणी थी और हमारे समय में आनन्द मार्ग के संस्थापक आनन्दमूर्ति प्रभात रंजन सरकार रहें हैं। इसके अलावा बंकिम, विद्यासागर, विपिनचन्द्र पाल, स्वामी विवेकानन्द एवं रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे व्यक्ति रहे हैं जो जुड़े चाहे जिस भी सांप्रदायिक परंपरा से रहे हों परंतु व्यक्तित्व एवं कृतित्तव में काफी हद तक मौलिक एवं स्वतंत्र चिंतक माने जा सकते हैं।

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