Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी और उनके आलोचक

महात्मा गांधी और उनके आलोचक

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ठीक उसी प्रकार से मराठी परंपरा भी इकहरी नहीं है। यदि मराठी पहचान को संत ज्ञानेश्वर और वारकरी संप्रदाय ने निवृत्तिमार्गी एवं मोक्षकामी स्वरूप प्रदान किया तो समर्थ रामदास एवं शिवाजी महाराज ने प्रवृत्ति मार्ग एवं परम ऐश्वर्य को यथोचित महत्तव दिया। महादेव गोविन्द राणाडे यदि भक्ति मार्गी एवं सुधारवादी थे तो अगरकर नास्तिक एवं सुधारवादी थे। तिलक महाराज पश्चिमी अर्थों में 'एग्नॉस्टिक' परंतु परंपरावादी थे बहुत कुछ पूर्व मीमांसा दर्शन एवं सांख्य दर्शन के बीच की भाव-भूमि पर। वे घोषित रूप से शंकराचार्य एवं ज्ञानेश्वर के बीच का रास्ता तलाशना चाहते थे। तिलक महाराज ने तीन प्रमुख ग्रंथों की रचना की है - वेदांग ज्योतिष पर 'ओरियन' नामक पुस्तक उन्होंने 1892 में लिखी थी जो 1893 में प्रकाशित हुई थी। 'दि आर्कटिक होम इन द वेदाज' 1902 में प्रकाशित हुई थी। ये दोनों पुस्तकें उनके वैदिक साहित्य के गहन अधययन की परिचायक हैं तथा अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थीं। तीसरी महत्तवपूर्ण पुस्तक 'गीता रहस्य' 1910 में लिखी गई थी और 1911 में (मराठी संस्करण) प्रकाशित हुई थी। इसका हिन्दी अनुवाद 1917 में प्रकाशित हुआ था। जबकि शुक्लजी का उपरोक्त लेख 1922 में प्रकाशित हुआ था। 1920 में तिलक महाराज की मृत्यु हो चुकी थी और महात्मा गांधी राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वप्रमुख व्यक्ति बन चुके थे। कांग्रेस 1906 से गरम दल एवं नरम दल में आंतरिक रूप से विभाजित थी परंतु गरम दल में कई तरह के लोग थे- विपिनचन्द्र पाल, लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय, अरविन्दो घोष, सावरकर, मुंजे, केलकर, हेडगेवार एवं रामचन्द्र शुक्ल को एक अर्थ में गरमदल की तिलकवादी विचारधारा से जुड़ा माना जाता है। परंतु तिलकवादी विचारधारा और तिलक की व्यक्तिगत विचारधारा में बुनियादी अंतर है। तिलक के जीवन में ही गांधी ने खुद को तिलक की विरासत का उत्तराधिाकारी माना था और तिलक महाराज ने गांधी के सत्याग्रह को आशीर्वाद एवं उनके खिलाफत आंदोलन को शुभकामना प्रदान की थी। गांधीजी ने लिखा है (23 जुलाई 1921) ''मेरा बहुत विनम्र दावा है कि मैं उनके (तिलक) संदेश को देशवासियों तक उतनी ही अच्छी तरह पहुँचाने का प्रयत्न कर रहा हूँ जितनी अच्छी तरह उनके अच्छे-से अच्छे शिष्य पहुँचा सकते थे। ... तिलक को मेरी पध्दति में अविश्वास नहीं था मुझे उनका विश्वासपात्र होने का सौभाग्य प्राप्त था। तिलक महाराज ने मुझसे कहा था कि तुम्हारा मार्ग बहुत उत्ताम है, शर्त यह है कि जनता को उसे अपनाने के लिए राजी किया जा सके। किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि मेरी अपनी शंकाएं है।'' अत: गांधीजी को तिलक का विरोधी एवं शुक्लजी को तिलक का अनुयायी मानना हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह जैसे कुछ लोगों को चाहे जितना प्रिय लगता हो, यह तथ्यों पर आाधारित वर्गीकरण नहीं माना जा सकता। रामचन्द्र शुक्ल सम्भवत: केलकर के प्रभाव में गांधी को तिलक का विरोधी मानते थे।

महात्मा गांधी निवृत्तिा मार्गी ही माने जाते हैं। वे स्वतंत्रता आंदोलन के नायक एवं लोकजागरण की प्रेरणा माने जाते हैं परंतु विनोबा जैसे कुछ अनुयायियों को छोड़कर उनके अनुयायियों ने भी उन्हें प्रमाण नहीं माना। एक व्यक्ति के रूप में गांधी को महान आत्मा माना गया परंतु उनके विचारों को इस देश ने बहुत महत्तव नहीं दिया। भारत की तुलना में पश्चिम में गांधी की लोकप्रियता एक मौलिक चिंतक के रूप में ज्यादा है। भारतीय संदर्भ में गांधी को भक्तिमार्गी माना जाता है जबकि तिलक को ज्ञानमार्गी चिंतक माना जाता है। एक लेखक के रूप में गांधी की सबसे महत्तवपूर्ण कृतियाँ आत्म कथात्मक हैं। (माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ; सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका) जबकि उनकी सबसे लोकप्रिय पुस्तक 'हिन्द स्वराज' उपनिषदों की शैली में एक सभ्यता मूलक संवाद है। दूसरी ओर तिलक महाराज की तीनों पुस्तकें विशुध्द रूप से दार्शनिक एवं अकादमिक पुस्तकें हैं। वे हिन्दू शास्त्रों एवं भारतीय दर्शन के काफी व्यवस्थित विद्वान थे जबकि गांधीजी को संस्कृत नहीं आती थी। उनकी जानकारी या ज्ञान का स्रोत हमेशा उनकी अनुभूति एवं धयान से छन कर आता था। गांधीजी जैन प्रभाव वाले सनातनी वैष्णव थे जबकि तिलक महराज मूलत: पूर्वमीमांसा, सांख्य, वेदांत, ज्योतिष एवं नीतिशास्त्र से प्रभावित थे। हिन्दू कानून के अधयेता होने के कारण गौतमबुध्द, नागार्जुन, शंकराचार्य एवं समर्थ रामदास की मिली-जुली परंपरा में वे निर्गुण, कर्मवादी एवं संगठित धर्म के नजदीक माने जायेंगे। गणेश उत्सव एवं कर्मवादी कृष्ण को उन्होने युग धर्म का मानदंड बनाया।

तिलक महाराज की तुलना में शुक्लजी संभवत: राणाडे के विचारों के ज्यादा नजदीक थे। राणाडे की पुस्तक 'मराठा शक्ति का उत्थान' सन 1900 में प्रकाशित हुई थी। इसमें एक अधयाय है - महाराष्ट्र के संत तथा पैगम्बर। इस पुस्तक में उन्होनें प्रतिपादित किया कि मराठा स्वराज के दो आधार स्तंभ थे - धार्मिक एवं सामाजिक सुधार एवं शिवाजी का सैनिक एवं राजनैतिक नेतृत्व। राणाडे धार्मिक एवं सामाजिक सुधार की परंपरा का आरंभ संत ज्ञानेश्वर की रचना ज्ञानेश्वरी से मानते थे। मराठी भक्ति एवं आधयात्मिक परंपरा की राणाडे द्वारा प्रस्तुत व्याख्या एवं शुक्लजी द्वारा प्रस्तुत भक्ति साहित्य के विश्लेषण में आश्चर्यजनक समानताएं हैं। राणाडे की दूसरी पुस्तक 'महाराष्ट्र में रहस्यवाद' प्रकाशित तो 1933 में हुई थी परंतु इस पुस्तक में वर्णित उनके विचार 1901 में उनकी मृत्यु के काफी पहले से लोकप्रिय थे। शुक्लजी ने छायावाद की आलोचना के क्रम में रहस्यवाद पर गंभीर विचार किया है। यहां भी राणाडे के विचारों से शुक्लजी के विचारों की तुलना शिक्षाप्रद हो सकती है। 
गांधीजी जानते थे कि इस देश में केवल बंगाल एवं महाराष्ट्र की परंपरा भर नहीं है। काश्मीर शैवदर्शन की परंपरा, पंजाब की सिक्ख तथा आर्य समाजी परंपराएं, काशी की परंपरा, मथुरा-वृंदावन की परंपराएं भी उतनी ही महत्तवपूर्ण हैं। दरअसल मोटे तौर पर भारतीय परंपरा के तीन स्वरूप देखने को मिलते हैं - 1. प्रवृत्तिमार्गी परंपरायें, 2. निवृत्तिमार्गी परंपरायें, 3. गौतम बुध्द एवं शंकराचार्य की परंपरा। वैदिक धर्म से जुड़ी परंपरायें मूलत: प्रवृत्ति मार्गी रही हैं। जैन धर्म से जुड़ी परंपरायें मूलत: निवृत्ति मार्गी रही हैं। उपनिषदों/वेदान्त की परंपरा मूलत: निवृत्ति मार्गी कही जा सकती है। प्रवृत्ति मार्ग से जुड़ी परंपरायें राज्य सत्ता एवं लोक सत्ता (स्टेट एण्ड सिविल सोसाइटी ) दोनों स्तरों पर जीवन एवं चिन्तन को सृजनशील बनाये रखती है। निवृत्ति मार्ग में व्यक्तिगत मुक्ति के लिए उपासना को व्यवस्थित करना संप्रदायों का मूल लक्ष्य होता है, इसमें सामुदायिक अभियान प्रमुख नहीं होता। गौतम बुध्द की परंपरा गहरे अर्थ में वैदिक परंपरा से भी ज्यादा प्रवृत्तिा मार्गी है। इसमें राज्य संगठन एवं लोक सत्ता में द्वैत नहीं है। गौतम बुध्द की प्रेरणा से संप्रदाय (लोक) को ही राज्य की तरह संगठित किया गया। मठों एवं अखाड़ों तथा बिहारों के संगठन सिध्दांत या शासन सूत्र मूलत: प्रवृत्ति मार्गी हैं। जैनों का मार्ग (श्रमण मुक्ति का मार्ग) संन्यास मार्ग था। जैन धर्म में मुनि निश्चित रूप से गृहस्थ से श्रेष्ठ कहा जा सकता है। वैदिक धर्म मूलत: गृहस्थ धर्म है। अत: संन्यासी का निवृत्ति मार्ग एवं गृहस्थ का प्रवृत्ति मार्ग इन दोनों में द्वैत था। भगवान कृष्ण ने इन्हें समान धार्मी बनाया; समानंतरता की बात की। गौतम बुध्द, नागार्जुन एवं शंकराचार्य ने तो संन्यासियों को एक प्रकार के वैकल्पिक गृहस्थ धर्म के रूप में संगठित किया। संन्यासी के लिए केवल व्यक्तिगत साधाना करना अनुचित माना जाने लगा। बिहार में, मठों में एवं अखाड़ों में सामूहिक साधाना शुरू हुई। इस सूत्र को समझना आवश्यक है। इसको समझने में शुक्लजी के कई निबंधा मदद करते हैं। भारत की प्रवृत्ति मार्गी परंपरा को समझने के लिए प्राचीन भारतवासियों का पहिरावा, हुएन संग, मेगास्थनीज का भारत वर्षीय वर्णन की भूमिका, भारत के इतिहास में हून, महाराज कनिष्क का स्तूप, भारतीय शिल्प कला, प्राचीन भारत का एक शक राजा, बुध्द देव का परिचय, राज्य प्रबंधा शिक्षा की भूमिका जैसे शुक्लजी के निबंधा उपयोगी है। हिन्द स्वराज और महात्मा गांधी को समझने में भी शुक्लजी के निबंधों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद मिल सकती है। आधुनिक भारतीय जीवन-मूल्य के निर्माण में पश्चिमी परंपरा, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य-मनोविज्ञान आदि की भूमिका महत्तवपूर्ण रही है। आधुनिक विश्वविद्यालयों में भारतीय परंपरा को पश्चिमी दृष्टि से देखने का चलन रहा है। विश्वविद्यालयों में यह भी माना जाता है कि भारतीय समाज के सामने केवल एक विकल्प है पश्चिम की नकल करना। पश्चिम की नकल करने का तो कोई विकल्प नहीं माना जाता परंतु पश्चिम परस्त भारतीयों में दो संप्रदाय विकसित हो गए हैं। 1. भारत को मूलत: पश्चिम से ज्ञान-विज्ञान सीखना चाहिए और पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान तथा भारतीय धर्म के बीच सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। 2. भारत को पश्चिम से मूलत: धर्म-मूल्य एवं नैतिकता सीखनी चाहिए। नैतिकता के तहत धर्मनिरपेक्षता, प्रजातंत्र एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मूल्य शामिल हैं। इस संदर्भ में शुक्लजी ने अपने लेख 'भारत को क्या करना चाहिए' में लिखा है कि - प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति द्वारा कोई विशेष परिणाम प्राप्त करने के लिए अपनाये गये तरीके के सामर्थ्य में विश्वास होना चहिए; खास कर ऐसे परिणाम, जो आगे चलकर एक बड़े सामान्य लक्ष्य का अनिवार्य अंग होने जा रहा हो। लेकिन जिस क्रम में हमें आगे बढ़ना है, वह हमारी ऑंख से ओझल नहीं होना चहिए। महत्तव के लिहाज से जिस चीज पर हमें सबसे पहले धयान देना चाहिए, वह है सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम, क्योंकि इनका असर सीधो उस सामाजिक स्रोत पर पड़ता है, जहाँ से हमें प्रत्येक क्षेत्र में काम करने के लिए कार्यकर्ता प्राप्त होते हैं। वस्तुत: प्रत्येक भारतीय को यह साफ-साफ पता होना चाहिए कि उनका देश दिन-ब-दिन और गरीब क्यों होता जा रहा है? अगर आप चाहें तो इसे राजनीतिक शिक्षा भी कह सकते हैं। इस प्रकार की शिक्षा देने के लिए हमें विभिन्न तरीके और साधान अपनाने चाहिए। भारतीय जन-मानस को एक सामंजस्यपूर्ण धारातल पर लाने में देशी भाषा के बढ़ते हुए साहित्य की जो भूमिका है, उसकी शायद हम उपेक्षा नहीं कर सकते। शुक्लजी के इन विचारों का स्वर हिन्द स्वराज के स्वरों का समानधार्मी भी है और पूरक भी। अत: गांधीजी और शुक्लजी को एक-दूसरे का विरोधी न मानकर तत्कालीन भारत के वैचारिक-सांस्कृतिक द्वंद्व, दुविधा एवं संघर्ष का प्रवक्ता मानना ही ज्यादा सही है।
रामचन्द्र शुक्ल तुलसीदास और रामभक्ति के हिन्दी में पहले आधुनिक व्याख्याकार हैं। तुलसीदास का रामचरित मानस उनका साहित्यिक मानक था। वे अधयात्म एवं निरे उपयोगितावाद दोनों को अस्वीकार करते हैं। तुलसीदास की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर उन्होनें सम्पूर्ण जीवन और उसके भीतर आने वाली अनेक दशाओं के प्रति अपनी संतुलित एवं समन्वयवादी दृष्टि को प्रस्तुत किया है। एक ओर गांधी के ईष्टदेव राम थे, दूसरी ओर सनातन हिन्दू धर्म की जो व्याख्या गांधी बार-बार प्रस्तुत करते रहे वह व्याख्या शुक्लजी द्वारा प्रस्तुत तुलसीदास और रामचरित मानस के सनातन धर्म की ही समानधार्मी है। तीसरा, राणाडे और गोखले की तरह गांधी को भी कुछ लोग नरम दल का ही प्रतिनिधिा मानते हैं। महात्मा गांधी के बारे में जे. पी. एस. उबेराय, धर्मपाल एवं पुषराज जैन जैसे विद्वानों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या को यदि सही माना जाय तो हिन्द स्वराज, चरखा, बुनियादी शिक्षा, सर्वोदय और अन्त्योदय एवं सनातन धर्म एवं सभ्यता की अवधारणाओं के केन्द्र में व्यावसायिक श्रेणियों का हित या दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं है बल्कि इस देश के आम आदमी खासकर कामीन/बलुतेदार जैसी सेवा करने वाली जातियाँ हैं (सर्विस एण्ड प्रोफेशनल कास्टस)। अव्यवसायिक श्रेणियों के अन्तर्गत देश की अधिाकांश जातियाँ और लोग आ जाते हैं जिनके हितों, दृष्टियों एवं जीवन पध्दति में गुणात्मक अन्तर है। इस दृष्टि से शुक्लजी द्वारा प्रस्तुत गांधीजी का मूल्यांकन एक पक्षीय और असंतुलित लगता है।

इसके बावजूद केवल भारतीय परंपरा ही नहीं गांधी की विरासत के निष्पक्ष मूल्यांकन में भी शुक्लजी के लेखों से काफी मदद मिल सकती है। भारतीय परंपरा का जो रूप शुक्लजी के समय में उपलब्धा था उसकी व्याख्या के साथ-साथ उसके भविष्य को लेकर उस समय के चिन्तकों में गंभीर मतभेद था। शुक्लजी ने उन्हीं मतभेदों की सार्वजनिक चर्चा की जिसकी अभिव्यक्ति ज्यादातर लोग व्यक्तिगत जीवन या अनौपचारिक बैठकों में उन दिनों किया करते थे।

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