जीवन संगीत
पेज 3 इसे ही जेन (भोन) साधक दूसरे ढ़ंग से अभिव्यक्त करते हैं। वे कहते हैं 'बस बैठ जाओं, कुछ भी मत करो।' संसार में सबसे कटिन काम है - कुछ न करते हुए बस बैठना। लेकिन एक बार हमें इसका गुरू आ जाए तो धीरे - धीरे कई बातें होने लगती है। हमें नींद सी आने लगेगी। हम सपने देखने लगते हैं। कई विचार हमारे मन में उमड़ने लगते हैं। मन कहने लगता है कि व्यर्थ ही समय व्यतीत हो रहा है। मन हजारों तर्क देने लगता है। लेकिन यदि हम मन से बिना प्रभावित हुए मन की आवाज सुनते रहते है तो धीरे - धीरे साक्षी भाव विकसित हो जाता है। यदि हम इसी तरह साक्षी भाव में खाली बैठे रहते हैं तो एक दिन आत्म - प्रकाश का सूरज उगता है। नींद नहीं आती। मन हमसे थक जाता है। वह हमसे ऊब जाता है। वह यह विचार ही छोड़ देता है कि हमें फंसाया जा सकता है। हमसे सब नाते तोड़ लेता है। सब कुछ स्पष्ट दिखने लगता है। परम शांति छा जाती है। आनंद ही आनंद दिखने लगता है। हम परमात्मा के शरीर (जगत्) में प्रवेश कर जाते है। संसार से मोह छूट जाता है। यदि शरीर न हिले तो मन स्वत: शांत हो जाता है। गतिमान शरीर में मन भी गति करता रहता है। शरीर और मन दो चीज नहीं हैं। दोनों में एक ही ऊर्जा है। शांत शरीर में बैठे रहने पर मन पर्त - दर - पर्त छूटते जाती है। एक क्षण आता है जब हम बिना मन के होते हैं। जेन के स्रोत बुध्द हैं। महाकाश्यप पहले, मौलिक जेन गुरू थे। शब्दों से जो कहा जा सकता है वह धम्मपद में संग्रहीत है। लेकिन जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता पह बुध्द ने महाकाश्यप को दिया। शब्दों से कुंजी नहीं दी जा सकती। महाकाश्यप कुंजी को धारण करने वाले पहले व्यक्ति थे। उनके बाद छब्बीस धारक भारत में हुए। छब्बीसवा धारक बोधिधर्म थे। भारत में उन्हें अपना उत्तराधिकारी नहीं मिला तो वे चीन गए। वे एक ऐसा व्यक्ति खोज रहे थे जिसे मौन को समझने की योग्यता हो। जिसे जेन परम्परा की कुंजी दी जा सके। जो मन से अभिभूत हुए बिना हृदय से हृदय की बात कर सके। नौ वर्षों की तलाश के बाद चीन में उन्हें अपना उत्ताराधिकारी मिला। एक चीनी व्यक्ति जेन का सत्ताइसवां गुरू बना। और अभी तक चीन और जापान में यह क्रम चल रहा है। कुंजी अभी भी है। कोई न कोई अभी भी उसे धारण किए है। जेन की गुरू - शिष्य परम्परा चल रही है। यह एक नदी के समान है। नदी - अभी सूखी नहीं है। इसमें मौन जीवन का संगीत प्रवाहित हो रहा है। इसमें शब्दों का कोलाहल नही है। इसमें शब्दों का मौन नृत्य चल रहा है। यह शब्द ब्रहम है। यह परा है। यह पश्यंति है। यह मध्यमा है। परन्तु यह बैखरी नहीं है। इसके केवल तीन स्तर हैं। शब्द ब्रहम से नाद ब्रहम तक तीन स्तर है। चौथा बैखरी का शब्द - संसार है। यह शब्दों का मायालोक है। बैखरी का आधार मन है। उपरोक्त तीनों में मन नहीं है। वह मन हीन सत्य है। इसकी भाषा लाक्षणिक है। यह संकेत की भाषा है। शब्दों से बुध्द हमारे द्वार पर दस्तक दे सकते हैं। लेकिन मौन से वे हमारे भीतर प्रवेश कर सकते हैं। और जब तक वे हमारे भीतर प्रवेश न कर जाएं, हमारे भीतरकुछ भी नहीं घटेगा। उनका प्रवेश हमारे अस्तित्व में एक नया तत्व लाएगा। इस मौन से हंसी आती है। जेन परम्परा में मौन पर हंसने की सांकेतिक परम्परा शुरू हुई। जेन मठों में वे लोग हंसते रहते हैं। इस हंसी में भी एक संगीत है। कोई और परम्परा नहीं है जो हंस सके। जिस दिन हम सत्य को समझ जाते हैं हम हंसने लगते हैं क्योंकि सत्य का समझ लेने के बाद कोई समस्या सुलझाने के लिए बचती ही नहीं है। खोजने की कोई जरूरत नहीं हैं, क्योंकि जो है, वह अभी और यहां हमारे भीतर है। सत्य की कुंजी है भीतर मौन, बाहर हंसी। जब मौन से हंसी उठती है तो दिव्य होती है। हम इस पूरे जागतिक मजाक (लीला) पर हंसते हैं। जीवन श्रीकृष्ण की बांसुरी से सृजित लीला है और कुछ नहीं है। यह मात्र संगीत है जो जीवन को रचता है और मृत्यु को स्वाभाविक बनाता है। इस संसार में बिना संगीत कुछ भी नहीं है यह संसार एक संगीत भर है। हमारा बुध्दत्व तभी पूरा होता है जब मौन एक उत्सव बन जाए। अपने भीतर जीवन संगीत सुनने की अन्य विधियां भी है। नाद ब्रहम साधना या जेन साधना बौध्द साधकों में ज्यादा लोकप्रिय है। हिन्दुओं में खासकर शैव परम्परा में गायत्री मंत्र या ओम् की साधना ज्यादा लोकप्रिय है। ध्वनि ही बन जाना मुश्किल नहीं है। ध्वनि हमारे शरीर में हमारे मन में, हमारे पूरे स्नायु संस्थान में गूंजने लगती है। ओम् की अनुगूंज को अनुभव करना सीखने की जरूरत है। ओम् का ऐसा उच्चारण करना चाहिए जिससे अनुभव हो कि हमारा पूरा शरीर ओम् से भर गया है, शरीर का प्रत्येक कोश उससे गूंज उठा है। उच्चारण करना लयबध्द होना भी है। ध्वनि के साथ लयबध्द होने पर ध्वनि ही बन जाना मुश्किल नहीं है।
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