मौत का खौफ बनाम जिन्दगी का उत्सव
पेज 1 कैंसर, बीमारी, भविष्य का आंतक - कल क्या होगा ? दहशत के साये में जीने का आदि हो चुका भारतीय मध्यवर्ग अनिश्चित भविष्य की चिंता में वर्तमान की खुशी और साधारण दिखने वाले आनंद के क्षणों को भोगने के बजाय मौत की आहट सुना करता है। फिल्म आनंद में हृषिकेश मुखर्जी ने मृत्यु को एक रोमांटिक कविता की तरह प्रस्तुत किया है। हममें विनोबा भावे और आनंद फिल्म के नायक की तरह जिन्दगी जीने की हिम्मत और इच्छा क्यों नहीं होती। इसका एक कारण नास्तिकता या कमजोर आस्तिकता है। जब हम ईश्वर के अस्तित्व पर शंका करके मानवीय जीवन और मृत्यु को एक घटना भर मान लेते हैं तो जीवन का कोई दैवीय अर्थ नहीं रह जाता। कर्म के सिध्दांत और पुनर्जन्म के सिध्दांत पर हमारा विश्वास नहीं रह जाता और हम जिन्दगी से जोंक की तरह किसी भी कृत्रिम तरीके से चिपके रहना चाहते हैं। भविष्य हमारे सामने एक अनजान खौफ की तरह सर्वव्यापी बन जाता है और दहशत के साये में हम जिन्दगी का आनंद उत्सव की तरह नहीं मना पाते। कल क्या होगा? एक आंतक की तरह हमारी चेतना पर हावी रहता है और हम भगवान बुध्द की वाणी पर अनास्था करने लगते हैं। जिन्दगी का रस कतरा-कतरा रिसते रहता है और खुशी के इन रसीले क्षणों के आनंद से हम भविष्य के आशंकित आतंक के डर से वंचित रह जाते हैं। वर्ना जिन्दगी और मौत एक प्राकृतिक कविता है , एक दैवीय छंद है, लीलात्मक गीत है, इसे खेल भाव से लेना चाहिए। इसे जीने के लिए आस्था, विश्वास, भक्ति और कर्म के भारतीय सिध्दांत में यकीन चाहिए। इसके लिए नास्तिक आधुनिकता के स्तंभों की बैशाखी काम नहीं आती। मौत का कोई इलाज नहीं है। दुनिया के किसी भी चिकित्सा पध्दति में केवल बीमारी का इलाज है मौत का कोई इलाज नहीं है। मौत आस्तिक व्यक्ति के लिए एक मोहक प्रेमिका की तरह है जिसके आगोश में शांति और सुकुन मिलता है कैमोथेरैपी की घुटन और शल्य क्रिया का वीभत्स रूप देखने को नहीं मिलता। जिन्दगी को लंबी बनाने के कृत्रिम प्रयास में हम इसे घिनौना बना देते हैं। हमें इसे महान, उदात्त और पवित्र बनाना चाहिए। इसके लिए अस्तित्व के संगीतमय अतिरेक के प्रवाह में खोना जरूरी है। इस संगीतमय अतिरेक में एक ऐसा आलोक है जिसे केवल अंतस चक्षुओं द्वारा ही देखा जा सकता है। यह आलोक प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मा के रूप में सदा ही मौजूद रहता है। यही जिन्दगी की कुडंली में बसा कस्तुरी है। इसका अपना ही स्वाद है, अपनी ही गंध है, अपना ही स्पर्श है, अपनी ही अनुभूति है, अपना ही प्रकाश है। आत्मा के भीतर सत्यम् शिवम् सुन्दरम् है। असीम, शाश्वत सम्पूर्ण मौन है। इसकी आत्मानुभूति में डूब कर ही जिन्दगी और मौत के बीच की झीनी चदरिया को देखा जा सकता है। बिना इसकी अनुभूति के ब्रहमाण्ड और ब्रहम की अनुभूति नहीं हो सकती। शरीर की जिन्दगी और मौत दोनों क्षणभंगुर है। आत्मा अजर अमर है। वह 84 लाख योनियों में भटका करती है। योनियां शरीर की जाति है, कोटी है, रूप है। आत्मा बिना शरीर के प्रेत बन जाती है। सच तो यह है कि प्रेत का भी एक सूक्ष्म 'कारण शरीर' होता है। सनातन धर्म में आत्मा शरीरहीन नहीं होती उसे भूत-प्रेत कहा जाता है। भूत यानि बीता हुआ, रीता हुआ। एक शरीर के नष्ट होने के बाद भी उसकी स्मृति में मोहासक्त आत्मा प्रेत कहलाती है। इसी प्रेत से मुक्ति के लिए हिन्दुओं ने अग्नि संस्कार का निर्माण किया है। इसकी सनातनी अवधि तेरह दिनों की है। आर्य समाजी इसे तीन दिनों में ही पूरा कर लेने का दावा करते हैं। मुसलमानों , ईसाईयों और यहुदियों में इस आत्मा की भूतपूर्व शरीर से मोहाशक्ति को मुक्त करने के अतिरिक्त प्रयास या धार्मिक संस्कार नहीं किया जाता। मुक्ति के लिए अग्नि संस्कार का विधान है। अग्नि मुक्त करती है।
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