मौत का खौफ बनाम जिन्दगी का उत्सव
पेज 2 सेमेटिक धर्मों में कयामत के दिन तक प्रेतात्मा इंतजार करती रहती है। कयामत के दिन कर्मानुसार उनकी मुक्ति या बंधन का निर्णय खुदा करता है। मुक्ति की बात मूलत: ईसायत में है। यहुदियों और मुसलमानों में प्रेतात्मा को जन्नत या दोजख (नरक) मिलता है। वे सनातनी अर्थों में कभी मुक्त नहीं होती। सेमेटिक धर्म से निकली परम्पराओं में केवल ईसा मसीह और काल्विन के यहाँ मुक्ति या सालवेशन की अवधारणा है। लेकिन वहां भी मुक्त आत्माए स्वर्ग में रहती हैं। काल्विन के यहां तो मुक्त होने का प्रमाण ही यही है कि वे 'पूंजीवादी स्वर्ग' में सफल हो जाते हैं। बिना ईश्वरीय कृपा के सफलता संभव नहीं है। इस सफलता में कर्म की भूमिका होती है। इस तरह काल्विन का प्रोटेस्टटेंट सम्प्रदाय यहुदी और इस्लाम के बीच की चीज है। वह ईसा मसीह की मूल शिक्षा के गुणात्मक रूप से मिली है जिसमें एक सुई के भीतर की छेद से हाथी तो पार हो सकता है लेकिन एक पूंजीपति स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता । इस स्वर्ग में प्रवेश के लिए ईसा मसीह की कृपा जरूरी है। ईसा की शहादत से ईसाई परम्परा में अतिरिक्त (सरप्लस) पुण्य का संचय हुआ था। उसी सरप्लस पुण्य की कृपा या सहयोग से एक समर्पित ईसाई स्वर्ग में मुक्त हो सकता है। लेकिन उस मुक्ति में आत्मा का शरीर किस तरह का होता है इस पर ईसाई धर्माचार्यों (थियोलोजियन) के बीच असहमतियां या विवाद हैं। सनातन धर्म में असहमति नहीं है। मुक्त आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है या फिर ब्रहम के शरीर में विलीन हो जाती है। पहली मुक्ति को पुनर्जन्म कहते हैं दूसरी को निर्वाण या कैवल्य कहते हैं। जब तक आत्मा की इच्छाएं पूर्ण नहीं होतीं वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं होती वह अपना शरीर बदलते रहती है। मुक्ति के परम रूप के लिए संतृप्त और परम संतुष्ट होना जरूरी है। इसका रास्ता मूलत: प्रेम या भक्ति है। प्रेम आत्मा को ध्यानस्थ बना देता है। ध्यान से प्रेम और प्रेम से ध्यान पैदा होता है। ध्यान और प्रेम से एकाग्रता और मौन का जन्म होता है। मौन में शांति है। शांति में सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की अनुभूति होती है। अत: मौत का खौफ नहीं होता। मौत का खौफ अज्ञानी को ही होता है। आधुनिक नास्तिकता के मूल में मौत का खौफ और स्वर्ग की लालसा है। सनातन धर्म के मूल में जीवन का उत्सव और मृत्यु का मौन संगीत है। अकारण सतत आनंद की अनुभूति है। करूणा का जल-प्रपात है। प्रेम और ध्यान के जोड़ या मेल से करूणा का जन्म होता है। ध्यान अपने सच्चे स्वरूप के प्रति सजग करने का एक परीक्षित उपाय है। वह स्वरूप जिसके साथ तुम अपने शरीर में जन्म लेते हो। एक बार मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप को जान ले तो फिर उसे मौत का खौफ नहीं होता, किसी प्रकार की दहशत नहीं होती, भविष्य की चिंता नहीं होती, व्यर्थ की भाग- दौड़, होड़, प्रतियोगिता, महत्वाकांक्षा नहीं रह जाती। एक अजीब सुकून प्राप्त होता है। एक अजीब निश्चिंतता आ जाती है और व्यक्ति वह करने लगता है जिसके लिए उसका जन्म हुआ है। वह स्वधर्म निभाने लगता है। वह सृजनात्मक हो जाता है। वह हर वासना से मुक्त होकर अपने स्वकर्म में रत हो जाता है। उसे कोई कमी महसूस नहीं होती। वह अपने आप में पूर्ण हो जाता है। जिन्दगी की संतृप्त मस्ती से भर जाता है। आनंद की सीमा नहीं रहती। वह आत्म- मुग्ध नहीं आत्म-निष्ट, अपने स्व और प्रिय ब्रह्म के प्रति उन्मुख, क्रिया शील, लेकिन परम संतुष्ट हो जाता है। इसे ही सनातन धर्म पुरूषार्थ कहता है। मृत्यु में स्वाभाविक रूप से प्रवेश करना सनातन धर्म में ध्यान या पुरूषार्थ की स्थापित रीति है। जब भी कोई व्यक्ति बुध्द से दीक्षा लेता बुध्द उसको तीन महीने तक किसी श्मशान में जाकर किसी जलते हुए शरीर को, जलती हुई लाश को देखने के लिए कहते थे। बुध्द कहते कि भयभीत व्यक्ति मृत्यु में प्रवेश नहीं कर सकता। मृत्यु ही एकमात्र निश्चित घटना है। जीवन में मृत्यु के सिवाय और कुछ भी निश्चित नहीं है। बाकि सब कुछ सांयोगिक है। केवल मृत्यु सांयोगिक नहीं है। केवल मृत्यु ही दुर्घटना नहीं है, बाकी सब घटना वश है। मृत्यु पूर्णत: निश्चित है। तुम्हें मरना ही है। तो निर्वकार भाव से, आनंदपूर्वक, मृत्यु में प्रवेश करो। भय नहीं रहेगा। जिन्दगी उत्सव बन जाएगी।
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