पाकीजा-1971- (निर्देशक- कमाल अमरोही) एक नयी दृष्टि
पेज 2 साहिब जान आशावादी है। उसे अपने अनजान चाहने वाले से मुहब्बत हो जाती है। उसे विश्वास है कि वह उसे आज न कल जरूर मिलेगा। उसकी सहेली समझाती भी है कि यह खत तुम्हारे लिए नहीं है। किसी और के लिए है- तुम्हारे उस स्वरूप में जब तुम्हारे पैरों में घुंघरू नहीं बंधे होंगे। लेकिन वह नहीं मानती। वह भी पढ़ी-लिखी है। लेकिन उसकी शिक्षा आधुनिक नहीं है। न उसकी सोच ही आधुनिक है। वह दो बार बलात्कार की शिकार होने से बचती है, दूसरी बार जंगली हाथी बचाते हैं। पारम्परिक सभ्यता में मनुष्य और अन्य जीवों में पारस्परिक सहयोग होते रहा है।
शहाबुद्दीन (अशोक कुमार) और नर्गिस (मीना कुमारी मां के रूप में) की कहानी लैला-मजनूं की कहानी है। दोनों जिन्दगी में तो सुख पूर्वक साथ नहीं रह पाए। मृत्यु के बाद वे आपस में मिल गए। मरते मरते शहाबुद्दीन अपनी बेटी को अपनी वारिस के रूप में स्थापित कर गया। लैला-मजनूं के रूहानी इश्क के रूप में सूफी कहानी के रूप में ही शहाबुद्दीन की जिन्दगी का अर्थ है। वर्ना आधुनिक दृष्टि से उसे जिन्दगी में क्या मिला ? यह तीन पीढ़ियों वाली संयुक्त परिवार की कहानी है। यह ब्रिटिश राज के दौरान या उसके बाद की कहानी है। इसमें कोई अंग्रेज पात्र नहीं है। न ही इस तरह का कोई संवाद ही है। परंतु रेलवे है और वन अधिकारी है। साहिब जान और सलीम की प्रेम कहानी का मॉडेल मुगले आजम की कहानी से ली गई है। उसका रूपांतरण किया गया है। आधुनिक और पारम्परिक शिक्षा का केवल विषय-वस्तु अलग नहीं है। इनका दृष्टिकोण और जीवन दर्शन तथा प्रेरक तत्व भी गुणात्मक रूप से भिन्न है। आधुनिक शिक्षा व्यक्ति को एक मशीन की तरह सक्षम और एक स्वस्थ जानवर की तरह भोगी और वीर बनाना चाहती है। इसमें ईश्वर तथा कमजोर जीवों के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें रेशनल-लीगल के अलावे अन्य चीजों के लिए जगह नहीं है। इसमें व्यक्तिगत लाभ-हानि के अलावे अन्य र्कोई प्रेरक तत्व नहीं है। सलीम एक आधुनिक व्यक्ति है। साहिब जान, शहाबुद्दीन आदि पारम्परिक व्यक्ति हैं। पाकीजा एक अच्छा शीर्षक है। साहिब जान एक पाक प्रेम की निशानी है। उसकी मां को निकाह के बाद ससुराल वालों ने नहीं स्वीकारा। परन्तु वह कोठे पर नहीं लौटी। वह किसी मस्जिद में भी नहीं गई। वह वक्फ बोर्ड के पास भी नहीं गई। वह कब्रिस्तान में चली गई। वहां वह 9 माह रही। कब्रिस्तान एक पाक जगह है। कब्रिस्तान में जन्म देना और जन्म लेना, वह भी 9 माह के इंतजार के बाद अपने आप में ही एक बड़ी सूफी साधना है। एक अकेली औरत के आत्म-संघर्ष की अनूठी मिसाल है। कोठा भी एक प्रकार का कब्रिस्तान ही है। कोठे पर एक पाक औरत और उसकी पाक कला को दफना कर एक जिन्दा लाश से जिस्मफरोशी करवायी जाती है। नर्गिस नापाक कोठे से पाक कब्रिस्तान में अपनी बेटी को जन्म देती है। फिल्म के अंत में साहिब जान को लेने न केवल सलीम की बारात आती है बल्कि शहाबुद्दीन की लाश भी लायी जाती है। पाकीजा की नायिका साहिब जान पश्चिमी अर्थों में prostitute या रंडी नहीं है। दो बार उसे बेचा जाता है । लेकिन सौभाग्य से उसका शीलभंग नहीं होता है। एक बार वह सांप द्वारा बचायी जाती है और दूसरी बार हाथियों द्वारा। कोई स्त्री रंडी पैदा नहीं होती। बनायी जाती है। साहिब जान को भी रंडी बनाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन वह सौभाग्य से न सिर्फ बचती है बल्कि वह बाइज्जत कोठे से ब्याहकर नवाबों के खानदान में अपने पिता के भतीजे से ब्याही जाती है। वह ग्लैमरस नर्तकी अवश्य है। मुजरा करती है। लेकिन कोठे की हर मुजरा करने वाली नर्तकी भी पश्चिमी अर्थों में शरीर बेचने वाली वेश्या या रंडी नहीं होती। कुछ मुजरा वालियां अपने समय की राजनर्तकियां भी हुई हैं। कुछ कोठों पर नृत्य-संगीत की शिक्षा भी होती रही है जिसमें भले घरों की लड़कियां भी सीखने आती थी। तहजीब सिखाना भी कोठों का काम था। समकालीन दृष्टि से देखने पर कोठा एक-ब-एक रंडीखाना लगता है। लेकिन कोठा अपने समय का सिनेमाघर भी था और नगर का रंगशाला भी। हिन्दू काल में नृत्य-संगीत साधना के रूप थे और इसकी जगह मंदिरों में होती थी। लेकिन मध्यकाल में मंदिरों की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका घटने लगी। फिर मध्यकालीन विदेशी शासकों ने अपने मनोरंजन के लिए कोठा सजाना शुरू किया। विदेशी शासक एवं सेना ने नृत्य-संगीत को साधना की जगह मनोरंजन एवं विलास की सामग्री बनाना शरू किया। लेकिन मध्यकाल में भी नृत्य-संगीत केवल कोठे पर नहीं होता था। सूफी दरगाहों और भक्त-भक्तिनों के आश्रम से लेकर घरों के भीतर तथा गांव एवं मुहल्लों में भी नृत्य-संगीत होता था। शादी-व्याह से लेकर दशहरा के उत्सवों तक पेशेवर नर्तकियों के सामाजिक प्रदर्शन होते थे। जिस तरह अकुशल श्रमिक (unskilled labourer) का शोषण होता रहा है ठीक उसी तरह अकुशल जवान औरत (unskilled young woman) का भी शोषण होता रहा है। खास कर ऐसे समाज में जिसमें जनसंख्या का एक बड़ा भाग सामान्य गृहस्थ धर्म एवं विवाह संस्कार में बंधने से बचता था। नृत्य एवं संगीत में निपुण नर्तकियों के पारम्परिक समाजों में वैसे ही जलवे होते थे जैसी आजकल की फिल्म एवं टेलिविजन अभिनेत्रियों या मॉडलों के हुआ करते हैं। समाज में उनकी सम्पत्ति, सुख-सुविधा या विलासिता की तूलना रानियों या नवाब जादियों जैसी होती थी। उन तक पहुंचने के लिए राजकुमारों एवं नवाबों में होड़ लगी रहती थी। यह पहुंच शारीरिक संबंध बनाना हो यह आवश्यक नहीं था। वे अपने कोठे की मलिका होती थीं और उनके साथ बाहरी व्यक्ति जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकता था। काफी हद तक वे स्वतंत्र अभिनेत्रियां होती थीं। आजकल की अभिनेत्रियां को निर्माता-निर्देशकों-फाइनेंसरों-वितरकों से लेकर विदेशी कार्यक्रमों के आयोजकों तक को चाहे-अनचाहे खुश रखना पड़ता है। इनकी तुलना में कोठों पर गिल्ड समाजवाद जैसी स्वतंत्रता होती थी। भोगवाद (हिडोनेजिज्म) केवल आधुनिक पूंजीवाद में नहीं पाया जाता। यह सामंतवाद और प्राचीन गणतंत्रों में भी पाया जाता था।हिंदुस्तानी फिल्म उपयोग और उसका अर्थशास्त्र हमेशा पुरूष केंद्रित रहा है। महिला दर्शक वर्ग भी महिला केंद्रित फिल्म नहीं देखना चाहता। अत: पुरूष केंद्रित कहानियों में ही सशक्त महिला पात्र गढ़े जाना चाहिए। पाकीजा, आराधना, आरती, बंदिनी जैसी फिल्मों में नारी पात्र रिहाई या मदर इंडिया से ज्यादा सशक्त एवं ग्राह्य हैं। आज का दर्शक बंदिनी के अंतिम चुनाव को (जिसमें वह अपने प्रथम बीमार बूढ़े प्रेमी को चुनकर युवा सुदर्शन, सफल उम्मीदवार को खारिज करती है) समझ भी नहीं पाएगा। यह वैसा ही दृश्य है जैसा पाकीजा फिल्म में राजकुमार के निकाह के प्रस्ताव को काजी के सामने मीना कुमारी द्वारा अस्वीकार कर देना। लेकिन उसी राजकुमार की दूसरी स्त्री से शादी के अवसर पर मुजरे के दौरान नाचते-नाचते जान देने की कोशिश करना। अगर आप कमाल अमरोही के दाएरा (1953) से अपरिचित हैं या आपने बंदिनी नहीं देखी है तो पाकीजा का गूढ़ार्थ आप कहां समझ पाएंगे। हमने आज की व्यवस्था के दबाव में, शिक्षा के द्वारा प्राप्त खंडित एवं दुविधा जन्य दृष्टिकोण के कारण अपनी प्रार्थनाओं को भी खोखली आदतों में तबदील कर लिया है।
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