Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

श्री शिव तत्व

श्री शिव तत्व

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शिव वही तत्व है जो समस्त प्राणियों के विश्राम का स्थान है। 
मूलत: शिव एवं विष्णु एक ही हैं, फिर भी उनके उपर रूप में सत्व के योग से विष्णु को सात्विक और तम के योग से रूद्र को तामस कहा जाता है। सत्वनियंता विष्णु और तमनियंता रूद्र हैं। तम ही मृत्यु है, काल है। अत: उसके नियंता महामृत्युंजय महाकालेश्वर भगवान रूद्र हैं। तम प्रधान प्रलयावस्था से ही सर्व प्रपंच की सृष्टि होती हैं।
कृष्ण के भक्त तम को बहुत ऊँचा स्थान देते हैं। जब सृष्टिकाल के उपद्रवों से जीव व्याकुल हो जाता है, तब उसको दीर्घ सुषुप्ति में विश्राम के लिए भगवान सर्वसंहार करके प्रलयावस्था व्यक्त करते हैं। यह संसार भी भगवान की कृपा ही है। तम प्रधानावस्था है, उसी से उत्पादनावस्था और पालनावस्था व्यक्त होती है। अन्त में फिर भी सबको प्रलयावस्था में जाना पड़ता है। उत्पादनावस्था के नियामक ब्रह्मा, पालनावस्था के नियामक विष्णु और संहारावस्था एवं कारणावस्था के नियामक शिव हैं। पहले भी कारणावस्था रहती हैं, अंत में भी वही रहती है। प्रथम भी शिव हैं, अंत में भी शिव तत्व ही अवशिष्ट रहता है। तत्वज्ञ लोग उसी में आत्म-भाव करते हैं। शिव ही सर्वविद्याओं एवं भूतों के ईश्वर हैं, वही महेश्वर हैं, वही सर्वप्राणियों के हृदय में रहते हैं। एकादश प्राण रूद्र हैं। निकलने पर वे प्राणियों को रूलाते हैं, इसलिए रूद्र कहे जाते हैं। दस इन्द्रियां और मन ही एकादश रूद्र हैं। ये आध्यात्मिक रूद्र हैं। आधिदैविक एवं सर्वोपाधिविनिर्मुक्त रूद्र इनसे पृथक हैं। जैसे विष्णु पाद के अधिष्ठाता हैं, वैसे ही रूद्र अहंकार के अधिष्ठाता हैं।
शिव की आत्मा विष्णु और विष्णु की आत्मा शिव हैं। तम काला होता है और सत्व शुक्ल परन्तु परस्पर एक- दूसरे की ध्यानजनित तन्मयता से दोनों के ही स्वरूप में परिवर्तन हो गया अर्थात सतोगुणी विष्णु कृष्णवर्ण हो गए और तमोगुणी रूद्र शुक्लवर्ण हो गए।
श्री राधा रूप से श्री शिवरूप का प्राकट्य होता है, तो कृष्णरूप से विष्णु का, काली रूप से विष्णु का तो शंकररूप से शिव का।
कालकूट विष और शेषनाग को गले में धारण करने से भगवान की मृत्युंजयरूपता स्पष्ट है। जटामुकुट में श्रीगंगा को धारण कर विश्व मुक्ति मूल को स्वाधीन कर लिया। अग्निमय तृतीय नेत्र के समीप में ही चन्द्रकला को धारण कर अपने संहारकत्व-पोषकत्व स्वरूप विरूध्द धर्माश्रयत्व को दिखलाया। सर्वलोकाधिपति होकर भी विभूति और व्याघ्रचर्म को ही अपना भूषण- बसन बनाकर संसार में वैराग्य को ही सर्वापेक्षया श्रेष्ठ बतलाया। शिव का वाहन नंदी , तो उमा का वाहन सिंह , गणपति का मूषक, तो कार्तिकेय का वाहन मयूर है। मूर्तिमान त्रिशूल और भैरवादिगण आपकी सेवा में सदा संलग्न हैं। सुर, नर, मुनि, नाग ,गन्धर्व, किन्नर, असुर, दैत्य भूत , पिशाच, वेताल, डाकिनी, शाकिनी, वृश्चिक, सर्प, सिंह सभी उनको पूजते हैं। आक, धतूरा, अक्षत, बेलपत्र, जल से उनकी पूजा की जाती है।
शिवजी का कुटुम्ब भी विचित्र ही है। अन्नपूर्णा का भण्डार सदा भरा, पर भोले बाबा सदा के भिखारी। कार्तिकेय सदा युध्द के लिए उध्दत, पर गणपति स्वभाव से ही शांतिप्रिय। कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणपति का मूषक, पार्वती का सिंह और शिव का नंदी, उस पर सर्पों का आभूषण। सभी एक दूसरे के शत्रु ,पर गृहपति की छत्रछाया में सभी सुख तथा शांति से रहते हैं। घर में प्राय: विचित्र स्वभाव और रूचि के लोग रहते हैं। घर की शांति के आर्दश की शिक्षा भी शिव से ही मिलती है।
भगवान शिव और अन्नपूर्णा अपने आप परम विरक्त रहकर संसार का सब ऐशवर्य श्री विष्णु और लक्ष्मी को अर्पण कर देते हैं। श्री लक्ष्मी और विष्णु भी संसार के सभी कार्यां को संभालने, सुधारने के लिए अपने आप ही अवर्तीण होते हैं।

 

 

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