Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

स्वधर्म: गांधीवादी दृष्टि

स्वधर्म: गांधीवादी दृष्टि

पेज 2

 इस मार्ग के लिए भी आत्मज्ञान जरूरी है। आत्मज्ञान की प्राप्ति के बिना स्वधर्म का ज्ञान नहीं होता। वर्ण - आश्रम का धर्म भी नहीं निभ पाता। व्यक्ति को अर्जुन की तरह स्वधर्म के बारे में दुविधा घेरे रहती है। लेकिन हर व्यक्ति के आसपास कृष्ण जैसा गुरू उपलब्ध नहीं होता जो दुविधाओं का निराकरण कर सके। अत: सामाजिक रीतियों से और साम्प्रदायिक आचार्यों से यथा संभव मदद मिलती है। प्राचीन काल में मूलत: चार प्रकार के व्यवसाय थे और तीन तरह के स्वगुण थे। सतोगुणी व्यक्ति के लिए ब्राहमण वर्ण के व्यवसाय उत्तम माने गए। सतोगुण और रजोगुण के मिश्रण वाले व्यक्तियों के लिए क्षत्रिय वर्ण के व्यवसाय उत्तम माने गए। रजोगुण और तमोगुण के मिश्रण वाले व्यक्तियों के लिए वैश्य वर्ण के व्यवसाय उत्तम माने गये। तमोगुण वाले व्यक्तियों के लिए शूद्र वर्ण के व्यवसाय सेवा देने वाले सर्विस सेक्टर के व्यवसाय होते थे। शूद्र वर्ण के  व्यवसाय तकनीकी व्यवसाय होते थे जिससे उत्पादन और उपभोग के साधनों का सृजन एवं संवर्ध्दन होता था। वैश्य वर्ण का व्यवसाय मूलत: उद्यम एवं व्यापार था जिससे वस्तुओं का बड़े स्तर पर उत्पादन तथा वितरण होता था। क्षत्रिय वर्ण का व्यवसाय शासन, प्रबंधन, न्याय एवं सुरक्षा से संबंधित व्यवसाय था। ब्राहमण वर्ण के अंतर्गत शिक्षण, शोध, प्रशिक्षण, पौरोहित्य, ज्योतिष, चिकित्सा, धार्मिक परामर्श, कल्याणकारी यज्ञ एवं सामाजिक मंगलदायक व्यवसाय आता था। खेती मनु के अनुसार वैश्य कर्म है लेकिन अन्य आचार्य इसे चारों वर्णों के लिए खुला व्यवसाय मानते हैं। वर्ण व्यवस्था में पंचम वर्ण की कोई अवधारणा नहीं रही है। पंचम के तहत वर्ण व्यवस्था से बाहर का समुदाय रहा है जिन्हें आप बाहरी एवं विधर्मी लोग कह सकते हैं। ऐसे लोग जो वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते या जिन्हें वर्ण  व्यवस्था से किसी कारण बस निकाल दिया गया हो। वर्ण व्यवस्था के तहत  कार्यात्मक विभाजन एक पक्ष है। वर्णाश्रम धर्म या वर्णों का इथिक या नैतिक दायित्व इसका दूसरा पक्ष है। अधिकार के साथ कर्त्तव्य का निरूपण करना वर्णाश्रम धर्म की मूल विशेषता रही है। इसकी दूसरी विशेषता इसका लचीलापन रहा है। परशुराम और द्रोणाचार्य ब्राहमण वर्ण में उत्पन्न होकर भी क्षत्रिय थे। बुध्द महावीर एवं विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण में उत्पन्न हाकर भी ब्राहमण माने गए। ब्रहमण ऋषि (ब्रहमर्षि) कहलाते। लेकिन कालक्रम में वर्ण व्यवस्था में रूढ़ियां और कुरीतियां आ गयी। विदेशी दासता के युग में इसमें अंतर्विरोध भी आया। आधुनिक काल में बहुत सारे नये व्यवसाय आए जिन्हें किस वर्ण में रखा जाये यह समस्या रहती है। इसके बावजूद स्वधर्म के निर्धारण में वर्ण व्यवस्था की अवधारणा आज भी एक उपयोगी संदर्भ प्रारूप बन सकता है। कम से कम महात्मा गांधी और विनोबा भावे जैसे उनके प्रमुख अनुयायी ऐसा मानते रहे हैं।

 

पिछला पेज डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख  

top