तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य
पेज 1 फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी एवं संवाद को नबेन्दु घोष की पटकथा और शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी के गीतों के सहारे बासु भट्टाचार्य ने एक अमर फिल्म की रचना की। इसका निर्माण गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। फिल्म दुर्भाग्य से पहले असफल साबित हुई और शैलेन्द्र कर्ज के दलदल में ऐसे फंसे कि टेंशन से उनकी जान चली गई। इसमें राजकपूर और वहीदा रहमान ने अद्भुत अभिनय किया है। शंकर जयकिशन का संगीत आजतक लोकप्रिय है। तीसरी कसम अथवा मारे गए गुलफाम रेणु की अद्भूत कहानी है। मूलत: यह ग्रामीण संस्कृति की कहानी है जिसके केन्द्र में प्रेम है। लेकिन इसमें प्रेम का कहीं भी जिक्र नहीं होता। 40 साल का गाड़ीवान दृीरामान और खूबसूरत नर्तकी हीराबाई के बीच प्रेम के अंकुरण की यह संवेदनशील कहानी है। हीरामन सजग नहीं है कि वह प्रेम कर रहा है। हीरामन के जीवन में प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं है। हीराबाई ऐसे पेशे में है जहां हर दिन उसे प्रेम का ढ़ोंग करना पड़ता है। दोनों का हृदय प्रेम के अनुभव के लिहाज से रेगिस्तान की तरह है। इस रेगिस्तान में जब प्रेम का सोता फूटता है तो दोनों एक - दूसरे से गहरी अंतरंगता से जुड़ते हैं लेकिन अंतत: हीराबाई हीरामन को अपनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती है और हीरामन को छोड़कर चली जाती है। दर्शकों को यह बात हजम नहीं होती है और फिल्म फ्लॉप हो जाती है। बी. आर. चोपड़ा ने 1958 में सुनील दत्ता और वैजयंति माला को लेकर 'साधना' बनायी थी। उसमें एक तवायफ को मध्यवर्गीय नायक अंतत: स्वीकार लेता है। लेकिन 1966 में बनी 'तीसरी कसम' में हीराबाई डर कर भाग जाती है कि समाज उनके प्यार को नहीं स्वीकारेगा। शहरों का मध्यवर्गीय दर्शक तीसरी कसम की आंचलिकता को समझ नहीं पाया। दरअसल तीसरी कसम केवल एक प्रेम कहानी नहीं है यह बदलते हुए ग्रामीण संस्कृति की महागाथा भी है। रेणु की 'तीसकी कसम' में तीन कहानियां हैं। तीनों का नायक हीरामन है जबकि हीराबाई केवल तीसरी कहानी की नायिका है। हीरामन 1966 में 40 साल का है यानि उसका जन्म 1926 -27 में हुआ है। दरअसल वह ग्रामीण भारत का प्रतीक पुरूष है। वह एक गाड़ीवान है। वह गांव से कस्बा और शहर की यात्रा करता है। इसी बहाने दर्शक ग्रामीण संस्कृति, कस्बाई संस्कृति और शहरी संस्कृति के दर्शन करते हैं। 1966 में गांवों में पश्चिमीकरण, विकास या आधुनिकता हर जगह नहीं पहुंची थी। 1952 की पहली पंचवर्षीय योजना ग्राम केन्द्रित एवं कृषि केन्द्रित थी। इसके बावजूद 1953 में सलिल चौधरी और बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' में गांव की बदहाली दिखलाकर नेहरूवादी नीतियों की आलोचना की गई है।
|