Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य

पेज 1 पेज 2 पेज 3 पेज 4

तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य

 

पेज 1 

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी एवं संवाद को नबेन्दु घोष की पटकथा और शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी के गीतों के सहारे बासु भट्टाचार्य ने एक अमर फिल्म की रचना की। इसका निर्माण गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। फिल्म दुर्भाग्य से पहले असफल साबित हुई और शैलेन्द्र कर्ज के दलदल में ऐसे फंसे कि टेंशन से उनकी जान चली गई। इसमें राजकपूर और वहीदा रहमान ने अद्भुत अभिनय किया है। शंकर जयकिशन का संगीत आजतक लोकप्रिय है।
बसु भट्टाचार्य बिमल रॉय स्कूल के फिल्मकार हैं और तीसरी कसम उनकी सबसे चर्चित कृति है। एक स्तर पर इस फिल्म की तुलना बिमल रॉय की दो बीघा जमीन (1953) और परख (1960) से की जा सकती है। दो बीघा जमीन की फोटोग्राफी कमल बोस की थी। कथा और संगीत सलिल चौधरी की थी। इसके गीतकार शैलेन्द्र थे और पटकथा हृषिकेश मुखर्जी ने लिखी थी जबकि संवाद पॉल महेन्द्र ने लिखा था। परख की कहानी और पटकथा सलिल चौधरी ने लिखी थी। संगीत भी उन्हीं का था जबकि संवाद और गीत शैलेन्द्र ने लिखा था। फोटोग्राफी कमल बोस की थी।
तीसरी कसम एक अर्थ में हिन्दी सिनेमा की अनोखी रचना है। इसकी कथा, संवाद और गीत में ठेंठ हिन्दी का ठाट है। रेणु बिहार में पैदा हुए थे जबकि शैलेन्द्र मध्यप्रदेश में पैदा हुए थे। रेणु को प्रेमचंद की परम्परा का कथाकर माना जाता है। परन्तु रेणु के साहित्य में ग्रामीण जीवन एवं संस्कृति की जैसी समग्रता पायी जाती है वह प्रेमचंद साहित्य में भी नहीं है। रेणु के उपन्यास मैला आंचल और उनकी कहानी तीसरी कसम में विपन्न लोगों के जीवन की सांस्कृतिक संपन्नता है। इनमें महात्मा गांधी के 'हिन्द स्वराज' की छाया है। रेणु के ज्यादातर पात्र दलित, अवर्ण और पिछड़े तबकों से हैं। ग्रामीण यथार्थ की सांस्कृतिक बुनावट की रेणु की कृतियों में जबरदस्त पकड़ है। इतिहास के प्रवाह, राजनीति और सांस्कृतिक अंत: संबंध को रेणु बहुत गहराई से उकेरते हैं। रेणु के पहले ग्राम कथाओं की भाषा किताबी थी। उनमें कुछ आंचलिक शब्द जरूर डाल दिए जाते थे। रेणु की भाषा में आंचलिक बोली की लय है और वह वाचिक अनुभव के साथ है। बोलियों का जो वाचिक नाटय है, वह रेणु की भाषा में पूरी ठसक के साथ है। इस वाचिक लय में देखा हुआ जीवन है। रेणु ने हिन्दी साहित्य में पहली बार ग्रामीण यथार्थ को पूरी सम्पूर्णता में प्रस्तुत किया है। रेणु की निगाह बदलते ग्रामीण समाज पर भी थी। जब कोई नई चीज गांव में आती है तो स्थानीय संस्कृति उसे कैसे अपनाती है इसका सजीव वर्णन रेणु ने तीसरी कसम में किया है। रेणु ने ग्रामीण जीवन की छोटी से छोटी स्थितियों को इतनी बारीकी से बयां किया है कि वे मोहक बन गई हैं। रेणु के यहां ग्राम कथा अपने सामाजिक विश्वासों में, मिथकों में, लय में, प्रकृति में, अपने नाद और स्वर में, भाषा में नाटय के साथ उपस्थित है। तीसरी कसम पढ़ना या देखना ग्रामीण जीवन को जीने की तरह है।

तीसरी कसम अथवा मारे गए गुलफाम रेणु की अद्भूत कहानी है। मूलत: यह ग्रामीण संस्कृति की कहानी है जिसके केन्द्र में प्रेम है। लेकिन इसमें प्रेम का कहीं भी जिक्र नहीं होता। 40 साल का गाड़ीवान दृीरामान और खूबसूरत नर्तकी हीराबाई के बीच प्रेम के अंकुरण की यह संवेदनशील कहानी है। हीरामन सजग नहीं है  कि वह प्रेम कर रहा है। हीरामन के जीवन में प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं है। हीराबाई ऐसे पेशे में है जहां हर दिन उसे प्रेम का ढ़ोंग करना पड़ता है। दोनों का हृदय प्रेम के अनुभव के लिहाज से रेगिस्तान की तरह है। इस रेगिस्तान में जब प्रेम का सोता फूटता है तो दोनों एक - दूसरे से गहरी अंतरंगता से जुड़ते हैं लेकिन अंतत: हीराबाई हीरामन को अपनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती है और हीरामन को छोड़कर चली जाती है। दर्शकों को यह बात हजम नहीं होती है और फिल्म फ्लॉप हो जाती है। बी. आर. चोपड़ा ने 1958 में सुनील दत्ता और वैजयंति माला को लेकर 'साधना' बनायी थी। उसमें एक तवायफ को मध्यवर्गीय नायक अंतत: स्वीकार लेता है। लेकिन 1966 में बनी 'तीसरी कसम' में हीराबाई डर कर भाग जाती है कि समाज उनके प्यार को नहीं स्वीकारेगा। शहरों का मध्यवर्गीय दर्शक तीसरी कसम की आंचलिकता को समझ नहीं पाया। दरअसल तीसरी कसम केवल एक प्रेम कहानी नहीं है यह बदलते हुए ग्रामीण संस्कृति की महागाथा भी है। रेणु की 'तीसकी कसम' में तीन कहानियां हैं। तीनों का नायक हीरामन है जबकि हीराबाई केवल तीसरी कहानी की नायिका है। हीरामन 1966 में 40 साल का है यानि उसका जन्म 1926 -27 में हुआ है। दरअसल वह ग्रामीण भारत का प्रतीक पुरूष है। वह एक गाड़ीवान है। वह गांव से कस्बा और शहर की यात्रा करता है। इसी बहाने दर्शक ग्रामीण संस्कृति, कस्बाई संस्कृति और शहरी संस्कृति के दर्शन करते हैं। 1966 में गांवों में पश्चिमीकरण, विकास या आधुनिकता हर जगह नहीं पहुंची थी। 1952 की पहली पंचवर्षीय योजना ग्राम केन्द्रित एवं कृषि केन्द्रित थी। इसके बावजूद 1953 में सलिल चौधरी और बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' में गांव की बदहाली दिखलाकर नेहरूवादी नीतियों की आलोचना की गई है।

  डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख अगला पेज

 

 

top