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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य
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तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य
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गांव को आशाहीन जगह दिखलाया गया है। जबकि शहर को समस्याओं के बावजूद आशा का केन्द्र दिखलाया गया है। 1957 से दूसरी पंचवर्षीय योजना लागू हुई। इसका केन्द्र नगर एवं औद्योगीकरण है। 1960 में बनी 'परख' में एक उद्योगपति को ग्रामीण विकास पांच लाख रूपया दान करते दिखलाया गया है। गांव में पोस्टऑफिस, अस्पताल, स्कूल आ चुके हैं। गांव में महाजन, जमींदार, पुरोहित के साथ डाक्टर, स्कूल मास्टर, पोस्टमास्टर अभिजात वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ठसके विपरीत 1966 में बनी फिल्म 'तीसरी कसम' का गांव भौतिक दृष्टि से पिछड़ा लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न गांव है। इसमें न पक्की सड़क है, न नहर है, न स्कूल है, न अस्पताल है, महाजन है और न जमींदार है। अभिजन लोग कस्बों एवं शहरों में रहते हैं गांवों में पक्का मकान नहीं है। यह उत्तर बिहार के गांवों की यथार्थ स्थिति पर आधारित फिल्म है। यह लेखक रेणु का अपना इलाका है। यह फिल्म एक आंचलिक कथा पर आधारित है। जो ग्रामीण शहरी बन गया उसकी निगाह से गांव को जो साहित्य देखता है, उसको ग्रामकथा, आंचलिक कहानी या आंचलिक उपन्यास कहा गया। गांव के लड़के शिक्षा और नौकरी के लिए बड़ी तादाद में शहरों - महानगरों में आए। वहां उनको नौकरी मिली शादी करके वे वहीं बीवी - बच्चों के साथ रहने लगे। यह मध्यवर्ग पैदा तो हुआ गांव में, वहीं पला - पुसा लेकिन रहने लगा शहर में। 'दो बीघा जमीन' और ' परख' इसी तरह की आंचलिक फिल्म थी। यह शहर में रहने वाले ग्रामीण व्यक्ति की नजरों से देखा गया गांव है। इसके विपरीत तीसरी कसम देहाती गाड़ीवान हीरामन की नजर से गांव, कस्बा और शहर की देखी - सुनी - भोगी गई कथा है। परन्तु हीरामन का पात्र रेणु जैसे मध्यवर्गीय लेखक की नजर से देखा - रचा गया है। रेणु शहर में बसे हुए ग्रामीण थे। उनकी दृष्टि गांधीवादी थी। दूसरी और सलिल चौधरी की दृष्टि 'दो बीघा जमीन' में नेहरूवादी और 'परख' में गांधीवादी थी। हीरामन जैसा ठेंठ देहाती चरित्र की रचना हिन्दी सिनेमा में दूसरा नहीं मिलता। हीरामन हिन्द स्वराज का स्वराजी चरित्र है। जिन्दगी के बारे में उसकी दृष्टि सनातनी है। उसका यह चरित्र शैलेन्द्र द्वारा लिखे गीतों में अभिव्यक्त हुआ है। वह रौबर्ट रेडफिल्ड के द्वारा वर्णित लिटिल टै्रडिशन या फोक कल्चर का प्रतिनिधि न होकर गांधी के हिन्द स्वराज और प्लेटो के रिपब्लिक का प्रतिनिधि है। एक स्तर पर 'परख' के पोस्टमास्टर और 'तीसरी कसम' के गाड़ीवान हीरामन की तुलना हो सकती है लेकिन दोनों फिल्मों की तुलना नहीं हो सकती। 'परख' का गांव भौतिक रूप से विकसित लेकिन सांस्कृतिक रूप से भ्रष्ट हो चुका है। जबकि 'तीसरी कसम' में भ्रष्टाचार कस्बे और शहर में तो है गांवों में अभी तक नहीं फैला है। लेकिन 2010 तक आते आते गांवों की स्थिति भी बदल गई है। भ्रष्टाचार और आंतकवाद की बात छोड़ भी दें, तो दूषित र्प्यावरण हमें किश्तों में मार रहा है। रासायनिक कीटनाशक के उपयोग से सब्जियां और फल हानिकारक हो चुके हैं। मौत छोटी - छोटी सी मासूम दिखने वाली किश्तों में हमें परोसी जा रही है। खाने की हर चीज में आज मिलावट है। आधुनिकता के नशे में हम सब उन्हीं गलियों में जीने निकले हैं, जिनमें हर जगह मौत बिछी है। एक भ्रष्ट और अनैतिक समाज इसी तरह मौत को आमंत्रित करता है। लेकिन 'तीसरी कसम' के नायक हीरामन के सामने अपने गांव और घर लौटने का विकल्प है। उसके जीवन की समस्यायें तीन कसम खा लेने से सुलझ जाती हैं। जबकि यह विकल्प हमारे - आपके सामने नहीं बचा है। हम इन्टरनेट के ऐसे नेटवर्क समाज में जी रहे हैं जिसमें प्रतिद्वन्द्वी कंपनियां काफी पैसा खर्च करके एक दूसरे के नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए लेटेस्ट वाइरस बनवाती हैं और इस वाइरस से बचने के लिए एंटी - वाइरस भी साथ ही साथ बनवाया जाता है। यह विज्ञान एवं तकनीक के सैन्य उद्योग से जुड़ने के बाद उसकी तार्किक परिणति है। आधुनिकता के दौर में सैनिक और गैर - सैनिक दोनों समाजों में तकनीक की अंधी दौड़ चल रही है। आधुनिक होने के बाद आप आधुनिक बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। इससे बाहर निकलने का पक्का रास्ता फिलहाल नहीं बचा है। जेहादी इस्लाम और माओवादी भी इसी आधुनिकता की कोख से निकले हैं। ये भी आधुनिक तकनीक पर उसी तरह हिसंक तरीके से निर्भर हैं जैसे पूंजीवादी प्रजातंत्र के समर्थक निर्भर हैं। इससे बाहर निकलने के लिए कच्ची सड़क या पगडंडी अवश्य बची है। लेकिन इन ऊबड़ - खाबड़ रास्तों का इस्तेमाल आज माओवादी सैनिकों या जेहादी आतंकवादियों की पहुंच से बाहर नहीं है। क्या यह महज संयोग है कि 'तीसरी कसम' बनाकर शैलेन्द्र 1966 में मर गए और 1967 में चारू मजुमदार ने नक्सलवादी में माओवादी अभियान शुरू किया और उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी की विधान सभाओं के चुनाव में शर्मनाक पराजय हुई?
मेरी दृष्टि में 'तीसरी कसम' के तीनों कसमों का बराबर महत्व है भले ही तीसरी कसम खाने की प्रक्रिया फिल्म में सबसे लंबी है। हीरामन बैलगाड़ी का गाड़ीवान है। वह शुरू में एक सेठ का चोरी का माल ढ़ोता है। पुलिस के छापे के बाद वह सेठ अपने चोरी के सामान के साथ पकड़ा जाता है और हीरामन किसी तरह अपने बैलों के साथ भाग कर घर पहुंचता है और पहली कसम खाता है कि अब वह अपनी बैलगाड़ी पर चोरी का सामान नहीं ढ़ोवेगा।
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