Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

अमेरिका नियंत्रित विश्व ग्राम का भविष्य

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अमेरिका नियंत्रित विश्व ग्राम का भविष्य

 

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(1) हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह बयान दिया है कि अमेरिका तालिबान के उदारवादी तत्वों के साथ बातचीत कर सकता है। इसे अमेरिका की अफगान नीति में पहले बड़े बदलाव का संकेत माना जा रहा है। इसी के साथ ओबामा ने यह भी स्वीकारा है कि अफगानिस्तान में अमेरिका को अपेक्षित विजय नहीं मिल पायी है।

   संगठन से ज्यादा एक अतिवादी विचारधारा में तब्दील हो चुके तालिबान में उदारवाद की कोई गुंजायश नजर नहीं आती। ओबामा इराक में उदारवादी नेताओं के साथ हुई वार्ताओं के तर्ज पर शायद वैसी ही उम्मीद अफगानिस्तान से भी लगाए बैठे हैं। परंतु इराक में अलकायदा की दमदार उपस्थिति के बावजूद वहां ऐसी व्यवस्था कायम रही जिसमें उदारवादी तत्वों की पहचान कर बातचीत की संभावना तलाशी जा सकी, लेकिन अफगानिस्तान में अतिवादी ऐसी तमाम व्यवस्थाओं को पहले ही नेस्तनाबूद कर चुके हैं। अत: ओबामा की मंशा से अमेरिका पर से दुनिया का भरोसा कम होगा। इसका फायदा अंतत: अतिवादियों को ही होगा। इससे पाकिस्तान को अफगानिस्तान में रणनीतिक रूप से दखल देने का मौका मिलेगा। ऐसे भी पाकिस्तान में जरदारी की स्थिति दिनों -दिन खराब हो रही है। नवाज शरीफ , मुसर्रफ और कियानी के विरोध का लाभ अंत में फौजी शासन में ही होगी। और सैनिक तानाशाहों के मॉडेल जियाउल हक ही रहे हैं।       

    लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ओबामा यह सब नहीं समझ रहे है ? उनके सलाहकार और सी. आई . ए. वाले यह सब नहीं समझ रहे हैं ? या समझने के बावजूद लाचार हैं। मंदी और मंहगाई के मार झेल रहे अमेरिका की भीतरी हालत सोवियत युनियन की तरह हो गई है और जिस तरह अफगानिस्तान में हस्तक्षेप सोवियत साम्राज्यवाद का अंतिम अभियान था और उसके बाद वह टुकड़ों में बिखर गया ठीक उसी तरह अमेरिका की भीतरी हालत काफी खराब है और अफगानिस्तान तथा इराक एवं पाकिस्तान के बीच फंसा अमेरिका  हर हालत में इससे बाहर आना चाहता है। पिछले तीस वर्षों से अमेरिका अपनी ''नवाबी'' बचाने के लिए बहु बेगम / मेरे हुजूर जैसे दिवालिया हो चुके नवाबों जैसा व्यवाहार करते करते थक और टूट चुका है। आम अमेरिकी ऐसे अभियानों को फालतु , खर्चीला और अनावश्यक मानता है। उसकी आर्थिक हालत वैसी हो गई है जैसी द्वितीय विश्व युध्द के बाद ईग्लैंड या फ्रांस की थी और कोल्डवार के बाद सोवियत युनियन की थी। अमेरिका वियतनाम में हार चुका है और उसे वापिस लौटना पड़ा था। ईराक और अफगानिस्तान से भी वह अजीज आ चुका है। उसे देर- सबेर वापिस लौटना पड़ेगा। और यह अमेरिकी साम्राज्यवाद का अंत होगा । तब अमेरिका आस्ट्रेलिया, कनाडा या यूरोपीय युनियन तथा जापान की तरह एक उत्तारआधुनिक राष्ट्र-राज्य होगा। अपने में मगन तथा मदहोश। 

2)1972 में अमेरिका और सोवियत युनियन के बीच कोल्ड-वार समाप्त हुआ था। 1973 में पेट्रोलियम पदार्थो की कीमत में वृद्वि हुई। इससे जो पैसा जमा हुआ वह सेंटकीटस जैसे नए बैंको में जमा हुआ। इन बैंको पर प्रत्यक्ष अमेरिकी नियंत्रण नहीं है। इन पैसों को सोवियत संघ में इन्वेस्ट करवाया गया। खैरात में मिला पैसा आने से आर्थिक सुधार की प्रक्रिया रूक गई। 1948 से 1972 तक कोल्डवार का चरमोत्कर्ष था। 1972 से सोवियत संघ और अमेरिका के बीच दो संधि हुई थी। इसी के बाद अमेरिका ने सोवियत संघ में पैसा का ठेलम ठेल किया। सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में बाहरी पैसा आने से दूर गामी नुकसान हुआ। 1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान में घुस पैठ के बाद फिर शीत युध्द शुरू हुआ। 1979 से अमेरिका पाकिस्तान में लगातार पैसा ठेल रहा है। द्वितीय विश्वयुध्द में अमेरिका ने इंग्लैंड को आर्थिक मदद किया था। अमेरिका पैसा दे कर के ही दूसरे देशों को बर्बाद करता है।
ओबामा ने गुड यानी अच्छे तालिबान की बात करके अमेरिका वर्चस्व के पतन को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया है। अमेरिका भयानक मंदी से त्रस्त है। अमेरिका के पास स्थल सेना की ताकत नहीं है। पहाड़ी गुफा श्रृंखलाओं वाले अफगानिस्तान में तालिबान को समाप्त करने वाला वायु सेना के आक्रमण नहीं है। पाकिस्तान ने तालिबान से लड़ने के लिए पैसा लिया लेकिन तालिबान को समाप्त करने की द्वढ़ता नहीं दिखलायी। आज यही तालिबान पाकिस्तान में फैल चुका है। पाकिस्तान को अब गृहयुद्व से कोई नहीं बचा सकता।

भारत की हालत भी खराब है। परन्तु प्रजातंत्र की जड़ें जम चुकी हैं। विकास प्रक्रिया अब काफी हद तक संस्थाबद्व हो चुका है। पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था का मानकीकरण हो चुका है। गठबंधन की राजनीति भी काफी हद तक परिपक्व हो चुकी है। अब गैर- कांग्रेसी और गैर-भाजपायी सामाजिक आधार की तरफ झुक रही है। इसमें कोई दूरगामी या रणनीतिक परिवर्तन नहीं हो सकता। कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं हो सकता। अभी यही सब चलेगा। धीमी गति से आर्थिक सुधार होता जाएगा। चीन में भी सोवियत संघ की तुलना में सुधार की प्रक्रिया क्रमिक एवं सतत् रूप से होती रही है। गैर प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अब लंबा भविष्य नहीं है। प्रजातांत्रिक पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे को सीमा मानने पड़ेगा। आर्थिक शक्ति का महत्व स्वीकारना पड़ेगा। संस्थानीकरण का कोई विकल्प नहीं है। व्यवसायीकरण और बाजारी व्यवस्था का भी कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं है। परन्तु धर्म संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन की अपार संभावना है। इसके लिए अभी संस्थात्मक फ़्रेमवर्क विकसित होना है।

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