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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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भाजपा की विडंबना
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भाजपा की विडंबना
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भाजपा की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि कांग्रेसी संस्थान का वास्तविक विकल्प भारत में केवल यही पार्टी हो सकती है। भाजपा पृष्ठभूमि के ज्यादातर लोग गरीब परिवारों से आए हैं। फलस्वरूप जब इनको धन एवं विलासिता पाने का मौका मिला तो इनको फिसलते देर नहीं लगी। धर्म, नैतिकता, देशभक्ति समकालीन भारतीय राजनीति के लिए खोखले शब्द हैं। भाजपा से निकले लोग अपने को सेमी- पोलिटिकल, सोशल रिफार्मर= राष्ट्रवादी, आर्दशवादी सुधारक मानते हैं। यह एक प्रकार का रोमांटिक आर्दशवाद है- रेगिस्तान में फूल खिलने के समान या बांझ का बेटा होने के समान। इसमें न युक्ति के लिए जगह है, न तकनीक के लिए और न सिद्वांत के लिए। ये लोग न लोक को स्वीकारते हैं और न शास्त्र को, फलस्वरुप समाज भी इनको सीमित सहयोग ही देता है।
संघ की सलाह पर भाजपा ने तय किया है कि पार्टी उन्हीं लोगों को अध्यक्ष, नेता विपक्ष और दूसरे अहम पद देगी जो शुरू से भाजपा के कार्यकर्ता रहे हैं। ऐसे अहम पद संघ पृष्ठभूमि के लोगों को ही मिलेंगे। इससे संघ परिवार का झगड़ा भले कम होने की उम्मीद हो परंतु इससे भाजपा का विकास रूक जाएगा। झगड़ा भी कमेगा इसकी गारंटी नहीं है चूंकि भाजपा में असली झगड़ा तो संघ पृष्ठभूमि के लोगों के बीच ही रहा है। बिना वैचारिक उदारता अपनाये भाजपा की समस्या सुलझने वाली नहीं है। सांगठनिक दृढ़ता भी तभी आएगी।
भाजपा नेतृत्व पर फिलहाल उसी तरह हमला हो रहा है जिस तरह कांग्रेस नेतृत्व पर 1977 - 79 और 1996 में हमला हो रहा था। असंतोष कैक्टस के पौधे की तरह होता है। उसे छेड़ो तो अपनी ही उंगलियों में दर्द होता है। भगदड़ यदि कार्यकर्ता के स्तर पर हो तो ज्यादा फर्क पड़ता है। नेताओं के स्तर पर हो तो मीडिया में न्यूज बनता है। समय आने पर पार्टी अपने मूल पर लौट जाती है। पार्टी के मूल में विचार और वोट बैंक होता है। विचार के केन्द्र में देश को एक निश्चित दिशा देने की दृष्टि और वोट बैंक का हित होता है। सत्ता में आने के बाद भाजपा अपने मूल से अलग हो गई। सत्ता से हटने के बाद अपने जड़ों की ओर लौटने की बजाया धीमी आत्महत्या की तरफ बढ़ गई। जड़ों की ओर लौटने में सत्ता - सुख के समय का अहंकार और आत्म - ग्लानि एक साथ सामने आ रहा है। दूसरी ओर देश की परिस्थिति भी तेजी से बदल रही है।
भारत और इंडिया का विभाजन और तीक्ष्ण हुआ है। इस देश को समझने में महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद पूरक हैं। भारत का काम आज भी गांधी के बिना नहीं चलेगा। इंडिया को आत्म - ग्लानि से बचने के लिए स्वामी विवेकानंद की जरूरत है। महानगरों के युवा और गांव - कस्बों के युवा की भौतिक परिस्थिति में जमीन - आसमान का फर्क है। महानगरों के गरीब युवा और उच्चमध्यम वर्ग के युवा की भौतिक परिस्थिति अतुलनीय है। अत: पूरे देश को संभालने के लिए एक पार्टी और एक विचारधारा से काम नहीं चलेगा। संकट केवल भाजपा के साथ नहीं है। संकट कांग्रेसा, सपा और माकपा के साथ भी है। कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट राहुल ब्रिगेड की दिशा हीनता है। कांग्रेस सरकार की सबसे बड़ी असफलता इंडो - यू.एस.न्यूक्लियर डील होने जा रही है। 11 मई 1998 के पोखरण दो की असफलता साबित हो चुकी है। इससे वाजपेयी सरकार एक हद तक झूठी साबित हो चूकी है। लेकिन इसी झूठ की बुनियाद पर इंडो - यू. एस. न्यूक्लिकर डील साइन होने जा रहा है। अत: पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और पोरवरण दो के तत्कालीन प्रमुख आर. चिदांबरम ने बयान दिया है कि संथानम बकवास कर रहे हैं ।पोखरण् दो सफल रहा था। जबकि संथानम एवं पी. के. अयंगार अपने बयान पर कायम है कि पोखरण दो 50 - 60 प्रतिशत ही सफल रहा था और भारत को अभी सी. टी. बी. टी. पर दस्तखत नहीं करना चाहिए। अयंगार पोखरण एक और के. संथानम पोखरण दो से जुड़े वैज्ञानिक हैं। एम. आर. श्रीनिवासन, होमी सेठना और ए. एन. प्रसाद भी अयंगार और संथानम से सहमत हैं। भाजपा इस मुद्दे पर दिशाहीन हो गई है।
एक तो औद्योगिक - आर्थिक मंदी उस पर कमर तोड़ महंगाई। उपर से सूखा। देश में 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। सूखे से 70 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। बहुत लोग भूख और कुपोषण् से मर जायेंगे। बहुतों की जमीन सूदखोर महाजनों के पास चली जाएगी।
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