भाजपा की विडंबना
पेज 3 छोटे किसान मजदूर बन जायेंगे। यदि सूखा का दौर लंबा, दो - तीन वर्ष, चला तो हाहाकार मच जायेगी। ऐसे संकटकाल में 'विजनरी नेतृत्व' चाहिए। ऐसा नेतृत्व देश में फिलहाल किसी भी स्थापित दल में नहीं है जो मानसून - सूखा - महंगाई का यथेष्ट सामना कर सके। नरेगा के तहत हर महीने साढ़ेतीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44हजार करोड़ का प्रावधान किया गया है। इसी नरेगा को किसी इंफ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो काम और रोजगार दोनों नजर आता, लेकिन अभी तो सिर्फ रूपया नजर आता है कि किस गांव पंचायत में किस - किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया। इस रोजगार से क्या काम हुआ इसका कोई लेखा - जोखा नहीं है। सरकार के पास गरीबी दूर करने, गांवों के विकास करने, मंदी - सूखा - बाढ़ - महंगाई से लड़ने की कोई व्यवस्थित योजना और नीति नहीं है। पिछले एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गए। सबसे ज्यादा किसानों ने पिछले सौ दिनों में खुदकुशी की है। आंकडा पचास पार कर गया। देश के साढ़े तीन सौ जिलों में सूखा है और माओवादी दो सौ पच्चहतर जिलों में सक्रिय हैं। इतने जिलों में न कांग्रेस का प्रभाव है और न भाजपा का। अगर सरकार के पास उचित नीति और मजबूत इरादे न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है। ऐसी स्थिति में मुख्य विपक्षी दल के नाते भाजपा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी परंतु वह अपनी अंदरूनी कलह के कारण अंतर्मुखी हो गई है। संचार क्रांक्ति से आई नई समृध्दि के दौर में पनपे अमेरिकी समाज में अमेरिकी राज्य कल्याणकारी बना रहे इसकी वकालत पॉल क्रुगमैन कर रहे हैं। उन्हें न तो तकनीकी उन्नति से लोगों के बेरोजगार होने पर कोई आपत्ति है और न ही वे इस बात को लेकर परेशान हैं कि अमेरिकी मंदी से एशिया - अफ्रीका के करोडों लोगों का क्या होगा। वे तकनीकी उन्नतिकरण और श्रेष्ठता के पक्षधर हैं और विश्व बाजार में अमेरिकी नेतृत्व के कायल। हमें अपना देसी पाल क्रुगमैन नहीं चाहिए। भाजपा को यह सच्चाई स्वीकारनी पड़ेगी कि पिछले दो दशकों में बाजार के समक्ष सरकारी शक्तियों के समर्पण ने एक के बाद एक कई अर्थव्यवस्थाओं को बर्बाद कर दिया है। मेक्सिको के बाद पूर्वी एशिया, रूस, तुर्की, अर्जेंटीना में जो हो रहा था वही अमेरिका और यूरोप में भी हुआ है। बाजार ईश्वर का विकल्प नहीं है। बाजार स्वभावत: अन्यायी होता है। यह निष्ठुर ढंग से कमजोर की अपेक्षा सबल का पक्षधर होता है। सरकार का काम बाजार को संयमित और नियंत्रित करना है। निरंकुश बाजार किसी भी तरह कल्याणकारी नहीं होता। नेहरूवादी नीतियां आज पुन: प्रासंगिक हो गई हैं। इसे भारत में एक प्रकार का समझौता परस्ती और गांधी के साथ वैचारिक विश्वास घात माना जाता है। इसमें कमियां हैं लेकिन इसको सिरे से खारिज करके हम आफत मोल लेने का जोखिम ले रहे हैं।
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