भारतीय राजनीति की विसंगतियां
पेज 2 (6) पहले आम चुनाव (1952) के वक्त 14 राष्ट्रीय पार्टियां थीं और 39 क्षेत्रीय। आज राष्ट्रीय पार्टियां घट कर तकनीकी रूप से छह और व्यावहारिक रूप से दो है। परंतु कांग्रेस और भाजपा का राष्ट्रव्यायी प्रभाव नहीं है। अधिक से अधिक ये अपेक्षाकृत बड़ी बहुप्रांतीय पार्टियां हैं। पचास के दशक में कांग्रेस के अलावा समाजवादी विचारधारा के आधार पर स्वयं को गोलबंद करने वाले दलों और कम्युनिस्ट विचारधारा पर आधारित दलों के पास भी राष्ट्रीय विस्तार और प्रमुख था। लेकिन कांग्रेस ने अपने पत्ते कुछ इस अंदाज में खेले कि वह कम्यूनिस्ट, अंबेडकरवादियों और समाजवादियों की ताकत को खाती चली गई। उसने साठ और सत्तर के पूर्वार्द्ध में अन्य राष्ट्रीय दलों की कब्र खोदनी चाही लेकिन जून 74 में लगायी गई इमरजेंसी के बाद कांग्रेस संगठन का क्षय और क्षेत्रीय दलों का प्रमुख शरू हुआ। 1991 तक आते आते नेहरूवाद और इसकी विरोधी विचारधाराएं सभी अप्रासंगिक होती चली गई। 1985 से रामजन्मभूमि आंदोलन की आड़ में भाजपा ने उत्तर भारत में अपने को संगठित किया। यू पी में अपने गिरावट के लिए भाजपा ने एक बार नहीं, तीन बार बसपा को अन्यान्य कारणों से सरकार में बैठाया और बड़े विडंबनापूर्ण तरीके से खुद मुख्य होड़ से बाहर हो गई। ऐसा ही हालत उसकी उड़ीसा और बिहार में भी होने जा रही है। गठजोड़ सरकार में होने के बावजूद उसकी लोकप्रियता लगातार गिर रही है और उसका फायदा क्रमश: BJD और JD(U) को मिल रहा है। भाग्य और परिस्थितियां एक व्यक्ति और पार्टी को राजनीति में एक मौका देती है। उसके बाद उस पार्टी की नीति और सिध्दांत पर उसकी तुलनात्मक सफलता निर्भर करती है। कांग्रेस और भाजपा का पतन अवसरवादी समझौतों और गलत रणनीतियों के कारण हुआ। पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाजशरीफ और अब आसिफ अली जरदारी का पतन भी इनकी गलत रणनीतियों के कारण हुआ। पार्टियों एवं साम्राज्यों के पतन का एक अन्य कारण सुयोग्य उत्तराधिकारियों एवं सलाहकारों की कमी भी होती है। संघ परिवार में अब ढ़ंग के प्रचारकों की भारी कमी है। युसुफ रजा गिलानी को अपना आदमी समझकर जरदारी ने प्रधानमंत्री बनाया था। इसके लिए जरदारी ने बेनाजीर र्समथकों से लोहा लिया था। आज वही गिलानी जेनरल कियानी और नवाज शरीफ के साथ मिलकर जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की वापसी के कारण बने। 16 मार्च 2009 को जरदारी नवाज शरीफ के लौंग मार्च के बाद पूरी तरह isolated हो गए हैं। भाजपा में सभी जानते हैं कि यह चुनाव वे जीतने वाले नहीं है। यह आड़वानी के लिए अहम चुनाव अवश्य है लेकिन अन्य नेताओं के लिए यह संक्रमण काल है। गोविन्दाचार्र्य इसी तरह 2000 में isolated हुए थे । उमाभारती इसी तरह 2006 में isolated हुई थी। लंबी समय तक सत्ता में बने रहने के लिए संयम और युक्ति दोनों चाहिए। लोकप्रिय बने रहने के लिए नीतियां चाहिए। सोनिया गांधी ने संयम दिखायी, जरदारी संयम नहीं दिखला पाए। प्रणव मुखर्जी और ज्योति बसु तथा अटल बिहारी वाजपेयी ने संयम दिखालायी, चन्द्रशेखर, सुब्रहमण्यम स्वामी और गोविन्दाचार्र्य संयम नहीं दिखला पाए। राजनाथ सिंह, शिवराज सिंह और अर्जुन मुंडा ने संयम दिखालाया, डा. जोशी, उमा भारती और बाबूलाल मरांडी संयम नहीं दिखला सके। शरद यादव ने संयम दिखालायी, रंजन यादव संयम नहीं दिखला सके। संयम और भाग्य दोनों कि भूमिका महत्वपूर्ण है। असंयमित नरेन्द्र मोदी, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी की जुगारू क्षमता को भाग्य का भी सहयोग मिलता रहा। इनके विरोध में सौभाग्य से जुगारू लोग उपलब्ध नहीं थे। writing on the wall - समय की शिला पर लिखे इबारत को instinctively/ intuitively पढ़ना आवश्यक है। अनुकुल समय का इंतजार करते रहना आवश्यक हैं। समय आने पर 'मत चुको चौहान'। Physics की तरह ही Politics में भी theory of gravitation लागू होता है। एक व्यवस्था केवल ideas से नहीं बनती इसमें interest articulation and social representation भी होता है।
|