भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र
पेज 1 (1) प्रस्तावना भारतीय हिन्दी सिनेमा को समझने से पहले भारत को एक देश और काल के रूप में समझना आवश्यक है। लोक, शास्त्र, नृत्य, गीत, संगीत की परम्परा को समझना आवश्यक है। भारत एक अनूठा देश है जहाँ पारम्परिक सभ्यता के उपकरण म्यूजियम में प्रदर्शन के लिए न होकर, सामान्य लोगों की आस्थाओं, मर्यादाओं और दैनिक आचार - व्यवहार में देखे जा सकते हैं। आज भी धार्मिक त्योहारों, पर्वों और अनुष्ठानों का 'मिथकीय काल' ऐतिहासिक समय द्वारा ग्रस नहीं लिया गया है। मनुष्य अपनी लौकिक व्यस्तताओं से उठकर कभी भी उसमें प्रवेश कर सकता है या जीवनपर्यन्त रह सकता है। इतिहास की समस्त उथल-पुथल के बावजूद भारत में एक निरंतरता है। भारत की तथाकथित विवेकहीन लेकिन लोकप्रिय फिल्में इसकी गवाह हैं। भारतीय फिल्मों की विशिष्टता को समझने के लिए हॉलीवुड के सिनेमा से इसकी तुलना करना आवश्यक है। (2) भारतीय फिल्मों की पारिभाषिक विशेषता एवं आधारभूत श्रेणियां : भारतीय फिल्मों में चार तरह के फिल्मकार हैं। भारत के अधिकांश फिल्मकारों की विभिन्न फिल्मों में शिल्प, प्रस्तुति, जेनर एवं कथांकन के स्तर पर बहुत विभिन्नता रही है। फिल्मों के बारे में उनके दर्शन, दृष्टिकोण् एवं मानदंड (कैनन) उनके व्यक्तिगत अनुभव एवं अनुभूतियों के कारण बनते-बिगड़ते रहे हैं। फलस्वरूप एक ही फिल्मकार को एक श्रेणी में रूढ़ करना अन्याय होगा। फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए हम एक काम चलाऊ वर्गीकरण कर सकते हैं - (क) इस श्रेणी में वे फिल्मकार आयेंगे जिनके लिए फिल्म निर्माण एक प्रकार का व्यवसाय है और फिल्में मनोरंजन के साधन के रूप में टिकट खिड़की पर उपलब्ध उत्पाद हैं। इस श्रेणी को स्थापित करने में बांबे टॉकिज की देविका रानी और शशधर मुखर्जी का नाम अग्रणी है। हिमांशु राय और फ्रेंज ऑस्टेन के सिनेमा में एक मिशन था। देविका रानी और शशधर मुखर्जी ने चंदुलाल शाह (रणजीत मार्का ) और जे.बी.वाडिया, होमी वाडिया के ''विवेकहीन मनोरंजन'' के सफल व्यावसायिक चका चौंध से प्रभावित होकर बॉम्बे टॉकिज का रूपांतरण कर दिया। इसके उस्तादों में ज्ञान मुखर्जी, सुबोध मुखर्जी, नासिर हुसैन तो आयेंगे ही, वे लोग भी आयेंगे जिनके लिए सिनेमा मूलत: मनोरंजन का साधन या ''शो बिजनेस'' है और कहीं न कहीं वे खुद को ''शो मैन'' या ''शो वुमन'' मानते हैं। अकादमिक समीक्षा में इस तरह की फिल्मों को 'माइंडलेस (विवेकहीन) सिनेमा' कहा जाता है। इस तरह के फिल्मकार अपने अपने स्तर पर सिनेमा को एक तरह के 'स्पेकटकल' के रूप में प्रस्तुत करते हैं। फिल्म के अनाड़ी समीक्षकों ने मनमानी करके इस श्रेणी के एकाध लोगों को महान 'शो मैन' कह दिया (जैसे राजकपूर, सुभाष घई एवं संजय लीला भंसाली को 'शो मैन' कहने का मूर्खतापूर्ण चलन करीब-करीब एक खास वर्ग में रूढ़ हो चला है) या कुछ फिल्मों को महान स्पेक्टकल कह दिया (जैसे मुगले आजम, संगम, शोले, मिस्टर इंडिया, रामलखन, क्रिश या ओम शांति ओम को) लेकिन इस श्रेणी के अधिकांश फिल्मकारों को हिकारत के भाव से 'माइंडलेस सिनेमा' कह कर उपेक्षित किया गया। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इनकी फिल्में फिल्म समीक्षा के पश्चिमी मानदंड पर खरा नहीं उतरतीं और समीक्षको की नजर में इनकी फिल्में देखने और इनसे आनंद उठाने वाले दर्शक अंग्रेजी राज और भारतीय मध्यवर्ग के अंग्रेजीदां वर्ग के अथक प्रयास के बाद भी ''सभ्य'' ''विवेक-संपन्न'' एवं परिष्कृत पश्चिमी कला मानदंडों के कायल नहीं हो पाये। परंतु सच तो यही है कि भारत का यह तथाकथित माइंडलेस (विवेकहीन) परंतु अपार लोकप्रिय सिनेमा निर्माता की दृष्टि से व्यवसाय होने के बावजूद - व्यावसायिक समझौतों के बावजूद - व्यवसायियों द्वारा नहीं बनाया जाता बल्कि कलाकारों और साधकों द्वारा ही लिखा, निर्देशित, संगीतबध्द एवं अभिनीत होता है। सामान्यत: यह पश्चिमी नाटय परम्परा के मानदंडों पर आधारित नहीं होता बल्कि सचेत या अचेत रूप से पश्चिमी नाटय परम्परा के मानदंड और पश्चिमी सिनेमा आंदोलनों की उपेक्षा करता है या हँसी उड़ाता है। इसका बहुत ठोस समाजशास्त्रीय कारण है भारत का लोकप्रिय सिनेमा अंग्रेजी राज के विरूध्द जारी स्वाधीनता आंदोलन के वैकल्पिक संस्कृति विमर्श का अंग रहा है। भारतीय सिनेमा के इस पक्ष को अज्ञानी समीक्षक अपनी ''सांस्कृतिक निरक्षरता'' के कारण समझ नहीं पाते। फलस्वरूप वे जे.बी.वाडिया, होमी वाडिया, चंदुलाल शाह, शशधर मुखर्जी, बाबू भाई मिस्त्री, नंदलाल जसवंतलाल, विजय भट्ट, एम. सादिक, एस. यू. सन्नी, मनमोहन देसाई, शक्ति सामंत, राज खोसला, मनोज कुमार, प्रकाश मेहरा, यश चोपड़ा, राकेश रौशन, डेविड धवन, महेश भट्ट, प्रियदर्शन, रामगोपाल वर्मा, आदित्य चोपड़ा, सूरज बडजात्या, राजकुमार संतोषी, अब्बास मस्तान, विपुल शाह, मिलन लुथरिया, और राजकुमार हीरानी को के. आसिफ, राजकपूर, रमेश सिप्पी और सुभाष घई की तरह शो मैन नहीं कह पाते। सत्य यही है कि राजकपूर की केवल बाद की फिल्में (बॉबी के समय से निर्देशित फिल्में, संगम के अपवाद को छोड़कर) ही उन्हें शो मैन की श्रेणी में लाती हैं। वर्ना वे तीसरी श्रेणी के मध्यमार्गी फिल्मकार हैं। यही बात के. आसिफ, रमेश सिप्पी और सुभाष घई पर भी लागू होती है। के. आसिफ ने केवल मुगले आजम नहीं बनायी थी। रमेश सिप्पी ने केवल शोले नहीं बनायी है। सुभाष घई ने केवल रामलखन नहीं बनायी है। इनकी सभी फिल्मों को ध्यान में रखकर बात करने पर पश्चिमी फिल्म समीक्षा का फ्रेमवर्क गड़बड़ाने लगता है। (ख) दूसरी श्रेणी में वे भारतीय फिल्मकार आते हैं जिन्होंने सचेत रूप से भारतीय सिनेमा के कैनन (मानदंड) बनाये हैं या तोड़े हैं। इन्होंने भारतीय सिनेमा को सामाजिक परिवर्तन, समाज सुधार या आंदोलन का प्रभावी एवं सचेत माध्यम बनाया है। लेकिन इन लोगों ने अपने दर्शकों से तथा इस देश की परम्परा एवं स्थिति से भी संवाद बनाये रखा है। स्वामी विवेकानंद, बालगंगाधर तिलक, महर्षि दयानंद, सर सैयद अहमद खां, महात्मा गांधी, रबीन्द्र नाथ टैगोर से लेकर मध्यकालीन - समकालीन कवि, शायर, साधक, साहित्यकार आदि से किसी-न-किसी रूप में प्रेरित रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम से प्रभावित रहे हैं एवं इन लोगों ने 'इस देश की परम्परा' और 'सिनेमा के विदेशी तकनीक' के बीच एक प्रकार का समन्वय बनाने की कोशिश किया है। और इस कोशिश में उन्हें सफलता भी मिली है। लोक में वे प्रिय एवं स्थापित भी हुए हैं। इनमें बाबू राव पेंटर, भालजी पेंढारकर, पी. सी. बरूआ, आगा ह.्र काश्मीरी, देवकी बोस, ए. आर. कारदार, सोहराब मोदी, जयंत देसाई, केदार शर्मा, अमिय चक्रवर्ती, फणी मजूमदार, चेतन आनंद, एस. एस. वासन, के. ए. अब्बास, नितिन बोस, भगवान, एस. एस. रवैल, रमेश सैगल, जिया सरहदी, मुखराम शर्मा, महेश कौल, कमाल अमरोही, नवेन्द्र घोष, ऋत्विक घटक, राजेन्द्र सिंह बेदी, किशोर साहु, राही मासूम रजा, इन्दर राज आनंद, कुमार शाहनी, मणि कौल, सलीम जावेद, एस रामानाथन, मणिरत्नम, केतन मेहता, संजय लीला भंसाली, आशुतोष गोवरिकर, चंद्र प्रकाश द्विवेदी, विनय शुक्ला, अनुराग कश्यप, जैसे फिल्मकार-लेखक आयेंगे। इस श्रेणी में वह हर महत्वपूर्ण फिल्मकार आयेगा जो सिनेमा को अवधारणात्मक स्तर पर प्रतीकात्मक शक्ति का महत्वपूर्ण माध्यम मानता है और सिनेमा के माध्यम से सामाजिक हस्तक्षेप करना चाहता है।
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