Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र

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भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र

 

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 1980 और 1990 के दशक के फिल्मकारों पर न देश की गुलामी की छाया है और न देश के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव है। 1990 के बाद का दशक भारतीय समाज एवं भारतीय सिनेमा के लिए देश और विदेश में एक अद्भुत समय है। अवसर और चुनौतियों की दृष्टि से, प्रतिभा और पलायन की दृष्टि से यह भारतीय समाज की आंतरिक ऊर्जा का प्रस्फुटन है। यह उन युवाओं का समय है जिनके सपने गुलामी, संरक्षण या आश्रय (पैट्रोनेज) से रौंदे नहीं गए है। उनको आप अभिमन्यु, घटोत्कच और बर्बरिक की तरह अनाड़ी भले कह दें लेकिन इनकी प्रतिभा, समर्पण, निर्दोष आत्मा और निर्भीक सृजनशीलता की तारीफ किए बिना नहीं रह सकते। इनकी दर्शन, इतिहास, साहित्य या मिथक की समझ में खोट निकाला जा सकता है लेकिन इन्हे कैमरे से खेलना आता है। इनको तकनीक का भय नहीं है। इनको मौलिकता की सनक नहीं है। इनको कृत्रिम विचारधारा की रूढ़ियों ने नहीं बांध रखा है। ये समकालीन महाभारत का युध्द भले न जीत पायें लेकिन समकालीन महारथियों का गर्व तोड़ने के लिए ये काफी हैं। ये सीधे-सीधे कह या दिखला सकते हैं कि शाहंशाह के कपड़े नहीं हैं। शाहंशाह अपने दुष्ट दरबारियों की गलत मंत्रणा से नंगे घूम रहा है। उस पीढी को अपने अपरोक्ष अनुभूति पर विश्वास हैं। यह भारतीय समाज एवं भारतीय सिनेमा के मठाधीशों और समीक्षकों को यदि पतनकारी नजर आता है तो मतलब साफ है ये लोग अपने समय और समाज से कटे हुए हैं। ये लोग भारत की लोकप्रिय फिल्में नहीं देखते। यदि पुरानी पीढ़ी के लोग इसमें अपनी भूमिका तलाशना चाहते हैं तो वाणप्रस्थ एवं संन्यास धर्म निभायें। नई पीढ़ी को वहाँ संबल एवं प्रशिक्षण दें जहाँ इनको संबल, सहयोग एवं मार्गदर्शन की जरूरत है। भारत में पश्चिम की तरह अपने इतिहास को प्रस्तुत् करने का व्यवस्थित प्रयास अब तक नहीं हुआ है। ऐतिहासिक फिल्मों को'पीरियड' फिल्में कहने वाले लोगों को इतिहास दर्शन बताया जाना चाहिए। उन्हें हॉलीवुड की 'पैसन ऑफ जिसस क्राइस्ट' 'ट्रॉय', 'एलेक्जांडर' एवं 'दा विंची कोड' जैसी फिल्मों को बिना मानक या मानदंड बनाये ऐतिहासिक फिल्मों की समकालीनता समझनी चाहिए। तमिल सिनेमा में सी. एन. अन्नादुराई और एम. करूणानिधि ने तमिल परम्परा की समकालीन प्रस्तुति करके द्रविड आंदोलन और तमिल राजनीति को सिनेमा से आंदोलित किया था। कामराज नाडार और सी. राजगोपालचारी जैसे नेता देखते ही रह गए थे। उसी तरह 1950 के दशक से बंगाली और मलयालम सिनेमा ने वहाँ की राजनीति और समाज को बहुत गहराई से प्रभावित किया। हिन्दी सिनेमा ने भी भारतीय समाज और राजनीति के साथ बहुत आत्मीय संबंध बनाया है लेकिन इसको ठीक से समझने का झ्रमानदार प्रयास अब तक नहीं हुआ है। ठीक उसी तरह समकालीन विश्व में भारतीय सिनेमा के प्रसार और लोकप्रियता को लोग अब भी केवल मनोरंजन एवं व्यवसाय की दृष्टि से देख रहे हैं। इसके अन्य प्रभावो पर लोगों का ध्यान अभी ठीक से नहीं जा रहा है। इसका सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रभाव है। सकारात्मक इसलिए चूंकि भारतीय सिनेमा के विरोधी अभी व्यवस्थित प्रतिवाद नहीं कर रहे हैं। नकारात्मक इसलिए कि भारतीय सिनेमा के दर्शक एवं इससे लाभ प्राप्त करने वाले लोग एक - दूसरे के साथ मिलकर सहकार एवं सहयोग नहीं कर रहे हैं। सिनेमा आंदोलन कमजोर पड़ने लगा है। फिल्म सोसाइटियों के विस्तार एवं सक्रियता में ठहराव और बिखराव आ रहा है। ज्यादातर फिल्मकार एवं लेखक भारतीय दर्शकों की संस्कृति एव अपेक्षाओं से अनजान हैं लेकिन उनमें तकनीक एवं पूंजी का पुरानी पीढी के फिल्मकारों एवं लेखकों की तरह भय नहीं है। वे हॉलीवुड से आतंकित नहीं हैं। लेकिन हॉलीवुड की फिल्मों के अलावे उन्हें अन्य सिनेमा की परम्पराओं और संभावनाओं का भी ज्ञान नहीं है। इस रचनात्मक विस्फोट की स्थिति को निर्माता आदित्य चोपड़ा, विधु विनोद चोपड़ा, मनमोहन शेट्टी, रोनी स्क्रुवाला, अमित खन्ना, सुभाष घई या महेश भट्ट जैसे लोग कितना लाभ उठा पायेंगे यह तो भविष्य ही बतलायेगा लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि सूरज बड़जात्या, आदित्य चोपड़ा, संजय लीला भंसाली, आशुतोष गोवरिकर, करण जौहर, राजकुमार हीरानी, शिमित अमीन, फरहा खान, इम्तियाज अली, करण जौहर, विनय शुक्ला, चंद्रप्रकाश द्विवेदी, निखिल आड़वानी, विशाल भारद्वाज, संजय गढ़वी, जॉन मैथ्यु माथन, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, मधुर भंडारकर, फरहान अख्तर, नागेश कुकुनुर, प्रदीप सरकार, श्रीराम राघवन, अनुराग बसु, मिलन लुथरिया, कुणाल कोहली, अनुराग कश्यप, शिरीष कुंडुर, शॉद अली, अनीस बज्मी, नीरज वोरा, सुरेश नायर, जैसे फिल्मकार भारतीय सिनेमा का नया व्याकरण एवं नया छंद गढ़ रहे हैं। ये लोग भविष्य में बहुत अच्छी और बहुत बुरी फिल्में बनायेंगे। फिल्मों की संस्कृति और फिल्मों का व्यवसाय गुणात्मक रूप से बदलेगा। जिस तरह 1913, 1931, 1947, 1957, 1967, 1975, 1989, 2004 को भारतीय समाज एवं भारतीय सिनेमा दोनों के लिए ' माइल स्टोन' (मील का पत्थर) माना जाता है उसी तरह 2009 भी भारतीय समाज एवं भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है।  

  भारतीय सिनेमा में 1913 से ही कई तरह की प्रवृत्तिायाँ एक साथ अस्तित्व में रही हैं। उनमें अंतर्विरोध भी रहा है। लेकिन हर तरह की प्रवृत्तिा को देखने वाले और सराहने वाले दर्शक इस समाज में मौजूद रहे हैं। यह पश्चिमी देशों के सिनेमा में 1968 से पहले नहीं पाया जाता। 1968 से पश्चिमी देशों में उत्तार आधुनिक प्रवृत्तिायाँ हावी होती गईं। पश्चिम ने चौथी और पाँचवी शताब्दी पूर्व की अपनी गैर-ईसाई, गैर यहुदी (पैगन) परम्परा से बौध्दिक एवं कलात्मक स्तर पर संवाद बनाना शुरू किया और इससे ईसाईयत और आधुनिकता के बारे में एक प्रकार के तटस्थ मूल्यांकण की शुरूआत हुई। यह एक तथ्य है कि ज्यादातर उत्तार आधुनिक विद्वान एवं कलाकार यहुदी मूल के रहे हैं। शेष वे लोग रहे हैं जो अपने को नास्तिक, पैगन या रहस्यवादी पध्दतियों से किसी न किसी रूप में जोड़े रहे हैं। भारत की सनातन पध्दतियों ने पैगनवादी परम्पराओं की तरह ही विविधता में एकता को स्वीकार किया है। विविधता में एकता की अभिव्यक्ति गद्य की अपेक्षा काव्य, गीत, संगीत एवं नृत्य में अभिव्यक्त हो पाती है। गद्य की अपनी सीमा है। वाक् के चार रूप होते हैं - परा, पश्यंति, मध्यमा और बैखरी। बैखरी बोली हुई भाषा है। मूलत: गद्य है। मध्यमा में कलात्मक भाषा, सांकेतिक भाषा आती है। पश्यंति तंत्र और मंत्र की भाषा है। परा मौन की भाषा है। बिना ध्वनि के संवादित होने वाली भाषा है। भारतीय सिनेमा की पहचान गीत-संगीत से होती है। यही भारतीय सिनेमा की पारिभाषिक भारतीयता है। यह मध्यमा वाक् की स्वाभाविक भाषा है। सिनेमा के उस्ताद-शागिर्द परम्परा में यह जानी पहचानी सांस्कृतिक पँजी की तरह हस्तांतरित होती रही है। उसी तरह यह समझना आवश्यक है कि भारतीय समाज के अधिकांश लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जो संस्कार मिलता रहा है उसमें ''पूंजी की स्वायत्ताता'' या ''पश्चिमी आधुनिकता में विकसित व्यक्ति केन्द्रित उपभोक्तावाद'' आज भी एक अटपटी और अस्वाभाविक चीज है। आज भी 'पैसा कमाना' जिन्दगी का लक्ष्य नहीं बना है। उनके लिए भी जो ''पैसा-पैसा'' कहते और करते रहते हैं। किसी व्यक्ति का धर्म और उसकी आस्था का पता अक्सर उसकी कथनी और रोजमर्रे की करनी से नहीं लग पाता। उसका धर्म और उसकी आस्था का पता तब लगता है जब उसके सामने कोई चुनौती आती है। जब उसके सामने कोई यक्ष प्रश्न आता है। जब उसके सामने शहादत का कोई मौका आता है। जब भोग और त्याग की दुविधा आती है। चाहे मदर इंडिया की नर्गिस हो या आराधना की शर्मिला टैगोर, चाहे दीवार की निरूपा राय हो या गॉडमदर की शबाना आजमी या चाहे संगम का राजेंद्र कुमार हो या अनोखी रात का संजीव कुमार या शोले का संजीव कुमार या दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे का शाहरूख खान - इनके फिल्मी चरित्र में एक ठेठ भारतीयता है जो 'क्राइसिस' (चुनौती) के समय सामने आती है। और ये फिल्में 'सुपर हिट' हो जाती हैं। चँकि भारत के आम दर्शक आज भी हॉलीवुड की फिल्मों के दर्शकों से गुणात्मक रूप से भिन्न हैं। इसीलिए भारत की सफल फिल्मों की विचारधारा न खूनी क्रांति से उपजे समाजवाद के पक्ष में होती है और न पूँजीवादी उपभोक्तावाद को ही स्थापित करती है। भारत की हर सफल फिल्म में एक बीच का रास्ता, एक मध्यमार्गी समाधान, एक प्रकार का गांधीवादी समाजवाद, एक प्रकार का भक्तिमार्गी समन्वय, एक प्रकार की बौध्द नीति, एक प्रकार का तीसरा मार्ग तलाशा जाता है।

    भारतीय महाकाव्यों की तरह भारत के लोकप्रिय सिनेमा में भी वाक् के चारो रूपों की अभिव्यक्ति शब्द और दृश्य दोनों माध्यमों में होती रहती है। बैखरी वाक्  का गद्य रूप है। स्थूलतम रूप है। जैसे प्रेमी-प्रेमिका अपने प्यार का इजहार करने के लिए 'आई लव यू' बोलते हैं या 'हाथ' पकड़ते हैं या 'गले' लगते हैं या 'चुम्बन' लेते हैं। यह बैखरी है। प्रेमी-प्रेमिका जो गाने गाते हैं या एक दूसरे की ऑंख में दूर से देखते हैं या देखते रहते हैं यह 'मध्यमा' रूप है। एक - दूसरे के बारे में सोच कर खुश हो जाते हैं। एक-दूसरे के पास पार्क में बैठे हैं, न हाथ पकड़े हैं, न ऑंखों में देख रहे हैं, न गाने गा रहे हैं, बस एक दूसरे के पास बैठे हैं। लड़का पढ़ रहा है, लड़की पास में बैठी गुनगुना रही है या पक्षियों से खेल रही है या फूलों से बाते कर रही है। यह प्रेम की अभिव्यक्ति का पश्यंति रूप है। प्रेम का परा रूप वह है जो चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अमर कहानी 'उसने कहा था' में वर्णित है और जिस पर विमल रॉय ने इसी नाम से एक अद्भुत फिल्म बनायी है। ये सब सामान्य उदाहरण हैं। अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। विशेष उदाहरणों की बात करें तो परा आशीर्वाद और प्रार्थना की मौन भाषा है। पश्यंति मंत्र और तंत्र की कीलित, सांकेतिक भाषा है। मध्यमा गीत-संगीत और पेंटिंग की लयबध्द भाषा है। बैखरी साधारण बोलचाल की कामचलाऊ गद्य भाषा है। इन्सट्रूमेंटल भाषा है। भारतीय सिनेमा में वाक् के इन्हीं चार रूपों का रचनात्मक उपयोग होता है। इसीलिए फिल्म के विभिन्न दृश्यों एवं संवादों में परत दर परत, प्याज के छिलके की तरह (या गुलाब के फूलों की तरह) अर्थ छिपा रहता है। खासकर फिल्म के गीतों एवं स्वप्न दृश्यों में। फिल्म का हर पात्र एक अबूझ वाक्, एक अबूझ गीत और एक अबूझ छंद की तरह होता है। वह एक कीलित मंत्र की तरह होता है। हर पात्र के भीतर ईश्वरतत्व सुप्त होता है। उसकी कुंडलिनी जब जागती है तो उसके व्यक्तित्व की साधारणता पिघल जाती है। हर विष्णु के भीतर से एक मोहिनी और हर पार्वती के भीतर से एक काली अवतरित होती है। भगवान विष्णु के मोहिनी रूप से ज्यादा सुन्दर स्त्री की कल्पना उतनी ही मुश्किल है जितना पार्वती के काली रूप से ज्यादा वीर मर्द की कल्पना करना। यही कारण है कि भारतीय सिनेमा के ज्यादातर नायक सुकुमार एवं कोमल होते हैं जो परिस्थितयों से आसानी से विचलित हो जाते हैं जबकि अधिकांश नायिकायें बहुत मजबूत इच्छा शक्ति वाली अविष्मरणीय त्याग और उच्चतम आदर्श स्थापित करने वाली होती हैं। आज बाजार की शक्तियां भारतीय वाक् और सनातन धर्म की पारम्परिक कहानियों को हॉलीवुड प्रेरित क्षणभंगुर उपभोक्तावाद की लिप्सा, वासना, घृणा और हिंसा से बेदखल करने की असफल कोशिश कर रही हैं। लेकिन उनकी अंतिम सफलता उतनी ही मुश्किल है जितना लोकप्रिय फिल्मों के खल पात्रों की अंतिम सफलता मुश्किल होती है।

अत: भारतीय सिनेमा का समाजशास्त्री पश्चिमी सिने सिध्दांत का चाहकर भी उपयोग नहीं कर सकता। सिनेमा का तकनीक तो दोनों जगह एक ही है। शिल्प में भी समानता है लेकिन कथानक अलग हैं। दर्शक अलग हैं। दर्शकों की संस्कृति अलग हैं। उनकी अपेक्षायें अलग हैं। सिनेमा चूंकि एक खर्चीला माध्यम है अत: लेखक एवं निर्देशक की तुलना में निर्माता एवं वितरक का निर्णय ज्यादा प्रभावी होता है। हॉलीवुड में भी होता है और भारत में भी होता है। और अधिकांश निर्माता-वितरक फिल्म से मुनाफा कमाना चाहता है। अत: वह दर्शकों की अभिरूचियों को चाहकर भी नजरअंदाज नहीं कर सकता। फिल्म समीक्षकों द्वारा दर्शकों की अभिरूचियों को केवल वैचारिक आग्रह-दुराग्रह के आधार पर नजरअंदाज किया जाता है। जबकि निर्माता का निर्णय अंतत: दर्शकों की संस्कृति से निर्देशित - प्रेरित होता है। अत: हम कह सकते हैं कि नाटक मूलत: लेखक - निर्देशक का माध्यम होता है जबकि सिनेमा निर्माता-दर्शक का माध्यम बन गया है। जिसमें चाहे अनचाहे भारत के लोक और शास्त्र को पुनर्नवता मिलती है।

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