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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र
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भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र
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(ग) तीसरी श्रेणी में वे भारतीय फिल्मकार आते हैं जिन्हें मध्यमार्गी या 'मिडल ऑफ द रोड' सिनेमा का प्रवक्ता कह सकते हैं। इसमें शांताराम, मेहबूब खान, राजकपूर, बिमल रॉय, सत्यजित रे, बी. आर. चोपड़ा, गुरूदत्ता, विजय आनंद, ऋषिकेश मुखर्जी, लेख टंडन, एल. वी. प्रसाद, सत्येन बोस, गुलजार, तपन सिन्हा, श्याम बेनेगल, बासु चटर्जी, अरूण कौल, सई परांजपे, राजश्री प्रोडक्शंस, प्रसाद प्रोडक्शंस, जेमिनी, ए. वी. एम की ज्यादातर फिल्में आयेंगी। इसमें मनोज कुमार, दुलाल गुहा, एम. एस. सथ्यु, के. विश्वनाथ, मुजफ्फरअली, सागर सरहदी, शेखर कपूर, सूरज बड़जात्या, प्रकाश झा, राजकुमार हीरानी, आदि की भी चर्चा की जा सकती है। इनकी फिल्मों में लोक और शास्त्र का फैशनेबुल कॉकटेल होता है। उपरोक्त तीनों तरह के फिल्मकार भारतीय हैं लेकिन इनकी फिल्मों में भारत की अलग-अगर तस्वीर है। इनमें अलग-अलग तरह की ''भारतीयता'' है। भारतीयता कोई ठोस, एकहरी विचारधारा न होकर एक दृष्टि कोण है जो विविध रूप-रंग एवं मिजाज में व्यक्त होती रही है। अपनी इसी जीवन्त भारतीयता के कारण ये फिल्मकार लोक में प्रिय एवं स्थापित होते रहे हैं।
एक चौथा वर्ग उन फिल्मकारों का है जिनको समानांतर सिनेमा या नया सिनेमा आंदोलन से जोड़ा जाता है। जन्म से तो ये लोग भी भारतीय फिल्मकार हैं लेकिन इनमें से अधिकांश लोग पश्चिम के सिनेमावादी आंदोलन से प्रेरित रहे हैं और भारतीय कहलाने में सामान्यत: शर्म महसूस करते हैं। ये अपने को पारम्परिक फिल्मकार नहीं मानते। इनकी नजर में ये मौलिक फिल्मकार हैं। सामान्यत: इनकी फिल्में जनता की समझ में नहीं आतीं टीमवर्क के कारण अपवाद स्वरूप इनकी एकाध फिल्में लोकप्रिय भी हो जाती हैं लेकिन अपने साक्षात्कारों में ये लोग अपनी इन लोकप्रिय फिल्मों पर गर्व नहीं करते बल्कि अपनी असफल फिल्मों पर गर्व करके दर्शकों को कोसते रहते हैं। जनता इनकी फिल्मों में अपनापन नहीं पाती। लेकिन मीडिया के एक खास वर्ग में इनको बहुत तरजीह दी जाती है। इनको महान फिल्मकार माना जाता है। पश्चिम में भी इनको अपना आदमी माना जाता है। दूसरी ओर भारतीयता में रसी-पगी फिल्मों को मीडिया का उतना सहयोग नहीं मिलता।
(3) भारतीय सिनेमा एवं मीडिया समीक्षा- कुल मिलाकर भारतीय सिनेमा और प्रिंट मीडिया का प्रारंभ से ही असहज संबंध रहा है। प्रिंट टेकनॉलॉजी को भारत के मूलत: वाचिक समाज में वह महत्व कभी नहीं मिला जो सिनेमा, टेलीफोन या टेडियो, टी.वी. आदि को मिला। फलस्वरूप अंग्रेजी भाषी मीडिया समीक्षकों ने भारतीय सिनेमा के साथ हमेशा असंतुलित व्यवहार किया है। उदाहरण के लिए राजश्री वालों की 'विवाह' (2006) को मीडिया का सहयोग नही मिला। इस फिल्म को धूमधाम से प्रचारित करके रिलीज भी नहीं किया गया। फिल्म की शुरूआत बहुत अच्छी नहीं रही। परंतु धीरे-धीरे यह फिल्म लोक में प्रिय एवं स्थापित होती गई। इस फिल्म की सफलता ने साबित किया कि मीडिया की चुप्पी और असहयोग के बावजूद घटनायें घटती हैं और लोक जीवन में उन घटनाओं का महत्व स्वीकारा जाता है। मध्यवर्ग की यह मान्यता पूरी तरह सही नही है कि आजकल अधिकतर महत्त्वपूर्ण घटनायें मीडिया के लिए घटती हैं और मीडिया में घटती हैं। सच तो यही है कि मीडिया के बाहर बहुत बड़ी दुनिया है जहाँ अपनी अक्षमता के कारण मीडिया अब तक नहीं पहुँच पायी है। यदि ओम शांति ओम (2007) जैसी मीडिया हाइप भारतीय सिनेमा की एक प्रवृति है तो विवाह (2006) एवं चक दे इंडिया (2007) दूसरी ज्यादा स्वभाविक प्रवृति है।
भारतीय मान्यता है कि असली घटनायें ब्रह्मांड में घटती हैं। ब्रह्मांड में घटने वाली घटना गुमनाम मनुष्य के संकल्प से भी घट सकती है। वह एक साधारण बिना मां-बाप की लड़की और उसके सामान्य चाचा के बीच पाये जाने वाले सामान्य पारिवारिक संबंध की पवित्रता की असाधारण शक्ति के कारण सगाई जैसे साधारण रस्म एवं विवाह जैसे सामान्य संस्कार या गृहपूजा जैसे साधारण अनुष्ठान के माध्यम से भी घट सकती है और दादा साहब फालके जैसे साधारण आदमी की सामान्य इच्छा - शक्ति के कारण भी घट सकती है। औसत दर्जे की फिल्मों को मीडिया अपनी खबर में मार या जिला सकती है लेकिन मीडिया के बावजूद उत्कृष्ट फिल्मों, रचनाओं को अंतत: अपना उचित स्थान मिल ही जाता है। हर रचनाकार को, हर साधक को साधना, रियाज या रिहर्सल या जप-तप की एक सीमा पार करनी पड़ती है। एक अनुकूलतम सीमा (ऑपटिमम लेवेल) या एक दहलीज (थ्रेसहोल्ड लेवेल) तक जनसंचार के साधन (मीडिया), पूंजी एवं तकनीक (टेकनोलॉजी) के सहयोग और असहयोग से फर्क पड़ता है। लेकिन सीमा पार कर लेने के बाद चेतना (आइडिया) का लोक एवं प्रकृति से अपरोक्ष संबंध (तादात्म्य) स्थापित होने लगता है। फैन क्लब , सम्प्रदाय, आंदोलन बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। मीडिया 'आइडिया'(चेतना) के पीछे नहीं इवेन्ट (घटना) के पीछे भागती है। भारत के लोग इस सामाजिक यथार्थ को तत्व समझते हैं। त्योहार भी एक इवेन्ट (घटना) ही है। यह मत भूलें कि त्योहार में बड़ी मिहनत, उत्साह और खर्च करके मूर्ति बनायी जाती है। फिर उस मूर्ति की पूजा कर त्योहार मनाया जाता है। लेकिन त्योहार मनाने के अंतिम क्रम में भारतीय संस्कृति की पारिभाषित विशेषता प्रस्तुत् होती है। जितने उत्साह से मूर्ति बनाकर पूजी जाती है उतने ही उत्साह से विसर्जित (नदी में डुबाना) कर दी जाती है। इसका निहितार्थ यही है कि त्योहार केवल घटना भर नहीं है मूलत: चेतना ही है। भारतीय दर्शक इसे समझता है। अंग्रेजीदां समीक्षक नही समझता।
फिल्म विवाह के समकालीन टेक्सट् (पाठ) से आप पीछे जाएं तो नया दौर, शतरंज के खिलाड़ी, मेरा नाम जोकर, मदर इंडिया, सीमा, झनक झनक पायल बाजे, तीसरी कसम, जागते रहो, गाइड, उपकार , परख, दीक्षा, अनोखी रात, आराधना, आनंद, सुर संगम, अभिमान, गोदान, शोले, आंधी, मिर्च मसाला, मैंने प्यार किया, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, हम दिल दे चुके सनम, गॉड मदर, ताल, देवदास जैसी फिल्मों पर ध्यान जाता है। इन फिल्मों के खलपात्र के चरित्र या चरित्र-चित्रण में सेमेटिक या माक्र्सवादी कैनन (मूल स्थापनाओं) की स्थापना हो सकती है लेकिन इनके सामान्य पात्र या इनमें वर्णित सामान्य घटनाओं में सनातनी सत्य की स्थापना देखी जा सकती है। माक्र्सवादियों ने गोदान और दीक्षा या निशांत या मदर इंडिया जैसी फिल्मों से यश चोपड़ा की दीवार की तुलना की है। इनमें कुछ समानतायें तलाशी जा सकती हैं। इसके बावजूद इन फिल्मों के लेखन या निर्माण का उद्देश्य अलग-अलग है। दीवार एक व्यावसायिक-फार्मूला फिल्म है जिसके कुछ तत्व मदर इंडिया और कुछ तत्व गंगा जमुना से लिए गए हैं लेकिन असली कहानी मुंबई के स्मगलर हाजीमस्तान के जीवन से प्रेरित है। कहानी में स्मगलरों की दृष्टि का सहानुभूति पूर्वक चित्रण है। पटकथा की चुस्ती और निर्देशकीय कौशल से इस फीचर फिल्म में विज्ञापन फिल्मों की गुणवत्ता शामिल कर ली गई है। स्मगलरों की गौरवगाथा का विज्ञापन करती यह फिल्म शिल्प के आधार पर और दक्षता के पैमाने पर कुछ सिरफिरे समीक्षकों को कालजयी फिल्म भी दिखती है। लेकिन यह मत भूलिए कि इसको स्थापित करने में बहुत पैसा लगा है। बहुत मिहनत की गई है। बहुत मस्तिष्क लगा है। इसके बावजूद यह उसी वर्ष प्रदर्शित शोले का दर्जा हासिल नहीं कर पाई और न ही जय संतोषी माँ का। दीवार के हाइप की तुलना (2007) की फिल्म ओम शांति ओम के हाइप से की जा सकती है जबकि जय संतोषी मां की सफलता की तुलना चक दे इंडिया (2007) या विवाह (2006) से की जा सकती है। 110 करोड़ के देश में इतनी विविधता है कि देवआनंद के कलात्मक जुनून देखने के लिए छोटे शहरों के सिनेमा घरों में आज भी कुछ लोग पहुँच जाते हैं और रामसे ब्रदर्स की डरावनी हास्य फिल्मों को भी कुछ दर्शक मिल जाते हैं। महेश भट्ट और आदित्य चोपड़ा की फिल्में जिस तरह थोक के भाव से एक खास वर्ग के दर्शकों में लगातार सराही जाती हैं उसी तरह 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन की फिल्में सराही जाती थीं। इनकी लोकप्रियता नापने का कोई वस्तु-निष्ठ पैमाना तो अब तक विकसित नहीं हुआ है। जिस तरह निशांत में जमींदार है और मदर इंडिया में साहुकार उसी तरह भारतीय सिनेमा में समीक्षक - आलोचक हैं। सभी मनमानी करते हैं। भारत में आलोचकीय धर्म, अकादमिक न्याय और संस्थाबध्द समीक्षा का अभाव है। अपनी सुविधा से समीक्षक मिथक गढ़ देते हैं। समीक्षकों या मीडिया की संरचना में पारदर्शिता, जनतंत्र और बहुसांस्कृतिक रूझान का अभाव है। अंग्रेजीराज ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में जितना अहित किया उससे कहीं ज्यादा साहित्य, सिनेमा, कला, संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में अहित किया है। अंग्रेजीराज ने भारतीयों के बीच साहुकारों, जमींदारों, मठाधीशों, समीक्षकों, विद्वानों की एक नई जमात पैदा कर दी जो भारतीय होते हुए भी भारतीय लोगों से नफरत करते थे, भारतीय संस्कृति धर्म, कला, नीति, नैतिकता के विरूध्द काम करते थे लेकिन अंग्रेजीराज के हिमायती होने के कारण समाज पर गुंडागर्दी करके आम जनता को रौंदते रहते थे। 1947 के बाद भी राज्य और विश्वविद्यालय द्वारा पोषित संस्थाएँ आम जनता को ही दोषी मानती रही हैं, लेकिन भारतीय सिनेमा ने जनता को नायकत्व दिया और शासन तथा समाज पर काबिज अंग्रेजीराज के हित-चिंतन से उपजे काले अंग्रेजों की जमात को खलनायक बनाया। इसकी शुरुआत कम से कम हिन्दी में प्रेमचंद, प्रसाद और निराला की रचनाओं में हुझ्र। 1936 के बाद हिन्दी साहित्य का यह मूल स्वर हिन्दी सिनेमा में अभिव्यक्त हुआ। 1936 तक हिन्दी मूलत: स्थानीय लोकभाषा थी। हिन्दी को राष्ट्रभाषा हिन्दी सिनेमा ने बनाया जब गुजराती - भाषी मेहबूब, मराठी - भाषी शांताराम, बंगाली - भाषी बिमल रॉय, पंजाबी-भाषी चेतन आनंद, राजकपूर और बलदेवराज चोपड़ा जैसे लोगों ने एक सचेत निर्णय किया कि वे अपनी मातृभाषाओं में नहीं हिन्दी में अपनी फिल्म बनायेंगे, वह भी मुंबई जैसे मराठी क्षेत्र से, तो हिन्दी को व्यापक - राष्ट्रीय - फलक मिला।
भारत में सिनेमा हॉल की स्थिति धीरे धीरे (1913 से लेकर आजतक) हिन्दू मंदिरों के समतुल्य हो गई है। मंदिर और सिनेमाघर ठेठ भारतीय ''पब्लिक स्फ्ेयर'' या सार्वजनिक स्थान हैं जहाँ लोगों की भीड़ लगी रहती है। मंदिर या सिनेमा हॉल के प्रवेश और निकास द्वार सामान्यत: एक ही होते हैं, खासकर एकल ठठिया सिनेमा गृहों के। मंदिर और सिनेमागृह के प्रवेश एवं निकास द्वार पर भीड़ देखी जा सकती है। अंदर पहुँचने की आपाधापी, टिकट खिड़की की लंबी कतार के साथ-साथ मार-पीट या ब्लैक टिकट की खरीद-फरोख्त देखी जा सकती है। कुछ मंदिरों में सिनेमा हॉल की तरह भगवान के दर्शन के लिए श्रेणीबध्द टिकट रेट (दर) है। अत: सिनेमा का समाजशास्त्र धर्म के समाजशास्त्र से काफी कुछ सीख सकता है। भारतीय तत्वविज्ञान के अनुसार मंदिर (सिनेमागृह) विशेष परिस्थिति एवं प्रभाव उत्पन्न करता है जिसमें भगवान की लीला (संसार) का प्रतीकात्मक या लाक्षणिक वर्णन या चित्रण सुनने या देखने का अवसर मिलता है। परिस्थितियां नियति एवं नियंता (निर्देशक - लेखक) के हाथ में होती हैं लेकिन उन परिस्थितियों में हर व्यक्ति एक समान व्यवहार नहीं करता। उन परिस्थितियों का हर व्यक्ति एक समान अर्थ नहीं लगाता। हर व्यक्ति अपने स्वभाव, स्वधर्म, पृष्ठभूमि, प्रशिक्षण और इच्छा-आकांक्षा के आधार पर अर्थ लगाता है। भीड़ में भी वस्तुत: हर व्यक्ति अकेला होता है, खासकर मंदिर के अंदर या सिनेमागृह के अंदर की भीड़ में।
सिनेमागृह में फिल्म शुरू होने से पहले अंधेरा कर दिया जाता है। पश्चिम के धर्म स्थानों एवं पूर्व के भी अभारतीय धर्म स्थानों में पूजा-पाठ, प्रार्थना या अन्य कर्मकांड प्रकाश में किए जाते हैं। अत: सिनेमागृह का अंधेरा और पूजा स्थल के उजाले में एक प्रकार का प्रतिकूल संबंध माना जाता रहा है। फिल्मों के विर्मश और संस्कृति एवं धार्मिक विर्मश एवं कर्मकांड के बीच भारत के बाहर एक प्रकार का असहज संबंध रहा है। दूसरी ओर पश्चिम में विकसित सिनेमा का तकनीक एवं अंधेरे में फिल्म देखने की संस्कृति का भारतीय धर्मोपासना से 1913 से ही सहज संबंध विकसित हो गया। यह अप्रासंगिक नहीं है कि भारत की प्रथम फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द्र है और हॉलीवुड की प्रथम फिल्म दि ग्रेट ऐन रॉबरी। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि भारत के पारम्परिक हिन्दू मंदिरों के गर्भगृह में अंधेरा होता है। हिन्दू शास्त्रकारों के अनुसार गर्भगृह में इसीलिए अंधेरा होता है ताकि श्रध्दालु के भीतर आत्मप्रकाश जल सके। माँ के गर्भ की तरह या कब्र या चिता के समान गर्भगृह में जाने (बीज रूप या पिता रूप में जाने) और आने (संतान के रूप में आने) का रास्ता एक ही होता है। संसार की पहली फीचर फिल्म को फ्रांस के लोगों ने ''इंडिया सैलून'' नामक पेरिस के एक होटल के हॉल में देखा था। जिस तरह कृष्ण का जन्म कृष्ण जन्माष्टमी की कालीरात में कारागृह के अंधेरे में हुआ था, देवकी की कोख से हुआ था लेकिन वे पले - बढ़े - खेले जसोदा की गोद में ठीक उसी तरह सिनेमा जन्मा तो फ्रांस जैसे पश्चिमी यूरोपीय देशों में लेकिन पला बढ़ा अमेरिका (हॉलीवुड), चीन, जापान और भारत में।
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