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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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गांधी एवं नेहरू : एक नई दृष्टि
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गांधी एवं नेहरू : एक नई दृष्टि
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भारतीय जनसंघ को नेहरू के प्रतिद्वंदी के रूप में आलोचना करने का पूरा हक था। लेकिन एकात्म मानववाद अद्वैत वेदांत पर आधारित एक भावनात्मक - दार्शनिक विचारधारा थी। भारतीय जनसंघ की इस विचारधारा के आधार पर शासन नहीं किया जा सकता था। यह अव्यवहारिक राजनीतिक दर्शन था जिससे व्यावहारिक एजेन्डा और मेनिफेस्टो नहीं निकल सकता था। अटल बिहारी वाजपेयी इसको समझते थे। अत: जब भाजपा बनी तो उन्होंने इसकी विचारधारा को गांधीवादी समाजवाद कहा। दुर्भाग्य से उनको 1984 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या के कारण बही सहानुभूति लहर में सफलता नहीं मिली। 1985 में उन्हें भाजपा के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। 1985 से 1996 तक संघपरिवार अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना में लाल कृष्ण आडवाणी को अपना समर्थन देता रहा। गठबंधन की राजनीति के दबाव में आडवाणी को खुद अटल बिहारी वाजपेयी को आगे करना पड़ा। 1998 से 2004 तक वाजपेयी के शासन काल में एकात्म मानववाद के व्याख्याकारों ने इसे पूंजीवाद एवं साम्यवाद के बीच का तीसरा रास्ता माना है। लेकिन व्यावहारिक रूप से यह तीसरा रास्ता क्या है। इस पर अस्पष्टता आज तक बनी हुई है। यह तीसरा रास्ता तो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने भी अपने तरह से अपनाया था। महात्मा गांधी ने सभ्यतामूलक विमर्श के स्तर पर तीसरा रास्ता बनाया। जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र-राज्य के संचालन में तीसरा रास्ता अपनाया। लेकिन वे भारतीय नौकरशाही के प्रशिक्षण में तीसरा पाठयक्रम नहीं अपना सके। फलस्वरूप नेहरू के तीसरे रास्ता का अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ पाया। नेहरू राजनीतिक नेताओं के प्रशिक्षण का भी पाठयक्रम विकसित नहीं कर पाये।
उसी तरह संघ परिवार अपने प्रचारकों के लिए युगानुकूल पाठयक्रम तैयार नहीं कर पाया। मूलत: संघ के प्रचारक या तो विवेकानन्द साहित्य पढ़ते हैं या आर्यसमाजी साहित्य पढ़ते हैं। महाराष्ट्र के प्रचारक सावरकर साहित्य पढ़ते हैं। लेकिन संघ के प्रचारक हिन्दू धर्मशास्त्र एवं तंत्र साहित्य में प्रशिक्षित नहीं होते।
गृहस्थ आश्रम से संन्यासी निकलते हैं। गृहस्थ आश्रम हिन्दू धर्म का आधार है। यह वैदिक संस्था है। हिन्दू समाज का काम अद्वैत वेदांत से नहीं चलेगा। विवेकानन्द या दयानन्द हमारे आदर्श नहीं हो सकते। हमारे आदर्श रामकृष्ण परमहंस हो सकते हैं। वे गृहस्थ हैं। शाक्त हैं। शंकराचार्य ने श्री विद्या स्थापित किया। उन्होंने कभी भी मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया। कभी भी वेदों का विरोध नहीं किया। वे अलग प्रकार के अद्वैत वेदांती थे। उनकी तुलना विवेकानन्द से की जा सकती।
भाषा चाहे जो भी हो लेकिन तात्विक दृष्टि से ऋक कथ्य है, साम गीत है और यजु: काव्य है। काव्य कथ्य और गीत के बीच की चीज है। यज्ञ सनातन धर्म की कविता है। बिना वेद के हिन्दू समाज का काम नहीं चलेगा। विवेकानन्द, दयानन्द और सावरकर अपने अपने समय के योध्दा थे। उनसे हमारा काम नहीं चलेगा। वे लोग अपने युग की उपज थे। वे ईसाई मिशनरीज, मुस्लिम उलेमाओं और प्राच्यवादियों की प्रतिक्रिया स्वरूप सामने आये थे। उस वक्त उनकी उपस्थिति जरूरी थी। आज परिस्थिति बदल गई है।
असली समस्या जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी के साथ नहीं थी। असली समस्या मनमोहन सिंह एवं सोनिया गांधी के साथ है। और इनकी असफलता दरअसल संघ परिवार एवं लोहियावादियों की असफलता है। सर्वोच्च नेतृत्व का संवादी होना जरूरी है। नरसिंह राव और अटल बिहारी वजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में मौनी बाबा थे। मनमोहन सिंह भी कम बोलते हैं, और जब बोलते हैं तो गलत बोलते हैं। कभी अंग्रेजी राज की बरकतों के अनावश्यक गीत गाते हैं और कभी बोलते हैं कि हिन्दुस्तान पर पहला हक मुसलमानों का है। मनमोहन सिंह भारत में अमेरिकी लॉबी के प्रमुख व्यक्ति हैं। उनको इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ही प्रणव मुखर्जी ने रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया था। नरसिंह राव के कार्यकाल में उन्हें वित्तमंत्री बनाया गया। सोनिया गांधी के कार्यकाल में उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया। मनमोहन सिहं भारत को अमेरिकी हित के अनुरूप ढ़ाल रहे हैं। यह गांधी - नेहरू की विरासत के साथ विश्वासघात है।
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