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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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कुजात गांधीवादी लोहिया
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कुजात गांधीवादी लोहिया
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इसीलिए लोहिया कहते हैं कि आर्य, द्रविड और मंगोल भेद भारतीय संदर्भ में विदेशियों द्वारा गढ़े गए हैं। समकालीन संदर्भ में ये बिल्कुल झठे भेद हैं। इसी झूठ के सहारे हिन्दुस्तान का पूरा इतिहास, साहित्य, भूगोल और संस्कृति इत्यादि अब तक पढ़ाये जाते हैं। इससे अनर्थ हो रहा है। भारत की भाषाओं का वर्गीकरण झूठा है। तमिल का मैलम और संस्कृत - हिन्दी का मयूरम् एक ही है। 'यू' और 'ए' अथवा 'रे' और 'ल' का परिवर्तन भाषाशास्त्र का एक मान्य नियम है। केवल कुछ गिनतियों अथवा कुछ आरम्भिक शब्दों के आधार पर आर्य, द्रविड, मंगोल या आस्ट्रिक भाषाओं का बतंगड खड़ा कर देना मूर्खता है।
इसी तरह लोहिया यह भी कहते हैं कि हिन्दुस्तान में कुछ कर्मकाण्ड और कुछ ब्रहमज्ञान इस ढंग का रहा है कि जिसके परिणाम स्वरूप आज भी हजारों बरस के बाद भी अपना देश परिवर्तन नहीं कर पाता। गांधी जी ने 1908 के आसपास कहा कि हिन्दुस्तान में कोई खूबी है कि हमलोग स्थिर रहते हैं, जमें हुए रहते हैं, जल्दी किसी चीज को अपना नहीं लेते। और दूसरे लोग किसी भी हवा के तेज झोंके के साथ बह जाया करते हैं। इकबाल ने भी कहा कि यूनान, मिस्र, रोम जहां से मिट गये, बाकी बचा है हमारा हिन्दुस्तान। अत: सारे जहां से हिन्दुस्तान अच्छा है। यह भी कि कोई बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। लोहिया कहते हैं ऐसे बचने से आखिर क्या फायदा? हजार - डेढ़ हजार बरस से हिन्दू खाली नहीं दूब की तरह झूकना जानता है, दबना जानता है, मर्यादा खींचना नहीं जानता। जाने कितनी हवा के झोंके आते हैं, हम हिन्दू लोग नन्ही दूब की तरह सिर झुका कर बच जाया करते हैं। लोहिया पूछते हैं कि हिन्दुस्तान क्यों इतनी वार गुलाम हो जाता है, क्यो इतने लम्बे अरसे तक गुलाम हो जाता है। लोहिया कहते हैं कि कहीं कोई खराबी है। और लोहिया की नजर में खराबी बिल्कुल साफ है कि हम झुक जाते हैं, बहुत दबते हैं, हर चीज के साथ हम समझौता कर लेते हैं और हमारे सोचने के तरीके बहुत गंदे हो गये हैं। जब तक हम अपने सोचने के ढ़ंग को नहीं बदलेगें, तब तक अपने देश की इन कमजोरियों से छुटकारा नहीं पा सकते। लोहिया की नजर में भारतीय जड़ता की सबसे प्रमुख निशानी जाति प्रथा है। जातियों में हम लोग बंटे हुए हैं। हजारों जातियां हैं। करीब दस हजार उप-जातियां हैं। जाति एक तरह से बीमा कंपनी है। शादी, पैदाइश, मौत,बेकारी सभी मौके पर जाति काम आती है। परंतु जातियां भारत में शुरू से नहीं थीं। ऋग्वेद में केवल एक शब्द था, विश, जो उस जमाने के लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
ऐसा हो सकता है कि इन विश् लोगों में समय के अनुसार बंटवारा होता चला गया। इनसे जातियां निकलीं। इन जातियों के होने के कारण बंधाव आ गया। लोगों का मन बंध गया और हर एक आदमी अपनी जगह पर थोड़ा बहुत संतुष्ट है। वह चाहे जितना दुखी है, चाहे जितना सताया हुआ है, चाहे जितना दरिद्र है, लेकिन अपनी जगह पर सुखी है। अपने बदलाव को भी वह नहीं पसंद करता। इसके अच्छे और बुरे दोनों पक्ष हैं। अच्छा पक्ष यह है कि हमारी अपनी भाषा, हमारा अपना संगीत, हमारे अपने सोचने के तरीके, हमारा अपना दर्शन, उसी के नींव के उपर हम आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। बुरा पक्ष यह है कि यह राष्ट्रीय एकता में बाधक है। यह दूब की तरह झुक कर अस्तित्व रक्षा के लिए आत्म-समर्पण करना सिखलाता है। हिन्दुओं में तेजस्विता की कमी है।
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