Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति में रस की अवधारणा

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भारतीय संस्कृति में रस की अवधारणा

 

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भारतीय संस्कृति में 'रस' की अवधारणा का केन्द्रीय महत्त्व है। खाद्य पदार्थों - सब्जी एवं फल में रस मधुरतम तरल पदार्थ का द्योतक है। संगीत में कानों द्वारा प्राप्त आनंद का नाम रस है। आयुर्वेद में सर्वोत्कृष्ट प्राणदायिनी औषञ्यिों को 'रस' कहा जाता है। आयुर्वेद में रस - शास्त्र का अर्थ पारा आदि का संस्कार कर के चिकित्सा में प्रयोग से है, यही अर्थ उन विद्याओं का भी है जो अंग्रेजी में अल्केमी कहलाती हैं।  शरीर में जब भोजन के जल का कुछ विशेष सत्व शरीर को पोषक बनाता है, उस पोषक सत्व को भी रस कहा जाता है। रस का यह स्थूल अर्थ है। वैदिक सूत्रों में रस का सामान्य अर्थ जल है। भारतीय संस्कृति में जल को एक दैवीय माध्यम माना जाता है। सनातन पूजा पध्दति में इसीलिए जल का बारंबार प्रयोग होता है। जल जीवन का प्रतीक है। जीवन की तरह जल भी एक रहस्य माना जाता है। जल जितना व्यक्त है उससे कहीं ज्यादा अव्यक्त है। जल में हमारे अस्तित्व को पुन:सृजित करने की अथवा पुन: उत्पादित करने की क्षमता है।  अव्यक्त के भीतर व्यक्त होने की जो छटपटाहट है उस प्रक्रिया को जल के बिंब द्वारा, समझा जा सकता है। रस भी इसी तरह अव्यक्त को व्यक्त करता है। रस की अभिव्यक्ति द्वारा प्रत्येक रचना पुन: रचना हो जाती है। यह पुन: रचना होने की क्षमता कला और साहित्य की सबसे पहली कसौटी होती है। बार-बार देखने, पढ़ने और सुनने पर यदि रचना में कुछ नूतनता आ जाए वही अपूर्व कहलाता है। इस अपूर्व को आत्मसात् करने की प्रक्रिया ही रस है।
भारतीय संस्कृति में रस का एक दूसरा अर्थ भी है। रस का दूसरा अर्थ आसक्ति या लगाव भी है जिसे अपभ्रंश के कवियों ने अम्बण एवं अमलोनापन कहा। कहीं न कहीं जीव की रसना में यह आसक्ति या अम्बन लगा रहता है। यह लगाव आसानी से नहीं छूटता। इन सब प्रचलित अर्थों को भरत मुनि ने रस की अवधारणा के अंतर्गत व्यवस्थित रूप से शामिल किया। नाटयशास्त्र में भरत मुनि ने स्थापना दी कि नाटक में रस के अलावे कोई और अन्विति है ही नहीं। इतना तक कि देश और काल की भी कोई अन्विति नहीं है। अन्विति शब्द अन्वय धातु से बना है जिसका अर्थ है एक बात की सिध्दि से दूसरी बात की सिध्दि का     संबंध। इसका दूसरा अर्थ औचित्य है। भरत मुनि के कहने का तात्पर्य यही है कि नाटक में या लीला में हर चीज की सिध्दि रस की सिध्दि के माध्यम से ही होती है। लेकिन रस की सिध्दि किसी स्थूल या व्यक्त माध्यम से नहीं होती। किसी कृत्रिम कार्य - कारण संबंध से नहीं होती। रस की उत्पत्तिा के संबंध में एक प्रकार की रहस्यमयता, अलौकिकता बनी रहती है। रस की उत्पत्तिा करीब - करीब अचानक होती है, जैसे दधि मथते - मथते मक्खन अचानक निकलता है। उसी तरह कला और साहित्य में अन्विति किसी ऐसी चीज के लिए होती है, जो पहले नहीं दिखती है। रचना प्रक्रिया से पहले अनुमान नहीं होता कि रस की उत्पत्तिा ऐसे ही होगी। रचना प्रक्रिया के दौरान अचानक रस की उत्पत्तिा हो जाती है। रस काव्य के लिए तो गौणरूप है लेकिन नाटय के लिए आवश्यक है। हमारा रंगमंच प्रतीकात्मक रहा है। नाटक की प्रस्तुति प्रतीकों के द्वारा की जाती है। ऐसे प्रतीकों के द्वारा जिसके बारे में लोगों को पहले से जानकारी होती है इसके बारे में लोकसंस्कृति में शिक्षा मिलती रहती है। भारत में यथार्थवादी नाटक या कला की परंपरा नहीं रही है। कला प्रतीकात्मक और सांकेतिक ही रही है। इसमें अन्यथाकरण का विधान है। भ्रांतिमान अलंकार में भी  भ्रांति का बीज है, भ्रांति नहीं है। अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं परमात्मा को ही 'रस' कहा गया है। इसी प्रकार साहित्य (काव्य) के आस्वादन से प्राप्त आनंदानुभूति को ही रस कहा गया है। संक्षेप में, रस शब्द भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं सिनेमा में चरम आनंद की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति का स्वाभाविक माध्यम है।

     रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो  भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति  होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाटय की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप  अप्रमेय और अनिर्वचनीय है।

     भारत में रस सिध्दांत के प्रमुख आचार्यों में भरत मुनि, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, भोजराज, विश्वनाथ, जगन्नाथ, रामचन्द्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी एवं नगेन्द्र की गणना की जा सकती है। रस सिध्दांत के समर्थक आचार्य काव्य, नाटक या अन्य कला रूपों का लक्ष्य पाठक, श्रोता या दर्शक को आनंदानुभूति प्रदान करना स्वीकार करते हैं। आनंद की कलात्मक अनुभूति ही 'रस' है। पाठक, श्रोता या दर्शक को भावनाओं के उद्वेलन में ही आनंदानुभूति या रसानुभूति  होती  है। रस सिध्दांत के अनुसार भावों का दो रूपों में वर्गीकरण किया जाता है। (1) स्थायी भाव और (2) संचारी भाव। स्थायी भाव धीरे-धीरे विकसित होकर दीर्घकाल तक  हृदय में स्थित रहता है, जबकि संचारी भाव बिजली की तरह एकाएक प्रकाशित होकर कुछ ही क्षणों में लुप्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए प्रेम, घृणा, उत्साह आदि स्थायी भाव है, जबकि रोष, भय आदि परिस्थितियों के अनुसार संचारी या स्थायी रूप में प्रकट होते हैं। वे व्यक्ति या पदार्थ जो भावोत्तेजना के मूल कारण हैं, विभाव कहलाते हैं। विभाव के भी दो भेद माने गये हैं - आलंबन और उद्दीपन। मानव हृदय में भावनाओं का प्रस्फुटन किसी बाह्य वस्तु, दृश्य या किसी परिस्थिति-विशेष की कल्पना द्वारा ही होता है, इसी को आलंबन कहते हैं। भावोद्दीपन के लिये परिस्थितियों की अनुकूलता भी अपेक्षित है। इसी को उद्दीपन कहते हैं। जिस प्रकार वर्षा के बीच आग बुझ जाती है, ठीक वैसे ही 'उद्दीपन' की प्रतिकूलता में आलंबन का प्रभाव भी नष्ट हो सकता है। उदाहरण के लिये, रमणी की मनोरम छवि को देखकर भी श्मशान भूमि में श्रृंगार का विकास नहीं होता। जिस व्यक्ति के हृदय में आलंबन और उद्दीपन के प्रभाव से भाव की उत्पत्ति होती है, उसे आश्रय कहा जाता है। हृदयगत भावों के उद्वेलन से आश्रय की शारीरिक एवं मानसिक अवस्था में थोड़ा बहुत परिवर्तन आ जाता है, जैसे क्रोध में नेत्रों का लाल हो जाना। इस परिर्वतन के द्योतक चिन्हों को अनुभाव कहते हैं। हृदयस्थ भावों की व्यंजना अनुभावों के माध्यम से होती है।
एक ही स्थायी भाव के बीच-बीच में परिस्थिति वश अनेक भावों का भी संचार होता है। जैसे प्रेम एक स्थायी भाव है। इसके अंतर्गत हर्ष, दुख, क्षोभ, चिंता जैसी परिस्थितिजन्य संचारी भावों की अनुभूति हो सकती है। स्थायी भाव के विकास या पुष्टीकरण में उसके अनुकूल संचारियों का ही आयोजन किया जाता है। जब पाठक, श्रोता या दर्शक को स्थायी भाव की अनुभूति हो जाती है तो उसे रसानुभूति कहते हैं।

     भरत मुनि के अनुसार रस का सामान्य लक्षण तो उसका रसात्मक, आह्लादक या मनोरंजक होना है फिर भी प्रत्येक रस का स्वरूप या विशेष लक्षण उसके स्थायी भाव की प्रकृति के अनुरूप होता है। अत: जितने प्रकार के स्थायी भाव हैं, उतने ही रस हैं -

स्थायी भाव             रस
1.   रति            1.   श्रृंगार
2.   हास            2.   हास्य
3.   शोक           3.   करुण
4.   उत्साह         4.   वीर
5.   क्रोध           5.   रौद्र
6.   भय            6.   भयानक
7.   जुगुप्सा         7.   वीभत्स   
8.   विस्मय         8.   अद्भुत
9.   शांति/निर्वेद     9.   शांत 
10.  वात्सल्य        10.  वात्सल्य
11.   सख्य/मैत्री      11.   सख्य
12.  श्रध्दा/भक्ति      12.  भक्ति

भरत मुनि ने मूलत: उपरोक्त प्रथम आठ रसों की ही चर्चा की थी परंतु नवें शांत रस की चर्चा भी उनके नाटय शास्त्र में है।  भवभूति के अनुसार करूण रस ही सर्वप्रमुख रस है। दूसरी ओर, अभिनवगुप्त शांत रस को सर्वोपरि मानते हैं। इसी तरह भोजराज ने श्रृंगार रस को रस-राज घोषित किया  है।

     आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार भारत में पूर्ववर्ती काल में 'रस' शब्द का अर्थ श्रृंगार ही समझा जाता था और यद्यपि परवर्ती आचार्यों के शक्तिशाली ग्रन्थों ने इस अर्थ को बहुत कुछ दबा दिया था, पर वह बिलकुल लुप्त कभी नहीं हुआ। कवियों का एक समूह बराबर श्रृंगार रस को ही एकमात्र या प्रधान रस मानता रहा। हजारों वर्षों की सुदीर्घ परंपरा में इस समूह के कवियों की कभी भी कमी नहीं हुई।

     आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रस-निष्पत्ति की विवेचना काव्य की सौंदर्यदृष्टि के साथ-साथ लोकमंगल की दृष्टि से भी करते हैं। इसीलिए 'रस' के मूल-'भाव' क्षेत्र को वे अत्यंत पवित्र मानते हैं, क्योंकि न केवल वह सत्कर्म-प्रवर्तक है, अपितु शीलविधायक भी है। परंपरा जहाँ भाव का विचार सहृदय के वासनावासित हृदय से जोड़कर करती है, शुक्लजी वहाँ लौकिक विषय (पात्र) से जोड़कर मनोविकार के रूप में करते हैं। शुक्लजी के अनुसार काव्य-अनुभूति प्रत्यक्षानुभूति से भिन्न जाति का नहीं है, और प्रत्यक्षानुभूति में प्रभाव मनोविकार के रूप में लौकिक विषय से  ही संबध्द होता है। इसीलिए मनोविज्ञान के आलोक में भाव या मनोविकार को प्रत्ययबोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति- तीनों का गूढ़ संश्लेष कहते हैं।  शुक्लजी  मानते हैं कि ज्ञान, कर्म तथा उपासना  में सर्वोच्च स्थिति उपासना या भक्ति नामक भाव की ही है, जो धर्म की रसात्मक अनुभूति है, और धर्म अव्यक्त के सत्वरूप की व्यक्त प्रवृत्ति का ही नाम है। अभिप्राय यह है कि भाव निरूपण के मूल में उनका मनोविज्ञान तथा रूचिविशेष का द्योतक लोकमंगलवाद भी है। इस भाव के व्यष्टिगत होते हुए भी उसमें परार्थता, समष्टिगामिता के साथ-साथ परमार्थता की भी संभावना है। 'इमोशन' भाव है और 'सेंटिमेंट' स्थायी भाव। उनके अनुसार एक वस्तु या व्यक्ति के प्रति एक अवसर पर व्यक्त मनोवेग 'भाव' तथा अनेक अवसरों पर व्यक्त 'स्थायी भाव' या चिरभाव है। विशेष या निर्दिष्ट के सामने से हट जाने पर भी यदि वह मनोवेग किसी के प्रति प्रकट होने लगे तब 'स्वभाव' (शीलदशा) है। इनके अतिरिक्त लोकरक्षण तथा लोकरंजन की दृष्टि से उन्होंने 'बीजभाव' (करूणा तथा प्रेम) का भी उल्लेख किया है।

     शुक्लजी जी रस की उत्तम और मध्यम दो कोटियाँ मानते हैं - पूर्ण रसदशा और शीलदशा। जहाँ कवि, भावक और आश्रय तीनों का तादात्म्य हो, वहाँ रस की पूर्णदशा होती है और वह उत्तम कोटि का होता है । जहाँ भावक और आश्रय का तादात्म्य न हो, फलत: उसकी भावदशा अतृप्त रह जाए, वहाँ रस मध्यम कोटि का होता है। उन्होंने एक और रस की कल्पना की और उसे प्रकृत रस कहा और बताया कि प्रकृति का उद्दीपनात्मक रूप ही नहीं होता, आलंबनात्मक रूप भी होता है, जहाँ चिर साहचर्यजन्य प्रकृतिनिष्ठ वासना तृप्त होती है। जहाँ कवि प्रकृतिचित्रण को बारीकियों के साथ संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत करे, वहाँ समझना चाहिए कि प्रकृति आलंबनात्मक रूप में प्रकट हुई है।

     रस निष्पत्ति के संदर्भ में शुक्ल जी का अविस्मरणीय सिध्दांत साधारणीकरण है। कई विकल्प प्रस्तुत करते हुए शुक्ल जी ने अंतत: कहा कि साधारणीकरण आलंबन का नहीं, अपितु आलंबनत्व धर्म का होता है। कल्पना में मूर्ति तो व्यक्ति विशेष की ही आती है पर उसमें विन्यास ऐसी साधारण विशेषताओं का होता है जो सर्वसामान्य (सहृदय भावक) में समान भाव ही व्यक्त करती है।

     रस सिध्दांत में काव्य, नाटक और कला का प्रमुख तत्त्व भाव को माना जाता है। भाव की उद्दीप्ति या अभिव्यक्ति से पाठक को आनंद प्रदान करना काव्य या कला का लक्ष्य  है। पश्चिम में भी बर्क, हरमन लात्ज, जार्ज सैंटियान, कॉलिंगवुड, ई. एफ. कैरिट्ट आदि ने कला और साहित्य का मूल लक्ष्य भावों के चित्रण या उनकी अभिव्यक्ति द्वारा समाज को आनंद प्रदान करना स्वीकार किया है।

     विद्यानिवास मिश्र के अनुसार भारतीय रागबोध को समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक है। इसकी पृष्ठभूमि सर्वमयता, परस्परावलंबन और परस्पराकांक्षा की है । इसकी पृष्ठभूमि 'पर' में 'स्व' का अर्थ पाने की है। इसलिए इसमें सातत्य है, एक सामरस्य है, संगति है। संगति ही इसका मुख्य लक्ष्य है। वह संगति सबको सहज देखने से तो दिखाई पड़ती है, नहीं तो बिखराव लगता है।

    
आनंद कुमारस्वामी के अनुसार भारत में कला, साहित्य और धर्म अलग-अलग चीजें नहीं हैं। तीनों का संबंध मिथक रचना से है। मिथक का पारंपरिक अर्थ जीवन के प्रथम सत्य की साक्षात्कृति है। उस प्रथम सत्य के सबसे समीप जो भाषा हो सकती है, उसके द्वारा उसके व्यक्त करने का प्रयत्न ही 'मिथ' है।  सृष्टि का नवीनीकरण और अखण्डता की बार-बार प्राप्ति मिथों का लक्ष्य है। यही कला, साहित्य और यज्ञ का भी लक्ष्य है। किसी भी संस्कृति में टूटने और जुड़ने की क्रिया बराबर चलती रहती है। हम जो बार-बार टूटते हैं, उनके बार-बार जुड़ने का संकल्प, बार-बार जुड़ने की प्रक्रिया ही सनातन संस्कृति में जीवन कहलाता है। कला, साहित्य एवं धर्म के द्वारा इसी सत्य का बार-बार स्मरण किया जाता है और इसी की पुनर्रचना की जाती है। भारतीय कला-सृष्टि, सृष्टि की पुन: स्थापना है। सृष्टि का अनुकरण है। नव सृष्टि है, जिसको ऋग्वेद में विशेष सृष्टि कहा गया है। कला के लिए नाटय शास्त्र में अनुकीर्तन शब्द का प्रयोग हुआ है। अनुकीर्तन का अर्थ हू-ब-हू या ज्यों का त्यों नकल करना नहीं है, बल्कि सार तत्त्व को अभिव्यक्त करना है। सृष्टि के मूल रहस्य को सामने लाना है और लाने के लिए जो उपाय है, वह एक प्रकार की दूसरी सृष्टि है। भारतीय कला दर्शन में नयी उद्भावना का कोई संकल्प नहीं होता। नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में है। कला जीवन की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है। सत्य की सांकेतिक अभिव्यक्ति का माध्यम है। कला जीवन के लिए है और जीवन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए है। कला मनुष्य के जीवन के मनोमय कोष का भोजन तथा अंग है और इसीलिए वह मूलत: धार्मिक है। धार्मिक का अर्थ जीवन के ऊँचे उठने के कार्य से जुड़ा होना है। हर प्रकार के जीव एवं जीवन के साथ एकाकार होना है। जीवर के मूल स्वर, मूल भाव तथा प्रकृति के साथ एकाकार होकर उसे पुन: प्राप्त करना है। कला जीवन तथा सत्य की पुन: प्राप्ति कराने में सहायक होती है। पूरे युग की कला में एक प्रकार की विशिष्टता, एक प्रकार की छाप होती है, जो उस युग के तमाम विश्वासों, उत्सवों, उल्लासों, संघर्षों,  जीवन की तमाम आपदाओं, विपदाओं से तथा अनेक प्रकार के संचारियों और मिथकों से जुड़ी होती है। शुध्द कला दर्शन अपनी पर्याप्तता का प्रत्यय है, इसलिए भारतीय कला दर्शन अलंकार का दर्शन है। इसे कुमारस्वामी ने 'रेटॉरिक' और 'फिगर ऑफ स्पीच' कहा है। अलंकार का अर्थ पर्याप्तीकरण है; जो अपर्याप्त है, अयथेष्ट है, नाकाफी है उसको पर्याप्त बनाना। अलंकार का मूल अर्थ यही है, और इस अर्थ में जीवन में जितनी अयथेष्टता है, जितनी रिक्तता है, जहाँ-जहाँ खालीपन है, उसको भरना और भरते रहना ही कलाकार का काम है।  जो कला दर्शन इस भरने की आकांक्षा को देखता है वह पर्याप्तता और अलंकरण है। कला में अन्यथाकरण अत्यंत आवश्यक है। जहाँ से अविच्छिन्नता दिखती हो, वहाँ से देखना अन्यथाकरण है। अन्यथाकरण में वस्तु के प्राकृतिक स्वभाव का तत्त्व है।

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