Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति में रस की अवधारणा

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भारतीय संस्कृति में रस की अवधारणा

 

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विभिन्न कला व्यापार कथ्य या विन्यास की दृष्टि से अलग-अलग होते हैं, लेकिन ये सभी कला व्यापार उत्पादन सामग्री के रूप में अलग-अलग हैं, पर कौशल की एकाग्रता, आत्म विसर्जन, कला को चित् संज्ञा के रूप में  देखने और कलाकृति को जीवन के उपादान के रूप में प्रयोजित मानने के धरातल पर एक हैं।

     इस संदर्भ में अभिनवगुप्त का कहना है कि संसार वैसे तो केवल पत्थर जैसा है लेकिन  सरस्वती का तत्त्व या वाग्देवता का तत्त्व अपने रस के संसार से उसको सारवत् बनाता है। उसको सत्य प्रदान करता है। वह सत्व  उसके कुछ नया होने या कुछ अन्य होने की बेचैनी है। हर वस्तु में तथा हर जीव में एक बेचैनी है। जो  जिस स्थान पर , जिस काल में है, उसमें उससे कुछ भिन्न होने अथवा विस्थापित होने की बेचैनी होती है। बेचैनी इसलिए होती है कि वह अपने स्वरूप का अनुसंधान करना चाहता है, अपने को फिर से प्राप्त करना चाहता है। इसलिए कला सृष्टि का विकल्प नहीं है। सृष्टि का जिस रूप में अनुकरण कहा जाता है, अनुकरण भी नहीं है। सृष्टि के विरोध में भी नहीं है। कला सृष्टि को विस्थापित भी नहीं करती है। कला सृष्टि की प्राणवत्ता और सारवत्ता को रेखांकित करती है। प्रारंभ अंगों के न्यास से ही होता है। संगीत में टुकड़ों की योजना होती है। अन्य कलाओं की रचना - प्रक्रिया भी इसी तरह शुरू होती है। हर कला वह किसी लय का अनुसारी है। लय का अनुसरण करने का अर्थ ही है, एक का दूसरे में समाना। एक प्रकार का चरण-न्यास बाद वाले चरण-न्यास में समाया हुआ है। यह न्यास काफी नपा-तुला रहता है। पर यह अनायास होता है, क्योंकि तन्मयता इसमें नहीं रहती। तन्मयता रस में रहती है। रस केंद्र में है और उसमें अगर तन्मयता रहती है तो उपांग अनायास बँञ्ते चले जाते हैं। नृत्य में अनेक प्रकार से उसी संचारी के विकल्पों की आवृत्ति होती है। अभिनय भाव की प्रस्तुति होती है। अभिनय केवल किसी चेष्टा विशेष की प्रस्तुति नहीं होता। अभिनय शरीर की प्रस्तुति नहीं है बल्कि भाव की प्रस्तुति है। लेकिन भाव विषय से अपने आपको हटा देता है। विषय का एक तरह से निर्विषयीकरण करता है। विषय, विषय नहीं रह जाता। वह आत्मरूप हो जाता है। यही भाव की विशेषता होती है। जब भाव का  आवेग आता है तब विषय की ओर ध्यान नहीं रहता।

     भारतीय कला, नाटकों या फिल्मों में हम कोई नई रचना नहीं करते। हम इसका दावा नहीं करते कि हम कोई नई बात ला रहे हैं। कहानी पुरानी है, पात्र परिचित हैं, सब कुछ जाना हुआ है। हम जिस रूप में उसे ला रहे हैं वह नया है, वह अपूर्व है। यह अपूर्व शब्द कई शास्त्रों में आया है और उसका एक ही अर्थ है कि प्रत्येक कला प्रक्रिया के रूप में अपूर्व है। सिध्द वस्तु के रूप में अपूर्व नहीं है। रूपांतरण का क्षण अपूर्व है। कला विश्व का एक संक्षिप्त रूपांतर और दूसरे रूप में अपने को खोजने की तैयारी है। कला में हम जो कुछ करते हैं, सब की ओर से करते हैं और सब के लिए करते हैं। कला का उद्देश्य हमारी निजता (क्षुद्र निजता) को नष्ट करना है। जब हम कला क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो वहाँ पहले हमारी आनुष्ठानिक मृत्यु हो जाती है जब कोई सन्यास लेता है तब भी इसी तरह की अनुष्ठानिक मृत्यु हो जाती है। व्यक्ति को खुद ही अपना दाह - संस्कार करना पड़ता है। बात चाहे यज्ञ की हो, कला की हो  या पूजा की सबमें एक प्रक्रिया होती है  यजमान, कलाकार या कर्त्ता पहले अपने भीतर के संकोच शरीर को सुखाता एवं जलाता है। उसके बाद उसमें से जो ऊर्जा आएगी वह छोटी सीमा की ऊर्जा नहीं होती है। उसकी ऊर्जा देवता का साक्षात् रूप होती है। यजमान और इज्य में कोई अंतर नहीं रहता। अपने भीतर के देवत्व के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए यजमान को इज्य बनना पड़ता है। यज्ञ का आराध्य होना पड़ता है। मनुष्य का आराध्य होना पड़ता है। यह साधारणीकरण किसी पदार्थ का साधारणीकरण नहीं है। यह साधारणीकरण वृत्ति का साधारणीकरण है।
कला साधना के समय कलाकार की वृत्ति बदल जाती है। उसकी वृत्ति विराट् की ओर उन्मुख हो जाती है। कला या कोई भी अनुष्ठान जीवन का अंग है। दैनन्दिन व्यवहार का सौष्ठव अंग है  यह पराया नहीं अपना ही बिंब है। अपना ही एक ऐसा स्वरूप है जो हमको पूर्णता प्रदान करता है। कलाकार के रूप में इस संसार में हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं। हमसे कोई कुछ करा रहा है। वह जो दूसरा है, वह पर है, और श्रेष्ठतर है वही हमसे करा रहा है। हम उसके अभिकरण बन रहे हैं। हम नदी की धारा बन रहे हैं। हम नदी की धारा में चलने वाले नहीं रह जाते, धारा ही बन जाते हैं। ऐंद्रिय संसार लुप्त नहीं होता, रहता है। उससे वैराग्य नहीं होता है, उससे विराग, विशेष राग बना रहता है। विषयों के प्रति आसक्ति बनी रहती है। वह आसक्ति महा - आसक्ति होती है। कला और अध्यात्म में यही अंतर है, जब आप साञ्ना के क्षेत्र में जाते हैं तो वहाँ अनासक्ति होती है, कला में अनासक्ति नहीं होती। आसक्ति रहती है। एक महाराग छा जाता है, एक छोटा सा राग महाराग में परिवर्तित हो जाता है। इसका विषय हम स्वयं हैं। कलाकार रहता है। कला का वर्ण्य विषय रहता है। जो नहीं रहता वह है, वर्ण्य विषय के साथ निजता, आत्यंतिक निजता। इसलिए भारतीय कला, साहित्य, नृत्य में उद्दाम आवेग और संयम दोनों रहता है। पारंपरिक कला साधना कहीं न कहीं संयम से निकलती है। इसमें धारा का आवेग और तटों का संयम अपेक्षित होता है। यह साधना प्रक्रिया बड़ी कठिन होती है। लेकिन जब क्षुद्रता नहीं रहती, एक विशाल दृष्टि रहती है, तब कला साधना साध्य हो जाती है। जब लोभ नही रहता तो संयम अपने आप आ जाती है। वैष्णव कवियों ने कहा है कि भक्तकवि का संबंध संसार से छूटता है और ब्रह्मा से उसका संबंध और दृढ़ हो जाता है। संसार में रहते हुए भी वह नहीं रहता। संसार के प्रति उसकी दृष्टि में रूपांतरण हो जाता है।

     कला के प्रति हमारी जीवन-दृष्टि तीन सूत्रों में व्याख्यायित हुई है। पहला सूत्र,  सत्  एक है। एक ही अस्तित्व है। उसकी विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरा सूत्र भी इसी से निकला है, वह एक है पर वह अविभक्त होते हुए भी विभक्त भी हो सकता है। तत्त्वत: वह अविभक्त है। उसको टुकडों में बाँटा जा सकता है। खंड हैं, पर ये खंड परस्पर सापेक्ष हैं। वे साकांक्ष खंड हैं। एक-दूसरे के बिना उनकी पूरी व्याख्या नहीं होती। एक-दूसरे के कार्य में सहयोगी हैं। दूसरा सूत्र यही है कि उनकी परस्पर आबध्दता, संबध्दता रहे। तीसरा सूत्र है कि नैरंतर्य है। नाश या विध्वंस, प्रध्वंस नहीं होता। प्रलय शब्द का अर्थ विध्वंस नहीं है। संहार शब्द का अर्थ विध्वंस नहीं है। संहार शब्द का अर्थ समेटना है। वस्तुएँ बिखर जाएँ, एक-दूसरे से संबंध भूल जाएँ तो समेटना पड़ता हैं। समेटने के बाद फिर से उसको फैलाते हैं, प्रसारित करते हैं। पूर्णता को प्राप्त करने के बाद आदमी अपने लिये नहीं जीता। सबके लिए जीता है और ऐसे जीने में किसी अलग प्रकार के अभिमान के वैशिष्टय का बोध नहीं करता। वह अनुभव करता है कि यह स्वभाव है, कोई वैशिष्टय नहीं है। उसी स्वभाव को परखना ही अध्यात्म है।

वस्तुओं के स्वभाव तथा जीवधारियों के स्वभाव में कोई अंतर नहीं है। दोनों के स्वभाव एक ही हैं। उस स्वभाव से जुड़ना ही अध्यात्म है। ­भारतीय संस्कृति में ब्रह्म का परिभाषित रूप केवल आनन्द है।  वह आनन्द शरीर में ही प्रकट होता है। शरीर के रोमांच में, नीम बेहोशी में, अश्रुपात में, शरीर के ऊपर एक प्रभा मंडल  में, इन सबमें आनन्द की प्रतीति होती है। अलग से कोई आनन्द की प्रतीति नहीं होती। स्थूल शरीर में आनंद की अनुभूति होती है। स्थूल शरीर अपने आप में एक अभिकरण है। रस सबको संचारित कर रहा है। जीवन में कुछ नया होने या करने की चाह हमें संचारित कर रहा है। प्रत्येक रचना पुन: रचना हो जाती है। यह पुन: रचना होने की क्षमता भारतीय संस्कृति में कला, साहित्य या सिनेमा की पहली कसौटी है। बार-बार देखने पर, बार-बार पढ़ने पर, बार-बार सुनने पर जिसमें कुछ नूतनता आ जाए वही अपूर्व है और इस अपूर्व को आत्मसात् करने की प्रक्रिया ही रस है।

     भारतीय संस्कृति में हम कुछ भी समझना चाहें तो वाक् की अवधारणा को समझना जरूरी है। वाक् के तीन स्तर हैं। वह स्वयं सृष्टि है सृष्टि की प्रक्रिया है, शब्द है और  आख्यान है। वह देवता भी है। दूसरे शब्दों में, तमाम अवरोधों के बावजूद अव्यक्त का व्यक्त होना वाक् कहलाता है। अव्यक्त जब व्यक्त होता है तो पूरा व्यक्त नहीं होता है। कुछ अव्यक्त बना रहता है। अगर वह अव्यक्त न बना रहे तो उसके लिए एक तड़प, उसके लिए एक बेचैनी, उसको समझने के लिए एक आग्रह न हो। इसलिए कुछ न कुछ अव्यक्त बना ही रहता है। अपनी सृष्टि से मोह या सृष्टि से आसक्ति ब्रहन द्वेष कहलाता है। ब्रह्मा ने वाक् की सृष्टि की और उसके ऊपर उन्हे आसक्ति हुई। स्रष्टा को अपनी कृति से मोह न हो इस लिए सृष्टि स्वयं संहारकर्ता से कहती है कि सृष्टि को समेटो।  सृष्टि खुद स्रष्टा के हाथ बाण देती है कि अपने को समेटो। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ब्रहमा के शरीर की पूजा नहीं की जाती, उनकी मूर्ती नहीं बनायी जाती। इस आत्मग्लानि से स्रष्टा ब्रहमा संध्या की लाली में परिवर्तित हो जाता है। ऐसी बेला में परिवर्तित हो जाता है जो ध्यान की बेला बनती है, जो आत्म चिंतन की वेला बनती है।

   अव्यक्त से व्यक्त की उठी हुई पुकार ही वाक् है। वह अव्यक्त ही रस है।  उसमें जनक होने की, उत्पन्न करने की आकांक्षा होती है। जल, जल नहीं रहना चाहता है। जल चाहता है कि पृथ्वी इसमें से निकले। जल ने वहन किया है सृष्टि का। उसको रूपायित देखना चाहता है और रूपायित देखने की चाह ही वाक् है। मूल स्तर पर इसका अर्थ केवल भाषा ही नहीं है। इसलिए चाहे कोई भी रचना की जगह हो, वाक् वाक्देवि सरस्वती से जुड़ी हुई है चाहे संगीत हो, चाहे चित्रकला हो, चाहे साहित्य हो स्वयंनदी रूपा है। स्वयं सिंधु है, रसरूपा है। परंतु सरस्वती केवल रसरूप नहीं है वह प्रकाश का द्रुत होना, बहना, भी है प्रकाश को रस के रूप में परिवर्तित करना उसको स्पंद के रूप में, बहाव के रूप में लाना भी सरस्वती का ही रूप है। सरस्वती ज्योतिरूप रस है और उसकी प्रकाश की ओर, स्पंद की ओर, विमर्श की ओर यह यात्रा एक महत्त्वपूर्ण साञ्ना के क्षेत्र में होती है। साहित्य एवं कला के क्षेत्र में यह यात्रा होती है।  सरस्वती कला, साहित्य और रस की देवी है। रस सजीव है तो सम्पूर्ण जीवन उसमें ओत-प्रोत होगा और उसके बिना उसकी पूर्णता नहीं होगी।

रस निष्पत्ति

 

भरत मुनि ने नाटयशास्त्र में रस सिध्दांत के घटक तत्त्वों या अवयवों की चर्चा की है। उनका कहना है कि विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है।

रस निष्पत्ति की प्रक्रिया के बारे में भरत मुनि ने कोई सिध्दांत प्रस्तुत नहीं किया। आचार्य भट्टलोल्लट, आचार्य भट्टनायक एवं आचार्य अभिनवगुप्त ने रस निष्पत्ति की प्रक्रिया को विस्तार से समझाया है।

आचार्य भट्टलोल्लट ने रस-निष्पत्ति की तीन प्रक्रियाओं की चर्चा की है - (क) उत्पत्ति (ख) प्रतीति (ग) पुष्टि। उनका कहना है कि विभावों के स्थायी भाव से संयोग के उपरांत उत्पत्ति की प्रक्रिया शुरू होती है। इसी तरह अनुभावों के स्थायी भाव से संयोग के उपरांत प्रतीति की प्रक्रिया एवं संचारी भावों के स्थायी भाव से संयोग से पुष्टि की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।

    
संचारी भाव  स्थायी भाव के साथ संस्कार रूप में ही रहते हैं। जब स्थायी भाव उद्बुध्द या जाग्रत होता है तब परिस्थिति भेद के अनुसार वह नाना रूपों में व्यक्त होता है। स्थायी प्रेम की अभिव्यक्ति नाना प्रकार के संचारी भावों में हो सकती है। जैसे हर्ष, शोक, क्रोध ईष्या, करुणा। वस्तुत: स्थायी भाव का उद्‍बोधन ही संचारी भावों के माध्यम से होता है।

     रस की निष्पत्ति नाटक/काव्य की पटकथा (कलात्मक रूप) के मूल पात्रों में ही संभव है। अभिनेता या अभिनेत्रियाँ तो उसकी केवल अनुकृति मात्र प्रस्तुत करते हैं। शकुन्तला नाटक में प्रणय के स्थायी भाव की वास्तविक अनुभूति तो मूल पात्रों दुष्यन्त और शकुन्तला को हुई थी। नाटक में अभिनय करने वाले दुष्यन्त और शकुन्तला परस्पर वास्तविक प्रेम का अनुभव नहीं करते अपितु उसका केवल अभिनय करते हैं। दर्शक भी अभिनेता, अभिनेत्रियों में नाटकीय पात्रों के अनुरूप अभिनय को देखकर ही प्रेम की प्रतीति करते हैं। इसे तद्रूपतानुसंधान-प्रतीति का सिध्दांत कहा जाता है।
इस सिध्दांत के अनुसार स्थायी भाव लौकिक अनुभूति है जबकि रस कलाजन्य अनुभूति है।

रस-निष्पत्ति की तीन प्रक्रियाएँ -
1) अभिधा की प्रक्रिया
2) भावकत्व की प्रक्रिया
3) भोजकत्व की प्रक्रिया

सर्वप्रथम हम काव्य के अनुशीलन द्वारा उसका अर्थबोध करते हैं। किन्तु अभिधा शक्ति के द्वारा प्राप्त अर्थ हमारे भौतिक ज्ञान के स्तर तक ही सीमित रहता है। जब अर्थबोध के अनन्तर काव्यगत वस्तु हमारे हृदय में भी भावना या अनुभूति का उद्वेलन करने लगे तो इस स्थिति को भावकत्व की प्रक्रिया कहते हैं। भावकत्व के अनन्तर भोजकत्व की स्थिति आती है जब हमारी काव्यजन्य अनुभूतियाँ अपनी लौकिक सीमाओं से मुक्त होकर आनंद में परिणत हो जाती है।

     जब काव्यगत अनुभूतियाँ व्यक्ति-विशेष तक सीमित न रहकर सर्वसाधारण तक व्याप्त हो जाती हैं तो उसको साधारणीकरण या तादात्मीकरण कहते हैं। काव्य में गुण, अलंकार आदि के कारण सौंदर्य का संचार हो जाता है। यह सौंदर्य ही साधारणीकरण का मूल आधार है। नाटक में भी अभिनय कला के सौंदर्य के कारण ही साधारणीकरण होता है। साधारणीकरण का दूसरा पक्ष पाठक, श्रोता या दर्शक से संबंधित है। काव्यास्वादन के समय पाठक-दर्शक-श्रोता निज मोह-संकटता-निवारण के बाद ही साधारणीकरण में सफल हो सकता है। इसको निर्वैयक्तिकता भी कहते हैं।

     कलात्मक आस्वादन के लिए सतोगुण की सूचक तटस्थता या निर्वैयक्तिकता की आवश्यकता होती है। कवि या नाटककार की भावनाओं के साधारणीकरण के फलस्वरूप कवि और पाठक में तादात्म्य स्थापित हो जाता है। भोजकत्व का अर्थ है आनन्द की अनुभूति। रस का स्वरूप आनन्दमय है। अत: रस की अनुभूति का अर्थ है आनन्द की अनुभूति। भावकत्व की प्रक्रिया के फलस्वरूप साधारणीकरण होता है और साधारणीकरण की  चरम स्थिति रसानुभूति या आनन्दानुभूति में होती है।   

सांख्य दर्शन के आधार पर भट्टनायक ने कहा है कि हमारी आत्मा का स्वाभाविक गुण ही आनन्द है, किन्तु रजोगुण एवं तमोगुण के प्रभाव से यह आनन्द का गुण लुप्त या आवृत हो जाता है। जब कला-स्वादन या योग समाधि या किसी अन्य साञ्ना के द्वारा आत्मा  से रजोगुण एवं तमोगुण का आवरण हट जाता है, तो सत्वगुण (सतोगुण) का प्रकटीकरण सहज रूप में हो जाता है। यह सत्व गुण ही आनंद की स्थिति का द्योतक है। दूसरे शब्दों में, सतोगुण का उद्रेक ही आनन्दानुभूति का मूल आधार है। वास्तव में यह सारा संसार ही सौंदर्य से युक्त है, किन्तु हम अपनी-अपनी वैयक्तिकता की सीमाओं तथा राग-द्वेष से ग्रस्त होने के कारण निर्द्वन्द भाव से उस सौंदर्य का आस्वादन नहीं कर पाते। सौंदर्य को देखते ही हम उसे प्राप्त करने की लालसा से उद्वेलित हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप वह सौंदर्य भावना जो कि आनन्ददायिनी शक्ति से युक्त है, लुप्त हो जाती है, और हम अपनी वासनाओं, इच्छाओं और लालसाओं से पीड़ित होकर दुखी: एवं अशांत हो जाते हैं। यदि हम साहित्य, कला या लोकजीवन में तटस्थ, निर्वैयक्तिक एवं सतोगुणात्मक दृष्टिकोण विकसित करके देखें, तो समस्त संसार एक रंगमंच एवं संसार की सभी क्रियाएँ सौंदर्य की अभिव्यक्ति नजर आयेंगी।

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