भारतीय संस्कृति में रस की अवधारणा
पेज 3 साथ ही हम प्रत्येक क्षण आनन्द की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन एवं साञ्ना पध्दति में इसी स्थिति को 'आत्मानुभूति' की स्थिति कहा गया है जो कि आनन्द की चरम स्थिति है। भट्टनायक के उपरोक्त सिध्दांत मम्मट और अभिनवगुप्त की रचनाओं के आधार पर प्रस्तुत किये गये हैं) अभिनवगुप्त (10-11 वीं शताब्दी) ने भरत मुनि के नाटयशास्त्र की विस्तृत टीका के रूप में अभिनव भारती की रचना की। अभिव्यक्तिवाद नामक सिध्दांत का निरूपण इसी ग्रंथ में हुआ। इस सिध्दांत की प्रमुख स्थापनायें निम्नलिखित हैं - 1. रस नाटक या काव्य रचना का कोई एक अंग या तत्त्व नहीं है अपितु वह समस्त रचना में व्याप्त सर्वांगीण तत्त्व है। साहित्य या कला में रस का वही स्थान है जो जीवों के शरीर में प्राण का होता है। रस का संबंध नाटक या काव्य के सम्पूर्ण अर्थ से है। 2. स्थायी भाव जहाँ सामान्य जीवन की लौकिक अनुभूति है वहाँ रस की अनुभूति कला, नाटक या काव्य के माध्यम से होती है। इस में स्थायी भाव विभिन्न शैलीगत तत्त्वों से समन्वित होकर सौंदर्ययुक्त हो जाता है, जबकि स्थायी भाव साधारण शब्दावली में व्याप्त होता है। इसी तरह रस में स्थायी भाव साधारणीकृत रूप में होता है जबकि व्यावहारिक जीवन में ऐसा नहीं होता। रस का आस्वाद सदैव आनन्दमय होता है तथा रस की अनुभूति निर्विघ्न रूप में होती है। 3. किसी भी काव्य या नाटक से रस प्राप्ति में मुख्यत: तीन आधारों का योग रहता है - (क) काव्यगत आधार - जब तक काव्य या नाटक में विषयवस्तु को कलात्मक या सौंदर्ययुक्त शैली में प्रस्तुत नहीं किया जायेगा, तब तक उससे रसानुभूति संभव नहीं है। (ख) सामाजिक आधार - पाठक, श्रोता या दर्शक सामाजिक प्राणी है। किसी भी समाज में कई प्रवृत्तियों के लोग रहते हैं। अभिनवगुप्त की मान्यता है कि पाठक, श्रोता या दर्शक अपनी जन्मजात वासनाओं या सहज प्रवृत्तियों के कारण ही रसानुभूति प्राप्त करते हैं। काव्य या नाटक के आस्वादन के समय हमारी वासनाएँ और सहज प्रवृत्तियाँ प्रभावित, उद्बुध्द एवं उद्वेलित होकर व्यक्त होती है। काव्यगत पात्रों से हमारा ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जाता है कि उनके माध्यम से हम अपनी ही भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। हमारी सभी भावनाएँ किसी न किसी वासना या सहज प्रवृत्ति पर आधारित हैं। अंतत: काव्य, नाटक या कला से हमारी अपनी ही वासनाएँ या भावनाएँ अप्रत्यक्ष रूप में उद्वेलित होकर व्यक्त होती हैं। इस दृष्टि से काव्यास्वादन से प्राप्त होने वाला रस या आनन्द मूलत: हमारी अपनी ही वासनाओं, भावनाओं एवं सहज प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का आनन्द है। अभिनवगुप्त ने अरस्तू की तरह वासनाओं को दूषित या हेय नहीं मानकर उनके सामान्य रूप को स्वीकार किया है। (ग) परिस्थितिगत आधार - यदि काव्यास्वादन के समय हमारी अपनी मन:स्थितियां और परिस्थितियों अनुकूल न हुईं, तो उस स्थिति में बाधा उपस्थित करने वाली प्रतिकूल स्थितियों को अभिनवगुप्त ने 'विघ्न' की संज्ञा देते हुए उसके सात भेद बतलाये हैं - अभिनवगुप्त के लिए रस केवल काव्यगत रस ही नहीं है अपितु सभी कलाओं से प्राप्त होने वाले आनन्द का पर्याय है। कलाकृति में व्यक्त वासनाएँ एवं भावनाएँ शैली के सौंदर्य से युक्त होती हैं। दूसरे, उनका साधारणीकरण हो जाता है। इन दोनों तत्त्वों के कारण ही घृणा, भय, शोक जैसे लौकिक जीवन के कटुभाव भी कला के माध्यम से व्यक्त होकर मधुर अनुभूति या आनन्दानुभूति अथवा रसानुभूति में परिणत हो जाते हैं। भारतीय नाटय परंपरा भरत मुनि के नाटयशास्त्र में नाटक को अनुकृति मूलक काव्य माना गया है। अनुकृति का लक्ष्य है, दर्शकों के मनोगत भावों के उन्मेष द्वारा काव्यरस की प्रतीति कराना। रस की निष्पत्ति ही भारतीय नाटक का प्रधान उद्देश्य माना गया है। रस की सृष्टि ही नाटक-रचना का मुख्य उद्देश्य है। नाटक का कथानक (वस्तु) तीन प्रकार का हो सकता है। प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र। प्रख्यात कथानक किसी प्राचीन पौराणिक या ऐतिहासिक व्यक्ति से संबंधित होता है। उत्पाद्य नाटक में कवि अपनी कल्पना द्वारा पात्रों की सृष्टि करता है। वृत्ति रसानुकूल प्रभाव उत्पन्न करने के लिए वृत्तियों के प्रयोंग का विधान है। ये चार प्रकार की मानी गई है। कैशिकी, सात्वती, आरभटी और भारती। कैशिकी में नृत्य और गान अधिक होते हैं। इसमें पुरूष-स्त्री दोनों भाग लेते हैं। श्रृंगार-प्रधान नाटकों में इसी वृत्ति का उपयोग होता है। वीर, अद्भुत और भयानक के अनुकूल सात्वती वृत्ति है। आरभटी भयानक और रौद्र के लिण् अधिक अनुकूल है। इसमें छल, जादू आदि की प्रधानता होती है। भारती वृत्ति केवल भाषा-प्रयोग पर आधारित होती है। सभी रसों में इसका अनुकूल प्रयोग हो सकता है। नाटक की भाषा पात्र के अनुकूल होनी चाहिए। नृत्य के भी दो भेद हैं - तांडव और लास्य। नृत्य और गान भी रस के अनुकूल होने चाहिए। तांडव वीर-रस का और लास्य श्रृंगार रस का नृत्य है। नाटक में वीर और श्रृंगार-रस प्रधान होते हैं और अद्भुत रस नाटकीय प्रभाव की सृष्टि के लिए लाया जाता है। भारतीय नाटय परंपरा में वस्तु (कथानक), अभिनेता/अभिनेत्री, रस और संवाद चारों उपकरणों का महत्त्व है। रस की सृष्टि ही भारत में नाटय-रचना का मुख्य उद्देश्य है। नाटक की पश्चिमी एवं भारतीय परंपरा पश्चिमी परंपरा के अनुसार नाटक का प्रमुख तत्त्व 'वस्तु' अथवा नाटय-घटना है। अरस्तू के अनुसार चरित्र तो व्यक्तियों का निष्क्रिय गुण है जबकि वस्तु मानव-जीवन का सक्रिय और गतिशील रूप है। नाटय-वस्तु ही चरित्रों को प्रभावित करती है और उनको स्वरूप देती है। वस्तु अथवा नाटय-घटना ही चरित्रों के सुख-दुख का कारण होती है। चरित्र के बिना नाटक बन सकता है, परंतु वस्तु के बिना उसकी सत्ता नहीं रह सकती। नाटकीय प्रभाव, सक्रियता, चरित्रों की सजीवता और गतिशीलता के लिए वस्तु का निर्माण होता है। वस्तु नाटक का सचेतन और गतिशील आधार है। नाटकीय वस्तु अपने में पूर्ण तथा निरपेक्ष होनी चाहिए, साथ ही, उसका एक समुचित आकार अथवा विस्तार भी आवश्यक है। पश्चिमी नाटय परंपरा में त्रासदी (ट्रेजड़ी) का सबसे अधिक महत्त्व है। अरस्तू के अनुसार त्रासदी जन्य आनन्द दूषित एवं हेय वासनाओं का विरेचन या निष्कासन करता है। ए. बी. कीथ के अनुसार भारतीय नाटक यूनानी नाटकों की भाँति जन-समाज के लिए नहीं लिखे गए। उनका प्रसार जनता में नहीं हुआ। यूनानी नाटकों में वस्तु और चरित्र का यथार्थ चित्रण होता है जबकि भारतीय नाटकों की सृष्टि में भाव और रस की कलात्मक सृष्टि होती है। भारतीय नाटकों में यूनानी दु:खान्त नाटकों की भाँति ऐसी शक्तियों और स्थितियों का चित्रण नहीं किया जा सका जो स्वतंत्र हैं, और जिन पर मानव-बुध्दि का कोई वश नहीं। भारतीय नाटक आदर्शवादी कहे जा सकते हैं, जबकि यूनानी नाटय परंपरा यथार्थवादी रही है। संस्कृत नाटक में किसी सत्पुरूष का भाग्य के दुर्दमनीय चक्र में पड़कर विफलताओं से टक्कर खाना और अंत तक भटकना नहीं दिखाया गया, न उसमें किसी खल पुरूष का अंत में विजेता होना ही दिखलाया गया है। संस्कृत नाटक सदैव सुखान्त रहे हैं। केवल वीर और श्रृंगार रस की ही सृष्टि नाटक में होती है और घटना-चमत्कार की सृष्टि के लिए अद्भुत रस के प्रसंग भी आ सकते हैं। पात्रों का चरित्र-चित्रण भी रसानुगामी ही रहा है। संघर्ष की यथार्थता की अनुभूति कराने में संस्कृत नाटककार उत्सुक नहीं रहे हैं। भारत में सस्कृत नाटक की शैली का प्रभाव लगभग हमेशा बना रहा है। कीथ के अनुसार संस्कृत नाटक केवल एक अल्पसंख्यक वर्ग-विशेष की कलाभिरूचि और हास्य एवं मनोविनोद के विषय रहे हैं। उनका संबंध सामान्य भारतीय समाज से नहीं था। कीथ ने संस्कृत नाटकों की जो त्रुटियाँ दिखाई हैं उनमें अतिरंजना अधिक है और तथ्य को जानने का प्रयत्न कम। भारतीय नाटक सुखात्मक और दु:खात्मक दृश्यों के प्रदर्शन एवं निरूपण में समान अभिरूचि और सामर्थ्य रखता है। वास्तव में संस्कृत नाटक करूणा, संवेदना और जीवन-संघर्ष की भावनाओं से भरे हुए हैं। नाटक की परिसमाप्ति सुख/आनन्द में होने का कारण भारतीय नाटकों के सौंदर्यशास्त्र और शैली विज्ञान में है न कि वर्ग - विशेष की कलाभिरूचि आदि में। भारतीय दर्शन सुख और दु:ख दोनों को एक ही श्रेणी की वस्तु मानते हैं और उनमें कोई तात्त्वि अंतर नहीं देखते। काव्य और कला को भारत में आदर्शात्मक वस्तु माना जाता है, केवल जीवन की साधारण वास्तविकता (यथार्थ) की अनुकृति नहीं। मानव-जीवन की वास्तविकता और उसके अनिवार्य संघर्षों और दुखों को स्वीकारने के बावजूद भारतीय नाटककार रस को काव्य और कला की आत्मा मानते हैं और रस को अलौकिक आनन्दस्वरूप कहते हैं। रस का संबंध काव्यानुभूति और काव्य कला से है। रस की अनुभूति सुखात्मक और दुखात्मक, राम और रावण के निरूपण, सत् और असत् की अनुभूति में एक समान हो सकती है। ध्वनि-सिध्दांत के आग्रह से काव्य मात्र में रस की सत्ता सिध्द होती है। भारतीय नाटक रस या भावानुभूति को अपना मुख्य तत्त्व मानता है और चरित्र निर्देश उसके लिए अपेक्षाकृत गौण वस्तु है। वस्तु-विन्यास और भी ऊपरी तथ्य है। ठीक इसके विपरीत, पश्चिमी नाटक वस्तु या कथानक को नाटक का सर्वप्रमुख तत्त्व मानता है और चरित्र चित्रण को दूसरा स्थान देता है। रसात्मक आस्वाद या सौंदर्यबोध को पश्चिमी नाटक बहुत दिनों तक स्वतंत्र तत्त्व मानते ही नहीं थे। एक विशिष्ट आध्यात्मिक तथ्य के रूप में काव्यानुभूति तो पश्चिम के लिए और भी नयी बात है। भारतीय दृष्टि में चरित्र-चित्रण और स्वभाव निरूपण अन्तत: साञ्न ही है, साध्य नहीं।र् वत्तमान युग विज्ञान और यथार्थवाद का युग माना जाता है। फलस्वरूप कला में यथार्थवाद और वास्तविकता का प्रभाव बढ़ रहा है। भारतीय नाटक भी आज समय के अनुसार अपने स्वरूप में कुछ परिवर्तन कर रहा है। व्यवहारिक रंगमंच की दृष्टि से भारतीय नाटक और इसके विस्तार सिनेमा को पश्चिम से बहुत कुछ सीखना पड़ा है। परंतु जहाँ तक सैध्दांतिक विवेचन का प्रश्न है भारतीय आचार्यों का नाटक-संबंधी सैध्दांतिक विवेचन अनेक अंशों में आज भी मान्य और प्रामाणिक है। नाटकों में गीत-संगीत और नृत्य का उपयोग भारत में प्राचीन काल से होता रहा है। समकालीन नाटकों और सिनेमा में भी इसका सफल प्रयोग जारी है। भारतीय नाटककार नाटय-व्यापार को तीव्र और गतिशील बनाने के बहुत पक्ष में नहीं रहे हैं। वे नाटक में रमना चाहते हैं। घटनाओं में दौड़ लगाना ग्रीक नाटकों की परंपरा रही है। हॉलीवुड के सिनेमा में भी यह परंपरा जीवित है। परंतु धीरे-धीरे पश्चिमी सिनेमा और रंगमंच तथाकथित यथार्थवादी प्रस्तुति से प्रत्ययवादी (आइडिएशनल) प्रस्तुति की ओर झुक रहा है। हमारा पारंपरिक रंगमंच और मुख्यधारा वाला भारतीय सिनेमा पहले से ही प्रत्ययवादी रहा है। प्रत्ययवादी होने का अर्थ यथार्थ से विमुख होना नहीं है बल्कि यथार्थ की आत्मा को, उसके सार तत्त्व को, उसके रस को प्रभावकारी तरीकों से प्रस्तुत करना है। रस अनुभव का पारावार है और वह अपनी विलक्षणता के साथ ऐसी जगह व्यक्त होता है जहाँ कोई उसकी संभावना नहीं देखी जाती। 'बॉक्स ऑफिस हिट' या दर्शकों द्वारा अप्रत्याशित रूप एवं सहज रूप से लोकप्रिय या सराही गई ('ब्लौक ब्लस्टर्स') फिल्मों एवं नाटकों की लोकप्रियता को भी इसी अपूर्व रसानुभूति में खोजी जा सकती है। व्यावसायिक रूप से सबसे सफल या लोकप्रिय भारतीय फिल्मों में श्रृंगार रस, हास्य रस एवं वीर रस की भूमिका सर्वप्रमुख होती है। करूण एवं वात्सल्य रस की भूमिका भी अवश्य होती है। परंतु कुल मिलाकर करूण एवं वात्सल्य रसों का प्रयोग श्रृंगार, हास्य या वीर रस के कथानक को अतिक्रमण करके चरमानुभूति देने के लिए होता है। बिना वात्सल्य या करूण रस के सहयोग के श्रृंगारिक, वीर या हास्य रस वाले नायक, नायिकाओं में महाकाव्यात्मक या मिथकीय महानता आरोपित करना या उन चरित्रों को कालजयी आयाम देना संभव नहीं होता। वात्सल्य रस और करूण रस में बहुत घनिष्ठ संबंध माना जाता है। श्रृंगार रस का विकास वात्सल्य रस में होता है और वात्सल्य रस का विकास करूण रस में होता है। श्रृंगार रस एक विशेष प्रकार का रस है जो दो व्यक्तियों के प्रेम संबंध में पाया जाता है। उदाहरण के लिए, प्रेमी-प्रेमिका के बीच का प्रेम। जब श्रृंगार रस का परिवार या नातेदारी के दायरे में सामान्यीकरण हो जाता है तो उसे वात्सल्य रस कहते हैं। उदाहरण के लिए, माता-पिता का अपनी संतानों से जो प्यार होता है उसमें वात्सल्य रस होता है। वात्सल्य रस का जब पूरे समाज, संसार या ब्रह्मांड के स्तर पर सामान्यीकरण्ा होता है तो यह करूण रस हो जाता है। पश्चिमी समीक्षक कई बार यह नहीं समझ पाते कि तथाकथित फैमिलीड्ामा भारतीय सिनेमा और टेलीविजन सिरियलों में इतना लोकप्रिय क्यों है? अगर त्रासदी (पश्चिमी परंपरा का ट्रेजेडी ) भारतीय परंपरा का लोकप्रिय रूप नहीं है तो मीनाकुमारी की फिल्में और एकता कपूर के सिरियल इतना लोकप्रिय क्यों है ? इसका कारण यह है कि भारतीय दर्शक नायक - नायिका के दुख से दुखी नहीं होता बल्कि करूणावश उनके दुख को कम न कर पाने की अपनी विवशता पर रोता है। दूसरा कारण यह है कि पश्चिमी ट्रेज़डी के मूल में नायक-नायिका पाप करते हैं और अपने पाप बोध के कारण उनमें आत्मग्लानि होती है। यही उनके दुख का आधार होता है। इसके विपरीत, भारतीय नाटय या सिनेमा परंपरा में नायक-नायिका दूसरों के अपराध या पाप को स्वेच्छा से या परिस्थितिवश भोगते हुए भी अपने धर्म और आदर्श पर कायम रहते हैं। तीसरा, भारतीय रंगमंच एवं सिनेमा की परंपरा में खलनायक या खलनायिका को अंतत: हारना पड़ता है। उसकी हार के कई रूप होते हैं - कई बार उनकी मृत्यु हो जाती है, कई बार उन्हें दंड मिलता है, कई बार वे आत्मग्लानि से भर उठते हैं और वे अपना आत्म - परिष्कार कर लेते हैं। इसके बावजूद उन्हें नायकत्व नहीं मिलता। पश्चिमी प्रभाव में कुछ नये प्रयोग होते रहे हैं इसके बावजूद केवल उन्हीं प्रयोगधर्मी फिल्मों या नाटकों को सफलता मिलती है जो भारतीय मानकों पर खरे होते हैं। उदाहरण के लिए '' दिवार '' फिल्म के प्रतिनायक ( अमिताभ बच्चन ) को अंतत: मरना पड़ता है और नायक (शशि कपूर ) की ही अंतत: जीत होती है। ऐसे भी उस फिल्म का सबसे लोकप्रिय संवाद शशि कपूर द्वारा बोला गया यह वाक्य है, '' हमारे पास मां है। '' अत: दिवार की सफलता भारतीय मानक के खिलाफ जाकर नहीं हुई। इसके विपरीत भारतीय मानक के विपरीत ट्रेजड़ी किगं दिलीप कुमार भी ' दिल दिया दर्द लिया ' और आदमी जैसी फिल्मों को सफलता नहीं दिलवा सके। भारतीय मानकों पर खरी फिल्म ' सरफरोश ' चली थी, लेकिन भारतीय मानकों से भटकने पर उसी निर्देशक की फिल्म ' शिखर ' नहीं चली।
|