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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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पैगम्बर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी
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पैगम्बर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी
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समकालीन विश्व-व्यवस्था पूंजीवादी प्रजातंत्र की उत्तर- आधुनिक व्यवस्था है। इसको समझने और इसका नियमन करने में कोई भी एक विचारधारा या एक विश्वदृष्टि र्प्याप्त नहीं है। इसमें सफल होने के लिए कम से कम भारतीय संदर्भ में किसी राजनीतिक दल के सदस्यों का अपनी विचारधारा पर मुसलमानों की तरह आस्था और विश्वास (फेथ) होना चाहिए, समकालीन पूंजीवादी व्यवस्था के विश्लेषण (एनालिसिस) में मार्क्सवाद की तरह वस्तुनिष्ट दृष्टि होनी चाहिए एवं राजनीतिक अभियान की रणनीति (स्ट्रेटजी) महात्मा गांधी जैसी होनी चाहिए। विश्वग्राम एक जटिल सामाजिक व्यवस्था है। इसको समझने और बदलने के लिए मुहम्मद, मार्क्स और महात्मा तीनों से प्रेरणा लेने की आवश्यक्ता है।
आधुनिकता के दौर में पश्चिमी ईसाइयत (यूरोप और अमेरिका के ईसाई) अपने धार्मिक विश्वास (फेथ) के लिए स्वेच्छा से न जीने को तैयार है और न मरने को तैयार है। ये लोग व्यावहारिक रूप से अवसरवादी (प्रैगमेटिक) बन चुके हैं। जो लोग ईसाई मिशनरी से जुड़े हैं वे मतिभ्रम के शिकार हैं और उन्हें आधुनिकता की गिरफ्त से बचने के लिए या आधुनिकता को सीधे - सीधे स्वीकार करने में नैतिक द्वंद का सामना करना पड़ता है। जो ईसाई थियोलॉजी के विद्वान हैं वे प्रैगमेटिक हो चुके हैं। उनकी भीतरी आस्था एवं विश्वास डोल चुका है। पश्चिम में रहने वाला आम ईसाई केवल नाम का ईसाई है। वह दरअसल आधुनिकता की गिरफ्त में आकर पूरी तरह प्रैगमेटिक (अवसरवादी) हो चुका है। सच यह है कि पश्चिमी ईसाइयत को आधुनिकता ने खोखला कर दिया है। इस बात को मार्क्स, स्वामी विवेकानंद एवं महात्मा गांधी विशेष रूप से समझते थे। गांधी जानते थे कि आधुनिकता से लड़ना यूरोप और अमेरिका के ईसाइयों के बूते की चीज नहीं है। अत: वे हिन्दुओं और मुसलमानों को कम से कम भारत में संगठित करना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद भी इस्लामिक बॉडी (मुसलमानों की समाज व्यवस्था) और वेदांतिक माइन्ड (वेदांत में दीक्षित व्यक्ति) का संश्लेषण करना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद पश्चिमी विज्ञान एवं तकनीक तथा हिन्दू अध्यात्म का भी संश्लेषण करना चाहते थे। कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था। धर्म से उनका तात्पर्य मूलत: पश्चिमी ईसाइयत से ही था। इवानजेलिस्ट ईसाई प्रोटेस्टैंट ईसाईयों के बीच अल्पसंख्यक हैं।
पैगम्बर मुहम्मद की शिक्षा मनुष्य के मनोविज्ञान के आधार पर इस्लामी समाज एवं साम्राज्य बनाने की व्यावहारिक जरूरत पर आधारित थी। एक धर्म के रूप में इस्लाम एक पारंपरिक धर्म है जिसमें मुसलमानों की आस्था असंदि्ग्ध रही है परंतु एक समाज व्यवस्था के रूप में मुस्लिम समाज में काफी मतभिन्नता देखने को मिलती है। भारत के ज्यादातर मुसलमान इसी देश के वंशज हैं एवं सांस्कृतिक रूप से भारत के हिन्दुओं एवं मुसलमानों में बहुत सारी समानताएं पाई जाती हैं। यही कारण है कि महात्मा गांधी हिन्दुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त मोर्चा (ज्वाइंट फ्रंट) बनाना चाहते थे। वे हर प्रकार की परम्परा बचाना चाहते थे। इसमें ईसाई परम्परा भी शामिल है। इसीलिए वे सर्मन ऑन द माउन्ट (ईसामसीह के मूल उपदेश), जॉन रस्किन एवं लियो तॉल्सतॉय से भी प्रेरित थे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि आज ईसाई परम्परा नामक चीज यूरोप और अमेरिका में एक किताबी चीज (रिटोरिकल पैकेज) भर है। एक जिन्दा परम्परा के रूप में ईसाइयत की मृत्यु हो चुकी है। आधुनिकता ने ईसाई परम्परा को जीवित से मृत्य बना दिया है। गांधी के मरने के बाद के वर्षों में आधुनिकता और मजबूत हुई है। इसका चतुर्दिक विकास हुआ है। इस दौरान ईसाइयत के साथ - साथ हिन्दू धर्म के एक बड़े तबके को भी आधुनिकता ने अपने गिरफ्त में ले लिया है। जिस तरह अमेरिका एक प्रोटेस्टैंट ईसाई देश है उसी तरह भारत एक हिन्दू बहुल देश है। परन्तु दोनों उत्तर - आधुनिक देश भी हैं। प्रोटेस्टैंट ईसाईयों की तरह आधुनिक हिन्दू धर्म भी परिवार - केन्द्रित धर्म है। इसमें मंदिर एवं पुजारियों की भूमिका और धर्म का सामुदायिक स्वरूप गौण हो गया है। आधुनिक हिन्दू धर्म को कैथोलिक चर्च या पारंपरिक इस्लाम धर्म की तरह संगठित स्वरूप प्रदान नहीं किया जा सकता। इसमें चमत्कारिक नेतृत्व राजनीति से ही आ सकता है। इस चमत्कारिक नेतृत्व के विकास में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। महात्मा गांधी की तरह चमत्कारिक नेतृत्व हिन्दू समाज में आज भी पैदा हो सकता है, लेकिन वह नेतृत्व भी आसानी से ग्राम स्वराज की परंपरा की पुर्नस्थापना नहीं कर पायेगा। परन्तु संभावना के स्तर पर गांधीवादी विकल्प सबसे यथार्थवादी है। सौ वर्ष पहले महात्मा गांधी को यह बात समझ में आ गई थी कि मध्यम वर्गीय हिन्दू परिवारों में मुस्लिम समाज की तरह आस्था के प्रश्न पर सामुदायिक आग्रह और दृढ़ता नहीं बची है। हजार वर्षों की गुलामी में हिन्दू समाज ने पारिवारिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जिस सामाजिक युक्ति का उपयोग किया उसमें हिन्दू समाज की अवधारणा और स्वरूप समाप्त हो गया केवल हिन्दू व्यक्ति और परिवार बचा रहा। ए. के. सरण ने भी इसको बार - बार रेखांकित किया है।
आधुनिकता से लड़ने की स्थिति में फिलहाल हिन्दू वामपंथ और मुस्लिम समाज ही बचा है। महात्मा गांधी हिन्दू वामपंथ के प्रवक्ता (प्रोफेट) हैं। स्वामी विवेकानंद हिन्दू दक्षिणपंथ के प्रवक्ता (प्रोफेट) हैं। हिन्दू वामपंथ परम्परा को पुन: स्थापित (रिमेनिफेस्ट) करना चाहता है। जबकि हिन्दू दक्षिणपंथ आधुनिकता को अध्यात्मिक बना कर पूर्णता देना चाहता है। मेरी दृष्टि में हिन्दू दक्षिणपंथ ईसाईयत की तरह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है। जीत या तो राक्षसी आधुनिकता की होगी या हिन्दू वामपंथ, इस्लाम और मार्क्सवाद के संयुक्त मोर्चे की होगी। जेहादी इस्लाम और माओवाद के संयुक्त मोर्चे को भी अंतत: हारना ही है चूंकि जेहादी इस्लाम और माओवाद आधुनिकता की कोख से निकली हुई विचारधारायें हैं। पैगम्बर मुहम्मद के उपदेश और महात्मा गांधी की रणनीति अथवा कार्ल मार्क्स के विश्लेषण और महात्मा गांधी की रणनीति से ही आधुनिक पूंजीवादी प्रजातंत्र को परिमार्जित किया जा सकता है। गांधी की रणनीति के केन्द्र में सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह है। सत्याग्रह की रणनीति से ही सर्वोदय हो सकता है। सत्याग्रह की रणनीति से ही स्वराज की स्थापना हो सकती है। सत्याग्रह की रणनीति से ही सच्ची सभ्यता की स्थापना हो सकती है।
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