पैगम्बर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी
पेज 2 सनातन हिन्दू सभ्यता को विदेशी या विधर्मी लोग केवल सेना के बल पर सताते रहे हैं। सेना के अलावे सनातन हिन्दू सभ्यता को काबू में करने का कोई उपाय नहीं रहा है। हमारी सभ्यता में एक सभ्य समाज के आनंद और मंगल के लिए जरूरी सारी चीजें थीं। हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने इसी का खाका प्रस्तुत किया था। धर्मपाल ने भी इसे प्रभावी ढंग से अपनी पुस्तकों में रेखांकित किया है। लोहिया ने भी अपनी दृष्टि में इसी चीज को स्थापित किया था। सनातन भारतीय सभ्यता के केन्द्र में कृषि और शिल्प रहा है। यह मात्र जीविकोपार्जन का मामला नहीं हैं। यह सभ्यता, सत्य एवं अहिंसा को सामुदायिक स्तर पर जीने का मामला भी हैं। हिन्दू वामपंथ की गांधीवादी और लोहियावादी विचारधारा इसी सनातन जीवन दृष्टि के संरक्षण एवं संवर्धन की बात करती है। इस विचारधारा के लोग आपस में संगठित तो नहीं हैं लेकिन आज भी बहुसंख्यक हैं। 20 साल बाद स्थिति कुछ बदल सकती है। जब 18 वर्ष वाले हिन्दू युवक - युवति 38 वर्ष के हो जायेंगे और मां - बाप बन जायेंगे तब तक भारत की आधी जनसंख्या शहरों और कस्बों में रहने लगेगी। तब आधुनिक तकनीक और पूंजीवादी प्रजातंत्र का प्रभाव भारत में और बढ़ेगा। यह प्रवृत्ति भारतीय समाज और हिन्दू धर्म को गहराई में प्रभावित करेगी। इसके अपने खतरे होंगे। इसका अपना फलितार्थ होगा। परन्तु इसमें अपनी संभावना भी होगी। शहर और उद्योग केन्द्रित हिन्दू धर्म की अवधारणा सभ्यता के स्तर पर अभी पूरी तरह विकसित नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने शुरूआती कार्य किया है। लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। भारत अपने नये शुक्राचार्य का इंतजार कर रहा है। गांधी का हिन्दस्वराज भूतकाल में लौटने का कोई मेनीफेस्टो न होकर भविष्य में एक सच्ची सभ्यता के निर्माण का युटोपिया है। एक ऐसी सभ्यता जो धरती और स्वर्ग के बीच अवस्थित हो। जिसका आधर सत्य और अहिंसा हो, जिसमें पृथ्वी या ब्रहृमांड का केन्द्र मनुष्य नहीं बल्कि धर्म हो। एक ऐसी सभ्यता जिसमें मनुष्य, मनुष्येतर जीव, प्रकृति तथा ईश्वर सभी के पूर्णता प्राप्त करने की संभावना एवं व्यवस्था हो। यह ठीक है कि गांधी खुद को सबसे पहले सनातनी हिन्दू मानते थे लेकिन वे साथ - साथ यह भी कहते थे कि एक सनातनी हिन्दू के रूप में मेरा सबसे प्रमुख कर्त्तव्य अछूतोध्दार है। दूसरे स्तर पर वे अपने को भारतीय कहते थे और एक भारतीय के रूप में उनका सबसे प्रमुख कर्त्तव्य हिन्दू - मुस्लिम एकता स्थापित करना था। तीसरे स्तर पर वे खुद को एक मनुष्य कहते थे और एक मनुष्य के रूप में उनका सबसे प्रमुख कर्त्तव्य अपने पड़ोसी की सेवा करना था। इस प्रकार वे हिन्दू वामपंथ के प्रवक्ता थे। वे आधुनिक सभ्यता के आलोचक थे चूंकि उनकी नजर में यह असत्य और हिंसा पर आधारित था तथा इसमें जीवों को आत्म साक्षात्कार एवं ब्रहृम साक्षात्कार के आधार पर पूर्णता पाने का अवसर उपलब्ध नहीं था। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं था कि वे भारत की पारम्परिक सभ्यता की कमियों से वाकिफ नहीं थे। छुआछूत, हिन्दू - मुस्लिम विद्वेष एवं पड़ोसी के दुख - दर्द के प्रति विराग के भाव को वे भारतीय परम्परा से दूर करना अपना प्रमुख उद्देश्य मानते थे। परन्तु इतना अवश्य है कि वे यह मानते थे कि एक आधुनिक हिन्दू और पारम्परिक हिन्दू के बीच गुणात्मक भेद है जबकि उपरि असमानता के बावजूद हर प्रकार के पारम्परिक सभ्यता के बीच भीतरी समानता और सहधर्मिता है। आधुनिक सभ्यता के शिकार केवल हिन्दू और मुसलमान ही नहीं हैं बल्कि पश्चिम के ईसाई भी हैं। हर प्रकार के आधुनिक व्यक्ति को वे आधुनिकता का रोगी मानते थे। आज भी हिन्दस्वराज प्रासंगिक है। आज भी इसके आधार पर ग्रामीण पुनर्निर्माण या नगरीय पुनर्निर्माण हो सकता है। सत्य, अहिंसा, आत्म साक्षात्कार, ब्रहृम साक्षात्कार, सर्वोदय, ट्रष्टीशिप जैसी अवधारणायें आज भी अर्थपूर्ण एवं प्रेरणादायी है। गांधी के हिन्द स्वराज में कोई 'वाद' नहीं है जिसे मानना जरूरी है। इसमें एक सच्ची और नार्मल सभ्यता का फ़्रेमवर्क है जिसे जानना जरूरी है। गांधी आपसे गांधी बनने की उम्मीद नहीं करते हैं। हर जीव की एक प्राकृतिक हद और आध्यात्मिक ऊँचाई है। हर जीव आत्म साक्षात्कार और ब्रहृम साक्षात्कार कर सकता है।
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