भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता
भाग 1 हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने समकालीन भारत की सनातन परंपरा को अभिव्यक्त किया है। सनातन परंपरा का विस्तृत परिचय माधावाचार्य की पुस्तक सर्वदर्शन संग्रह: या भरतसिंह उपाधयाय की पुस्तक बौध्ददर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन पढ़ने से हो सकता है। इस अधयाय को पढ़ते-पढ़ते भी इसकी कुछ झलक मिल जायेगी। पारंपरिक (सनातन) जीवन दृष्टि के अनुसार इस सृष्टि में उपलब्धा हर अस्तित्ववान पदार्थ एक ही ब्रह्म का विस्तार है। पूरा का पूरा जगत् एवं संसार ब्रह्म के शरीर का विस्तार ही है। ब्रह्म की तरह यह जगत् और संसार भी शाश्वत है। सनातन है। पूरब और पश्चिम की सभ्यता उसी शाश्वत संसार की अभिव्यक्ति है। जगत् प्रकृति अथवा 'नेचर' है, संसार संस्कृति अथवा 'कल्चर' है। इस दृष्टि से ईसा, मूसा और मुहम्मद उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति थे जैसे राम, कृष्ण और बुध्द अभिव्यक्ति थे। सांप्रदायिक भेद तो इन सबों में है या था परंतु तात्तिवक भेद तो नहीं है। सनातनी दृष्टि से पश्चिम को असत्य या अशिव तो नहीं कहा जा सकता है केवल अधाूरा कहा जा सकता है। समकालीन पश्चिमी समाज ईसाई, आधुनिक एवं उत्तार-आधुनिक के साथ-साथ पैगन के रूप में कई संप्रदायों में बंटा है और उसके पास सबों को समाहित करने वाली बहुसांस्कृतिक - सभ्यतामूलक दृष्टि नहीं है। साथ ही, पश्चिम खुद को पूरब के घोर विरोधी / दूसरे धा्रुव के रूप में परिभाषित करता रहा है, पूरक इकाई के रूप में नहीं। इस पारंपरिक दृष्टि से देखने पर गांधी और कुमारस्वामी अधूरे सनातनी तो कहे जा सकते हैं चूंकि वे केवल ईसाई परंपरा को भारतीय, इस्लामिक या ग्रीक परंपरा के साथ समाहित कर पाते हैं परंतु इन्हें ईसाई कहना या अभारतीय कहना तो गलत होगा। भारतीय संदर्भ में देखें तो अधिाकांश ईसाई या मुसलमान भी सामान्यत: सनातनी जीवन जीते हैं भले हीं सनातनी जीवन दृष्टि नहीं रखते। जबकि भारत के अन्य संप्रदाय अब भी सनातनी जीवन के साथ सनातनी दृष्टि भी रखते हैं। कुमारस्वामी एवं गांधी इस अर्थ में सनातनी दृष्टि वाले हैं कि उन्हें लगता है कि एक ही सत्य की अभिव्यक्ति कई परंपराओं में हुई है। परंतु इनकी सीमा यह है कि ये लोग आधुनिक यूरोप को शैतान की रचना मानकर विरोधा करते हैं, ये पारंपरिक और आधुनिक दृष्टि के बीच समन्वय नहीं कर पाते। यह एक प्रकार की ईसाई दृष्टि कही जा सकती है। यह दृष्टि एक प्रकार की असहिष्णुता का उदाहरण है कि सत्य केवल ईश्वर द्वारा चुने हुए आस्तिक (ईसाई) समुदाय के पास है। 'अधर्म' की अवधारणा और 'शैतान की रचना' दोनों अलग-अलग प्रकार की अवधारणायें हैं। अधर्म व्यक्ति करता है। सभ्यता अधार्मिक हो ही नहीं सकती। संसार शैतान का साम्राज्य हो ही नहीं सकता। परंतु रावण की लंका भी सेमेटिक अर्थों में शैतानी साम्राज्य नहीं था। राम की अयोधया और जनक की मिथिला और रावण की लंका में संप्रदाय भेद तो है परंतु तत्व भेद नहीं है। युध्द अपने आप में अधार्मिक नहीं होते। कुछ युध्द अधार्मिक कारणों से लड़े जा सकते हैं परंतु युध्द अपने आप में ईश्वरीय लीला का ही अंग है। युध्द भी संवाद का, समन्वय का एक ऐतिहासिक रूप रहा है। प्रारब्धा और कर्म के सिध्दान्त से युध्दों के आधयात्मिक या दैवीय रूप को भी समझा जा सकता है। अत: आधुनिक पश्चिम के सुप्त दैवीय उद्देश्यों/स्वरूप को नहीं समझ पाना गांधी और कुमारस्वामी की सीमा तो है परंतु मात्र इसी कारण उन्हें अभारतीय तो नहीं कहा जा सकता। उसी तरह, ईसाई यूरोप को या बौध्द श्रीलंका को सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पाना विवेकानन्द की सीमा तो हो सकती है परंतु इसी आधार पर उन्हें आधुनिक यूरोप से जोड़कर अभारतीय तो नहीं कहा जा सकता। परंपरा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को सम्पूर्णता में समझने का एक पैराडाइम (दृष्टि) है। भारतीय परंपरा सनातन धर्म के पैगन संस्करण का ही एक जीवंत रूप है। गांधी में पैगनिज्म का सुपरिचित उदाहरण देखा जा सकता है। रामकृष्ण में इसका ज्यादा सरल एवं पारंपरिक उदाहरण देखा जा सकता है। गांधी में निवृत्तिामार्ग है, व्यक्तिगत विमुक्ति के लिए एकल साधाना है। रामकृष्ण में कुल मिलाकर प्रवृत्तिामार्ग है। सामूहिक विमुक्ति का मूलमंत्र है। महात्मा गांधी ने गीता को अपनी प्रिय पुस्तक के रूप में अकारण वरण नहीं किया था। गीता भी मूलत: एक राज्यमूलक विमर्श ही है। जबकि बाईबिल में वर्णित 'सर्मन ऑन द माउण्ट' लोकमूलक है। यह राज्यमूलक नहीं है। परंतु पोप द्वारा मान्यता प्राप्त आधिाकारिक 'बाईबल' या 'न्यू टेस्टामेंट' राज्य मूलक विमर्श बन गया है। लूथर का प्रोटेस्टैंट धर्म भी अन्तत: राज्यमूलक था। काल्विन का प्रोटेस्टैंट धर्म अवश्य लोक-मूलक रहा है। काल्विन को इस अर्थ में आधुनिकता का मुख्य पुरोहित कह सकते हैं। विलियम जेम्स जैसे आधुनिकतावादी तो बहुत बाद में आते हैं। इसके विपरीत हीगल का दर्शन राज्यमूलक था। दार्शनिक के रूप में डेकार्ट, लॉक या कान्ट राज्यमूलक नहीं सभ्यतामूलक थे या लोकमूलक थे। उत्कृष्ट साधाना केवल लोकमूलक नहीं होती, राज्यमूलक भी हो सकती है। माक्र्सवादी भी गांधी की तरह राज्यकेन्द्रित विमर्श करते रहे हैं। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में सत्तामूलक एवं सभ्यतामूलक दोनों प्रकार के विमर्शों का समन्वय देखा जा सकता है। गांधीजी में एक लोक या सभ्यतामूलक पक्ष था उसके प्रतिनिधिा विनोबा थे। गांधी में एक राज्य या सत्ता पक्ष भी था उसके प्रतिनिधिा नेहरू और लोहिया थे। समकालीन संदर्भ में महात्मा गांधी एवं स्वामी विवेकानंद के अनुयायियों के बीच आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, खगोलीकरण एवं ईसाईयत के साथ हिन्दू समाज एवं संस्कृति के पारस्परिक संबंधा के बारे में बौध्दिक विमर्श के दौरान दुर्भाग्य से कटुता एवं असहजता लगातार बढ़ती जा रही है। इससे भारत के आम आदमी को काफी दुविधा झेलनी पड़ती है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित कुछ भारतीय मूल के गांधीवादी विद्वान अमेरिका एवं बहुराष्ट्रीय निगमों को शैतानी शक्ति मानते हैं एवं पारंपरिक ईसाईयत को दैवीय शक्ति मानते हैं। माक्र्स एवं इजरायल को भी ये लोग शैतानी शक्ति मानते हैं। उनकी नजर में पूरी आधुनिक पश्चिमी सभ्यता शैतानी शक्ति की उपज है। वे मानते हैं कि काला धान और भ्रष्टाचार कोई महत्तवपूर्ण समस्या नहीं है और न इसको साधारणत: दूर ही किया जा सकता है। यह तो दूरगामी रूपांतरण्ा के बाद ही दूर किया जा सकता है, चूंकि यह सब पश्चिमी सभ्यता की नैसर्गिक उपज हैं। वे ईसाईयत को अच्छी शक्ति मानते हैं और आधुनिक पश्चिम को बुराई की शैतानी शक्ति मानते हैं। वे स्वामी विवेकानन्द को एवं भारतीय अभिजात्य वर्ग तथा आधुनिक भारतीय संस्कृति को पसन्द नहीं करते। पश्चिमी विश्वविद्यालयों में एवं पश्चिमी समाज में ईसाई समूह काफी लंबे समय से क्रियाशील रहे हैं। भले ही आज कल पश्चिमी समाज में संगठित ईसाई धर्म कोई मजबूत शक्ति नही रह गया है, परंतु वे पश्चिमी विश्वविद्यालयों की परिधिा में अब भी काफी प्रभावशाली हैं। गांधीजी पर भी मत-आरोपण (ब्रेन वाशिंग) की कई कोशिशें हुई थी, इसे स्वयं गांधीजी ने अपनी आत्मकथा एवं अन्य जगहों पर स्वीकारा है। परंतु उपरोक्त गांधीवादी विद्वान अपने विचारों एवं विश्वासों के ईसाई स्रोत के बारे में संभवत: बहुत सचेत नहीं हों। पश्चिमी आधुनिकता और इसकी उत्कट अभिव्यक्तियों (अमेरिकी सभ्यता एवं बहुराष्ट्रीय निगम) के बारे में यूरोप के कैथोलिक ईसाईयों की दृष्टि आज भी ज्यादा नहीं बदली है। पश्चिमी आधुनिकता को आज भी ये लोग शैतानी शक्तियों की रचना मानते हैं। इस दृष्टि के लोग आज भी अमेरिका को एक सभ्यता नहीं मानकर एक 'सेटलमेंट' कहते हैं। 'सेटलमेंट' (रिहायसी स्थान) कहने के पीछे तीन भाव अंतर्निहित होता है। पहला भाव यह है कि वे अमेरिका की पारंपरिक (पैगन) सभ्यता को सभ्यता नहीं मानकर बर्बरता मानते हैं। दूसरा भाव यह है कि वे कोलंबस द्वारा अमेरिका खोजे जाने के बाद पोप की प्रेरणा, सहमति एवं आज्ञा से स्पेन और पुर्तगाल के नेतृत्व में चलाये गये बर्बर साम्राज्यवादी अभियान को 'सभ्यता' फैलाने वाला अभियान मानते हैं और अमेरिकी भूमि को इस अभियान को चलाने वाले कैथोलिक ईसाईयों का रिहायसी स्थान मानते हैं। तीसरा भाव यह है कि यूरोप के कैथोलिक ईसाईयों के 'महान उद्देश्य' से किये गये भीषण एवं रक्तरंजित अभियानों के बावजूद अमेरिका को आज भी मधयकालीन यूरोपीय मानदंडों पर सभ्यता नहीं बनाया जा सका है। यूरोप के विश्वविद्यालयों में अमेरिका को इसी तर्क के आधार पर सभ्यता नहीं मानने की प्रवृत्तिा हावी रही है। देखा-देखी अन्य लोग भी इस कुतर्क को बिना सोचे-समझे मानने लगे हैं। भारत की शैक्षणिक संस्थाओं में भी मुख्य रूप से बाईबल का कैथोलिक दृष्टि से प्रभावित अनुवाद ही पढ़ा-पढ़ाया जाता है। विभिन्न प्रकार के प्रोटेस्टेन्ट संप्रदायों एवं इस्लाम और यहूदी दृष्टि वाला अनुवाद नहीं पढ़ा-पढ़ाया जाता। इस्लाम तथा यहूदी मत में बुराई की या नरकदूत (शैतान) की अवधारणा कैथोलिक अवधारणा से बहुत मामलों में समान होने पर भी कई विशिष्ट अर्थों में अलग रही है। इनके बीच सांप्रदायिक गतिरोधा एवं संघर्ष के कई कारणों में एक प्रमुख कारण यह अन्तर और इनका फलितार्थ भी रहा है। स्वामी विवेकानंद से लेकर रामस्वरूप तक अधिाकांश समकालीन हिन्दू चिंतक पुनर्जागरण (रेनेंसाँ) एवं ज्ञानोदय (एनलाइटेनमेंट) के बाद की आधुनिक यूरोप की सभ्यता से अपनापन महसूस करते हैं। इन लोगों को लगता है कि आधुनिक यूरोपीय सभ्यता का आधार मधयकालीन यूरोप की ईसाई परंपराएं नहीं हैं, बल्कि प्राचीन यूनान एवं प्राचीन रोम की पैगन परंपराएं हैं। भारत की सनातन परंपराओं एवं यूनान, रोम, मिस्र, चीन, बेबिलोन, पर्शिया (फारस) आदि की पैगन परंपराओं में समानता एवं सहधार्मिता का तथ्य अब सामान्य रूप से पूरब एवं पश्चिम दोनों जगह के विद्वान स्वीकारने लगे हैं। इन विद्वानों की दृष्टि में पुनर्जागरण एवं ज्ञानोदय के बाद आधुनिक यूरोप की ईसाई एवं गैर-ईसाई दोनों परंपराओं में लगातार रूपांतरण होता रहा है। इस रूपांतरण की अभिव्यक्ति धर्म सुधार आंदोलनों, औद्योगिक क्रांतियों एवं राजनैतिक क्रांतियों के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकि स्तरों पर होता रहा है। परंतु इसके संपूर्ण फलितार्थों को उत्तार-आधुनिक (1968 के बाद) युग से पहले पश्चिम के विद्वान स्वीकारने से बचते रहे हैं।
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