Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6

भाग 4

 

स्वामी विवेकानंद ने भी अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है कि सभी धार्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनन्त स्वरूप का सभी को ज्ञान हुआ था, अपनी भविष्य अवस्था देखी थी और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं। भेद इतना ही है कि प्राय: सभी धर्मों में, विशेषत: आजकल के, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है; वह यह है कि इस समय ये अनुभूतियाँ असंभव है; जो धर्म के प्रथम संस्थापक हैं, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ है, केवल उन थोड़े आदमियों को ही ऐसा प्रत्यक्षानुभव संभव हुआ था; अब ऐसे अनुभव के लिए रास्ता नहीं रहा, फलत: अब धर्मों पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा। विवेकानंद कहते हैं कि इसको पूरी शक्ति से अस्वीकृति करता हूँ। यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के द्वारा किसी भी विषय की किसी व्यक्ति ने कभी प्रत्यक्ष अनुभूति या उपलब्धिा प्राप्त की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिध्दांत पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि-कोटि बार उसकी उपलब्धिा की संभावना थी, बाद को भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धिा की सम्भावना रहेगी। समवर्तन ही प्रकृति का सार्वभौमिक नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है।

स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि संसार के अन्य धर्मों की तुलना में हिन्दू धर्म में एक भाव विशेष रूप से पाया जाता है। वह भाव यह है कि मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी। इस प्रकार, द्वैतवादियों के मतानुसार ब्रह्म की उपलब्धिा करना, ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म को जानना - यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है।

रामकृष्ण परमहंस ने भी पुराणों के आधार पर इसी को दूसरे तरीके से कहा है। एक पुराण के मत में श्रीकृष्ण चिदात्मा हैं और श्रीराधा चित्शक्ति। एक दूसरे पुराण में श्रीकृष्ण को ही काली और आद्याशक्ति कहा गया है। देवी पुराण के मत से काली ने ही कृष्ण का स्वरूप धारण किया है। वास्तव में ईश्वर अनंत हैं और उन तक पहुँचने के मार्ग भी अनंत हैं। जिसने यह रहस्य समझ लिया है उस पर ईश्वर की दया है। ईश्वर की कृपा हुए बिना कभी संशय दूर नहीं होता। असल बात यह है कि किसी तरह उन पर भक्ति होनी चाहिए, प्यार होना चाहिए। अनेक खबरों से क्या काम है? एक रास्ते से चलते-चलते अगर उन पर प्यार हो जाये तो काम बन गया। प्यार के होने से ही उन्हें आदमी पाता है। इसके बाद अगर जरूरत होगी तो वे समझा देंगे - सब रास्तों की खबर बतला देंगे। ईश्वर पर प्यार होने से हीं काम हुआ - तरह तरह के विचारों की क्या आवश्यकता है? आम खाने के लिए आये हो आम खाओ, कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्तो हैं, इन सब के हिसाब से क्या मतलब? हनुमान का भाव चाहिए - ''मै वार, तिथि, नक्षत्र, यह सब कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया करता हूँ''।

इस तरह हम देखते हैं कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं और स्वामी विवेकानंद के आधयात्मिक व्यावहारिकतावाद संबंधी विचारों में गहरा संबंधा है। स्वामी विवेकानंद अंग्रेजी राज को बिना नाराज किये अंग्रेजी राज द्वारा इस देश में स्थापित एवं प्रायोजित आधुनिक परिस्थितियों का सनातनी भारत के युगानुकूलन एवं विकास के लिए सदुपयोग करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक खास प्रकार की रणनीति अपनाई जिसमें भगवान बुध्द की तरह, अप्रिय एवं विवादास्पद हो सकने वाले प्रसंगों पर, मौन रहना या बिना विस्तार में गये सांकेतिक बात करना शामिल था। उनकी इस रणनीति को समझे बिना विवककानंद साहित्य को सेमेटिक धर्मग्रंथों की तरफ पाठ करने के पिछले 100 वर्षों में खतरनाक अर्थ निकाले गये हैं और विवेकानंदजी की बातों के अर्थ का अनर्थ तक किया गया है।

कुछ विवेकानंदवादी लोग भारत की गुलामी और गुलामी के दौरान भारतीय लोगों की बदहाली और भारतीय संस्कृति को पोषित करने वाली संस्थाओं एवं विशेषज्ञों के क्षरण तथा विरूपीकरण में आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की प्रतिनिधिा अंग्रेजी राज के कारनामों को बहुत सफाई से नजरंदाज कर अंतत: वर्गहितों की अप्रत्यक्ष वकालत करते नजर आते हैं। ये लोग खगोलीकरण को समर्थन देने के लिए अंग्रेजी राज के पापों को भी जाने-अनजाने आधयात्मिक तर्कबोधा से नजरअंदाज कर देना चाहते हैं।  ऐसा करके उनका उद्देश्य अंग्रेजी राज के दौरान भारतीय इतिहास को बदलना और स्वतंत्रता आंदोलन एवं महात्मा गांधी के योगदान को कम करना होता है। इसके विपरीत, महात्मा गांधी की चिन्ता सनातन भावबोधा एवं सनातन राजनैतिक अर्थशास्त्र का समन्वय करके एक ऐसी सभ्यता के विकास को संभव बनाना था जिसमें पूरब और पश्चिम दोनों जगह के आम जनों का सवर्ांगीण विकास हो परंतु वह किसी दूसरे व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या सभ्यता के साथ शोषण, लोभ, छल, हिंसा या असत्य पर  आधारित नहीं हो।

गांधी जैसे राम भक्त वैष्णव ने गीता की केन्द्रीयता अकारण नहीं स्वीकारी थी। आदि शंकराचार्य के समय से विद्वान (ज्ञानी) कहलाने या स्वीकारे जाने के लिए प्रस्थान त्रयी (ब्रह्म सूत्र, उपनिषद् एवं गीता) पर भाष्य करना आवश्यक माना जाता रहा है। अंग्रेजी राज के दौरान बंगाल के एशियाटिक सोसाइटी में विलियम जोन्स, कोलबु्रक, विलकिंस जैसे भारतविद्या (इंडोलॉजी) के झंडाबरदारों ने प्रस्थान त्रयी में से सबसे पहले ब्रह्मसूत्र को महत्तवहीन घोषित किया। फिर 9 उपनिषदों को वैकल्पिक घोषित किया। और अंत में ईसाईयों के बाइबिल और मुसलमानों के कुरान की तर्ज पर हिन्दुओं के गीता को एक पवित्र ग्रंथ के रूप में स्थापित किया। इसी काम को ईस्ट इंडिया कम्पनी की महत्तवाकांक्षी प्रकाशन योजना 'द सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट' (पूर्वी सभ्यताओं के पवित्र ग्रंथ) ने तार्किक परिणति प्रदान की। कम्पनी ने इस श्रृंखला का संपादक ऐसे व्यक्ति (मैक्समूलर) को बनाया जो न तो संस्कृत का मान्यता प्राप्त विद्वान था और न भारतीय संस्कृति का व्यवस्थित जानकार। जबकि उस वक्त यूरोप में ऐसे सैकड़ों लोग उपलब्धा थे जिन्हें संस्कृत भाषा, भारतीय दर्शन एवं सनातन परंपरा के बारे में मैक्समूलर की तुलना में ज्यादा व्यवस्थित और ज्यादा गहरी जानकारी थी। फलस्वरूप जाने अनजाने मैक्समूलर जैसे विद्वानों ने वेदों को वैदिक जनजातियों (गड़ेरिया आदि) का ऐसा गीत मान लिया जिसका केवल ऐतिहासिक विकास की प्रारंभिक, अज्ञानपूर्ण अवस्था को समझने में भाषा विज्ञान एवं इतिहास की दृष्टि से सीमित महत्तव था।

राममोहन राय से लेकर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर तक, राणाडे से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक अधिाकांश पढ़े लिखे लोगों ने वेद एवं वैदिक वाड:मय को नकार दिया। धर्म की पारंपरिक व्याख्या, इसके पारंपरिक स्वरूप और इसके पारंपरिक स्रोतों का स्थान आधुनिक यूरोप के भारतविद्याविदों के विमर्श ने ले लिया। यह मान लिया गया कि भारत के पास गर्व करने लायक केवल एक ही चीज है इसका मोक्ष प्राप्ति एवं संसारिक सुख-दुख, सफलता-असफलता, लाभ-हानि, गुलामी-स्वतंत्रता आदि को ''माया'' मानने वाला असंसारिक अधयात्म जबकि आधुनिक पश्चिम के पास है एक ऐसा विज्ञान, तकनीक, दर्शन, समाजविज्ञान एवं मानविकी जिसके आधार पर कोई भी समाज विकसित, समृध्द एवं बलशाली बन सकता है। भारतीय अधयात्म को स्थापित करने एवं समझने-समझाने के लिए शंकराचार्य को भारतीय दर्शन का इमैनुएल कैंट कहा गया है और उनके द्वारा लिखित गीता भाष्य को बाइबिल जैसा केन्द्रीय ग्रंथ घोषित कर दिया गया। फलस्वरूप अंग्रेजी ढंग़ और माधयम से पढ़े-लिखे भारतीय लोग अपनी परंपरा से विचलित होकर एक कृत्रिम बौध्दिक विमर्श में उलझने लगे। इस स्थिति से उबरने के लिए दो-तीन रास्तों की चर्चा होने लगी। इस आधार पर तीन वर्ग विकसित हुए:

(1) पहला वर्ग ऐसे भारतीयों का रहा है जिन्हें लगता है कि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो काम लायक, सुखदायक या संतोषप्रद है। जो भी अच्छा है वह या तो मधयकाल में तुर्कों, मंगोलों, अफगानों, पारसियों के संपर्क से आया है या अंग्रेजों, फ्रांसिसियों, पुर्तगालियों, जर्मनों, डचों एवं अमेरिकी प्रभाव से आया है। अत: भविष्य बनाने के लिए हमें हर हाल में पश्चिम की नकल करना पड़ेगा। कोई और रास्ता नहीं है। इस वर्ग के नायक राजा राममोहन राय, डेविड हेयर और हेनरी विवियन डिरोजियो एवं इनके अनुयायी रहे हैं। राममोहन राय के अनुयायी ब्रह्म समाज नामक संगठन में एवं डिरोजियो की शिष्य मंडली ''तरूण बंगाल'' नामक मंच तले सक्रिय रहे हैं। 1833 में राममोहन राय की मृत्यु के कुछ समय बाद ब्रह्म समाज द्वारकानाथ टैगोर के परिवार (बेटे देवेन्द्रनाथ टैगोर और पोते रवीन्द्रनाथ टैगोर) एवं केशवचंद्र सेन के अनुयायियों में बँट गया। केशवचंद्र सेन के ईसाई बन जाने के बाद साधारण ब्रह्म समाज नामक एक अलग समूह विकसित हुआ, जिसके अनुयायियों में ब्रह्मबांधाव उपाधयाय और नरेन्द्रनाथ दत्ता आदि शामिल थे। नरेन्द्रनाथ दत्ता केशवचंद्र सेन के मित्र स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में आते चले गये और बाद में स्वामी विवेकानंद कहलाये।

ब्रह्मबांधाव उपाधयाय केशवचंद्र सेन की तरह ईसाई बन गये। डिरोजियो के अधिाकांश अनुयायी ईसाई धर्म स्वीकार कर प्राचीन परंपराओं की खिल्ली उड़ाने लगे एवं सामाजिक तथा धार्मिक रीतियों की उपेक्षा करते हुए नारी शिक्षा, मद्यपान एवं गो-मांस भक्षण की वकालत करने लगे। राममोहन राय के अन्य अनुयायियों में विजयकृष्ण गोस्वामी प्रमुख थे। आरंभ में वह भी ब्रह्म समाजी थे, लेकिन बाद में वैष्णव संत बन गये। स्वदेशी आंदोलन के चार प्रमुख कर्णधार-विपिनचंद्र पाल, अश्विनीकुमार दत्ता, सतीशचंद्र मुखर्जी और मनोरंजन गुहा ठाकुर चारो विजय कृष्ण गोस्वामी के ही शिष्य थे।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर पर भी राममोहन राय का महत्तवपूर्ण प्रभाव था। भारत के माक्र्सवादियों में से अधिाकांश खुद को राममोहन राय और उनके ब्रह्म समाज आंदोलन से किसी न किसी रूप में प्रभावित मानते रहे हैं। इस वर्ग के समकालीन अनुयायियों में से अधिाकांश आजकल भारत में रहना अपनी लाचारी मानते हैं और जब भी मौका मिलता है भारत और भारतीयों को हीन एवं हीनतर कहने, लिखने एवं साबित करने में जुटे रहते हैं।

राजा राममोहन राय ने अपने दृष्टिकोण में पूर्व तथा पश्चिम के सर्वोतम विचारों का समन्वय स्थापित करना चाहा था। उन्होंने अपनी युवावस्था में वाराणसी में परंपरागत संस्कृत साहित्य तथा सभ्यता का अधययन किया। पटना में उन्होंने फारसी और अरबी विद्या का गंभीरता से अवगाहन किया। दूरवर्ती, समतल मैदानी तथा पर्वतीय भूभागों की यात्रा करके उन्होंने विभिन्न प्रांतीय संस्कृतियों, तिब्बती बौध्द धर्म तथा जैन धर्म का भी ज्ञानोपार्जन किया। आगे चलकर, उन्होंने अपने जीवन में अंग्रेजी विचारों तथा पाश्चात्य सभ्यता पर भी यथेष्ट अधिाकार प्राप्त किया। ईसाई धार्मिक साहित्य का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। जीवन के चौथे दशक में उन्होंने फारसी में लिखित ''तुहफानुल मुवाहिदीन'' (एकेश्वरवादियों को उपहार) नामक पुस्तक में यह तर्क दिया कि सभी धर्मों की स्वभाविक प्रवृत्तिा एकेश्वरवाद की ओर है, किंतु दुर्भाग्यवश लोगों ने सदा अपने विशिष्ट संप्रदाय, पूजन-विधिा तथा आचरण पर अधिाक बल दिया है जिसके कारण एक धर्म दूसरे से पृथक बन जाता है। 1815 और 1817 ई. के बीच उन्होंने ''वेदांत'' का बंगला अनुवाद तथा उसका एक संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किया। उन्होंने बताया कि विवेकहीन मूर्तिपूजा के फलस्वरूप जनसाधारण का चारित्रिक पतन हुआ है। इसलिए वे अपना कर्तव्य समझे हैं कि उसे उसके भार तथा तद्जन्य दासता से मुक्ति दिलाएं एवं उनकी सुख-समृध्दि में वृध्दि लाएं। उनके विचार से कोई भी विशेष धर्मग्रंथ त्रुटियों से रहित नहीं और यह मानव का जन्मजात अधिाकार है कि वह परंपराओं से हटकर चले, विशेषकर यदि परंपराएं ''सीधो अनैतिकता की ओर ले जाती हों और सामाजिक सुखों के मार्ग में बाधाक बनती हों।'' 1820 में उन्होंने ''यीशु के वचन'' (प्रीसेप्ट्स ऑफ जिसस) का प्रकाशन किया। इसमें उन्होंने विशिष्ट ईसाई सिध्दांतो तथा ईसाई महापुरूषों के चमत्कारिक कृत्यों की कहानियों के प्रति आस्था से यीशु के नैतिक संदेशों को पृथक किया। उनके विचार से लोगों पर ईसाई धर्म की नैतिक शिक्षा का उनके आधयात्मिक धर्मशास्त्र की अपेक्षा अधिाक प्रभाव पड़ता है। शुरू-शुरू में ईसाई धर्म प्रचारकों को राममोहन राय काफी अनुकूल लगते थे और इस अनुकूलता के बदले उन्हें सहयोग भी दिया गया। परंतु धीरे-धीरे राममोहन राय से उनका मोह भंग होने लगा। फलस्वरूप, ईसाई धर्म प्रचारकों ने साहसी धर्म विरोधिायों से संघर्ष प्रारंभ कर दिया था। 1820 और 1823 के बीच राममोहन राय ने अपनी स्थिति के पक्ष में ''ईसाई जनता के प्रति तीन अपीलें'' (एपील्स टु द क्रिस्टयन पब्लिक) प्रकाशित कीं। 1821 और 1823 के बीच ''ब्रह्म समाज'' नामक पत्रिका (ब्राह्मनिकल मैगजीन) में उन्होंने भारत की विशिष्ट परंपराओं के प्रति गहरी आस्था व्यक्त की और अपने देशवासियों की ओर से ऐसे ईसाई धर्म प्रचारकों का विरोधा किया जो निर्धान, भीरू एवं विनीत भारतवासियों का बलात् धर्म परिवर्तन करते थे तथा अपने धर्म के पक्ष में कोई विवेकपूर्ण तर्क प्रस्तुत न करके देशी धर्मों की खिल्ली उड़ाते थे। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले व्यक्तियों को सांसारिक प्रलोभन दिये जाने का भी राममोहन राय ने बाद के दिनों में विरोधा किया। परंतु अंत तक राममोहन राय ईसाई धर्म के उत्ताम स्वरूप के विरोधी न थे। वे उसे अपने देशवासियों पर अच्छा प्रभाव मानते थे। उन्होंने बंगला भाषा में बाइबिल के गॉस्पेल (सुसमाचार) का अनुवाद करने में सिरामपुर के कुछ पादरियों की कुछ सहायता भी की थी। 1830 में  उन्होंने स्कॉटिस धर्म प्रचारक डफ को नास्तिक शिक्षा के विरूधा जेहाद में भी अत्यधिाक सहायता की। धीरे-धीरे वह एक ऐसे विश्व धर्म की ओर अग्रसर हो रहे थे जो हिन्दू और ईसाई परंपराओं के एकेश्वरवादी बुध्दिवाद एवं विवेकवाद पर आधारित मानववादी धर्म होता। परंतु 1933 में उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और वे ब्रिटेन के एक ईसाई कब्रिस्तान (यूनियनिस्ट चर्च) में ही दफनाये गये जहाँ आज भी यूनियनिस्ट चर्च और ब्रह्मसमाज की सम्मिलित सभाएँ होती हैं। धीरे-धीरे ब्रह्म समाज आंदोलन विपरीत दिशाओं में विभाजित होकर बिखरने लगा।

पिछला पेज डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख अगला पेज

 

top