Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

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भाग 6

इस दृष्टि से सजग या असजग रूप से वे समर्थ रामदास की परंपरा से साम्य रखते थे। इसी के तहत उनके भाषणों में एक प्रकार का पैगन विविधाता एवं जटिल समायोजन की कलात्मक-सभ्यतामूलक युक्ति दिखती है। इसी के तहत वे कभी 'इस्लामिक बॉडी एण्ड वेदान्तिक माइन्ड' (मुसलमानी सामूहिकता एवं वैदान्तिक तत्व ज्ञान) के समन्वय की बात करने लगे, कभी भारतीय अधयात्म एवं पश्चिमी विज्ञान-तकनीक की वकालत करने लगे। कभी उनने कहा कि अपने दीन-हीन, अभागे भाई-बहनों की हमें भी उसी तरह दान एवं सेवा करनी चाहिए जिस तरह ईसाई लोग 'चैरिटी' (दान) एवं मुसलमान लोग 'जक़ात' (दान) करते हैं। कभी उनको लगता कि हमारे यहाँ के कमजोर वर्गों की उन्नति तभी होगी जब वे संस्कृत सीखेंगे और अपने भीतर की कुरीतियों एवं कुसंस्कार को दूर करेंगे।

स्वामीजी के चिन्तन में उपरोक्त चीजें प्रत्यक्ष रूप से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के विद्यालय में पढ़ने के दौरान आयीं, या साधारण ब्रह्म समाज की संगति के दौरान, या कॉलेज के दिनों में एशियाटिक सोसाइटी के भारतविदों के प्रभाव में यह ठीक से नहीं कहा जा सकता। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के चिन्तन में भी इसका असजग उद्गम या प्रेरणा खोजा जा सकता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस पर जितना प्रभाव तोता पुरी महाराज के माधयम से श्रृंगेरी मठ का था उससे कहीं अधिाक भैरवी ब्राह्मणी के माधयम से तंत्र का था। परंतु उनकी अपनी अनुभूति माँ काली की अनन्य भक्ति और अपरोक्ष साक्षात्कार से विशिष्ट बनी थी। स्वामी विवेकानंद ने कई बार स्वीकारा है कि स्वामी रामकृष्ण के जीवन में वे उनको ठीक से समझ नहीं पाये और सम्पूर्ण समर्पण नहीं कर पाये। स्वामी रामकृष्ण भक्तिमार्गी थे जबकि स्वामी विवेकानंद कर्ममार्गी थे। इस तरह स्वामी रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में थोड़ा अंतर तो अवश्य है। यह अंतर एक हद तक भारतीय परंपरा एवं भारतीय आधुनिकता के बीच का अंतर कहा जा सकता है। कुछ हद तक स्वामी विवेकानंद यूरोपीय दृष्टि वाली समाजिक सुधार एवं धर्म सुधार से प्रभावित थे। एक हद तक यह आधुनिक दृष्टि महात्मा गांधी में भी थी; परंतु स्वामी रामकृष्ण परमहंस में नहीं थी।

स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी दोनों एक अर्थ में भारत और पश्चिम के बीच समन्वय करना चाहते थे। परंतु दोनों की दृष्टि भिन्न थी। कुछ विद्वानों का कहना है कि स्वामी विवेकानंद पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान, तकनीक एवं मैनेजमेंट (व्यवस्था प्रबंधा) का भारतीय वेदान्त की जीवन दृष्टि से समन्वय करना चाहते थे जबकि आइ. जी. पटेल, श्रीअरबिंदो और कुछ अन्य लोगों का कहना रहा है कि महात्मा गांधी भारतीय तकनीक, व्यवस्था प्रबंधा एवं पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान का ईसाई समाजवादी जीवन दृष्टि एवं नैतिकता से प्रेरणा ग्रहण कर, युगानुकूलन एवं समन्वय करना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद भारत के राष्टी्रय आंदोलन के प्रति उदासीन थे जबकि महात्मा गांधी अपने समय में भारत के राष्टी्रय आंदोलन के जननायक थे। फलस्वरूप, स्वामी विवेकानंद अपने जीवन काल में उतने प्रभावी नहीं थे जितने प्रभावी महात्मा गांधी अपने जीवन काल में थे। परंतु धीरे-धीरे स्वामी विवेकानंद का प्रभाव बढ़ता गया जबकि मृत्यु के बाद भारत में महात्मा गांधी का प्रभाव घटता गया। यदि दोनों के अनुयायियों की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का समाजशास्त्रीय अधययन करें तो यह देखने में आता है कि स्वामी विवेकानंद भारतीय मधयवर्ग एवं भारतीय मूल के संपन्न तबकों में ज्यादा लोकप्रिय एवं ज्यादा प्रभावी हैं। जबकि महात्मा गांधी भारत से ज्यादा विदेशों में लोकप्रिय एवं प्रभावी हैं।

भारत की आम जनता में महात्मा गांधी के प्रति पूजा का भाव है परंतु भारत का शिक्षित एवं संपन्न मधयम वर्ग महात्मा गांधी के आर्थिक - सामाजिक एवं सभ्यतामूलक विचारों के प्रति उदासीन रहता है। स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी दोनों के विचार बहुआयामी हैं और उनका प्रभाव भी बहुआयामी है। अत: दोनों को एक-दूसरे का वैचारिक प्रतिद्वंदी नहीं माना जा सकता। दोनों में एक प्रकार की सभ्यतामूलक पूरकता है और दोनों में समान रूप से भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी दृष्टि का भाव है। परंतु दोनों की तर्क प्रणाली अलग-अलग है और दोनों के विचारों से प्रभाव ग्रहण करने वाले सामाजिक समूहों एवं समुदायों में विश्लेषण एवं अधययन की दृष्टि से अंतर करना संभव है।

उपरोक्त संदर्भ में 1906 में महात्मा गांधी ने साउथ अफी्रका में रंगभेद के खिलाफ सुविचारित आंदोलन शुरू किया। 1905-1906 में ही भारत में बंगाल विभाजन के विरोधा में स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ जिसने कांग्रेस पार्टी को अखिल भारतीय स्तर पर गरमपंथी और नरमपंथी दो समूहों में विभक्त कर दिया। गरमपंथी समूह के महानायक लोकमान्य बालगंगाधार तिलक थे और उनके प्रमुख सहयोगियों में बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय एवं श्रीअरबिन्दो घोष आदि थे। तिलक महाराज ने ''स्वराज हमारा जन्मसिध्द अधिाकार है'' जैसा नारा लगाया और गणेश महोत्सव जैसे जनभागीदारी वाले लोक त्योहार को सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन के लिए माधयम बनाया। नरमपंथी समूह के नायकों में दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोज शाह मेहता जैसे विद्वान एवं सुधारवादी लोग थे।  ये लोग अंग्रेजी राज के खिलाफ नहीं थे परंतु अंग्रेजी राज के अंतर्गत ही भारतीय लोगों के लिए ज्यादा संवैधानिक अधिाकार चाहते थे। इसके लिए ये लोग आंदोलन के बदले अंग्रेजों की नैतिकता पर भरोसा करके उनके हृदय परिवर्तन के लिए उन्हें अंग्रेजी राज के कारिंदों एवं नीतियों की त्रुटियों एवं अनैतिकता आदि के बारे में आवेदन करते रहते थे। ऐसी परिस्थिति में 1909 में हिन्द स्वराज की रचना हुई।

हिन्द स्वराज में गांधीजी ने भारत के आम आदमी, लोक संस्कृति एवं सनातनी हिन्दुओं के प्रतिनिधिा के रूप में आत्म-सजग होकर एक सैध्दान्तिक पक्ष प्रस्तुत किया है। हिन्द स्वराज लिखते वक्त भारत में बहुत कुछ वैसी ही स्थिति रही होगी, जिसकी चर्चा श्रीमद्भागवत गीता के पहले अधयाय में है जब धृतराष्ट्र संजय से कुरूक्षेत्र में आमने-सामने युध्द क़े लिए खड़ी कौरवों-पांडवों की सेना के बारे में पूछते हैं। जिस तरह गीता के पहले अधयाय के अंतर्गत श्रीकृष्ण-अर्जुन के संवाद को महाभारत के व्यापक संर्दभ से जोड़ा गया है उसी तरह हिन्द स्वराज में संपादक-पाठक संवाद को कांग्रेस पार्टी के अंतर्गत चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के वैचारिक महाभारत से जोड़ा गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय परंपरा में वेदव्यासजी वेद, पुराण, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता के संपादक ही माने गए हैं। यह माना जाता है कि वैदिक परंपरा गुरू-शिष्य परंपरा में गुरू-मुखी विद्या के रूप में हस्तांतरित होती रही है और व्यासजी ने इनका एक पुस्तक के रूप में मात्र संकलन-संपादन किया है।

यदि हिन्द स्वराज के बारे में गांधीजी के विभिन्न अवसरों पर व्यक्त विचारों का सूक्ष्म अधययन किया जाये और हिन्द स्वराज की आंतरिक संरचना पर धयान दिया जाये तो कोई शंका नहीं रह जाती कि गांधीवादियों के लिए हिन्द स्वराज महात्मा गांधी का लोक वेद भी है और लोक गीता भी। यह उनका लोकशास्त्र भी है और स्वराज शास्त्र भी। यह प्रवृत्तिा मार्ग की वकालत है। परंतु इसका ज्यादा संबंधा 'स्व' से है राज्य और उसके तंत्र से नहीं है। यह व्यक्ति के 'स्व' (आत्मा), समाज की संस्कृति एवं सभ्यता की नियति का लोक में व्याप्त एवं प्रिय शास्त्र का संकलन, संपादन का प्रतिफल है। एक पारंपरिक दस्तावेज के युगानुकूल अभिव्यक्ति का कलात्मक रूपांतरण है। भारत में पारंपरिक संप्रेषण के क्रम में मिथकों के रूपांतरण के लिए महाकाव्यों या नाटकों का उपयोग किया जाता रहा है। साथ ही लोक में पारंपरिक आख्यानों का उपयोग सामाजिक विमर्शों में नैतिक बल प्राप्त करने के लिए एवं अपने पक्ष को सत्य, न्याय एवं धर्म पर आधारित साबित करने के लिए किया जाता रहा है।

महात्मा गांधी ने भी गीता के पाठ (टेक्सट) एवं राम नाम का उपयोग नैतिक बल प्राप्त करने एवं अपने प्रयासों को सनातन धर्म के अनुकूल साबित करने के लिए किया। बिना कोई घोषणा किये उन्होंने वैष्णवों के दोनो संप्रदायों रामनामियों एवं कृष्णाश्रयियों में उसी काल खण्ड में, समन्वय का मार्ग लोकप्रिय बनाया। तिलक महाराज शैव परंपरा को संबल दे रहे थे और रामचन्द्र शुक्ल राम उपासकों की दृष्टि रखते हुए कृष्ण भक्ति के प्रति अपनी आलोचना में कटाक्ष कर रहे थे। श्रीअरबिंदो वासुदेव कृष्ण के योगी और तांत्रिक रूप से गहरे प्रेरित थे। डा0 भीमराव अंबेडकर भक्ति आन्दोलन और बौध्द परंपरा की वकालत कर रहे थे। केवल रामकृष्ण और महात्मा गांधी के पास संप्रदायनिरपेक्ष सभ्यतामूलक विमर्श निर्मित करने की आत्मसजग चेतना बार-बार दिखती है। व्यक्तिगत आस्था क्रमश: माँ काली (रामकृष्ण) एवं निर्गुण राम (महात्मा गांधी) में होने के बावजूद भाषा, तत्व-चिन्तन एवं आख्यानों के चुनाव के संदर्भ में सनातन धर्म की सभ्यतामूलक विशालता, सहिष्णुता, समन्वय दृष्टि एवं सम्पूर्ण सत्य के प्रति तादात्म्यता एवं आचार-विचार में महाकरूणा एवं अहिंसा का जैसा दर्शन इन दोनों में होता है वैसा अन्यत्र नहीं होता।

हिन्द स्वराज को बिना घोषणा किये, गांधीजी सनातन भारत की सबसे महत्तवपूर्ण गाथा महाभारत से जोड़ते हैं। अपने समय (1909) के भारत के वैचारिक संघर्ष को महाभारत के सनातनी कैनवास में प्रस्तुत करते हुए पश्चिमी सभ्यता की कठोर आलोचना प्रस्तुत करते हैं। भारत के सांस्कृतिक इतिहास से परिचित हुए बिना हिन्द स्वराज के संरचनात्मक शिल्प को समझना संभव नहीं है। यह शोधा का विषय है कि हिन्द स्वराज की प्रस्तुति का शिल्प महात्मा गांधी ने रस्किन के कला सिध्दांत से लिया या टाल्सटाय के महाकाव्यात्मक उपन्यासों से या फिर तुलसीदास से जिन्होंने वाल्मीकि रामायण के संरचनात्मक शिल्प और कथात्मक संतुलन को बिना घोषणा किये अपने रामचरित मानस में बदल दिया था और उत्तार भारत की जनता ने भी बिना घोषणा किये ही इसका लोकवेद के रूप में परायण शुरू कर दिया। जो भी हो महाभारत की कथा और गीता की संरचना से जोड़े बिना हिन्द स्वराज को समझने की हर कोशिश एक पैरोडी बन कर रह गई है। और यह स्वाभाविक परिणति है।

महाभारत की कथा के अनुसार पुत्रमोह में अंधो राजा धृतराष्ट्र जन्मान्धा भी थे। संजय उनके सारथी बने हैं। राजा धृतराष्ट्र कुरूक्षेत्र में होने वाले युध्द का हाल जानने के लिए उतावले हो रहे हैं। संजय उन्हें कुरूक्षेत्र में होने जा रहे महाभारत की तैयारी का हाल गीता के प्रथम अधयाय में बतलाते हैं। पाण्डवों की सेना के महानायक अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण हैं। शत्रु सेना में अपने बंधु-बान्धावों, गुरूजनों एवं पूज्यजनों को देखकर अर्जुन मोह में फँसकर किर्ंकत्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। श्रीकृष्ण गीता के उपदेश द्वारा अर्जुन को (मोह पाश-काट कर अपने सगे संबंधिायों के विरूध्द हस्तिनापुर राज्य पर पाण्डव कुल के अधिाकार की पुर्नप्राप्ति के लिए) युध्द करने के लिए तैयार करते हैं।

तिलक महाराज ने गीता रहस्य में कर्मवाद को स्थापित किया था। वे 'आर्कटिक होम इन द वेदाज' एवं 'ओरियन' जैसी दुरूह ज्ञानमार्गी कृतियों की भी रचना कर चुके थे। इनके विपरीत हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी भक्ति मार्ग एवं प्रेम साधाना को पुरूषार्थ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसके सारे अधयाय अर्थवत्ता की दृष्टि से एक-दूसरे पर निर्भर हैं। पूरी पुस्तिका एक बार पढ़ लेने के बाद ही अलग-अलग अधयायों का अर्थ खुल पाता है। परंतु वह भी तब जब इसे हम सनातन भारतीय दृष्टि का एक पाठ मानें वर्ना राजमोहन गांधी जैसे लोग तो इसे अपने समय की कृति (यानि आज के समय के लिए अप्रासंगिक कृति) साबित करने में लगे हुए हैं ही। हमारे कुछ मित्रों को ऐसा लगता है कि हिन्द स्वराज की श्रीमद्भागवत गीता से तुलना करना और महात्मा गांधी के विचारों की भगवान श्रीकृष्ण के गीता में वर्णित विचारों से तुलना करना एक प्रकार की अतिरंजना है जिससे बचना चाहिए । महात्मा गांधी के जीवन में और उनके शरीर छोड़ने के बाद भी जिस तरह बड़े-बड़े लोगों ने उनपर अभारतीय एवं अहिन्दू होने तथा बाहरी विचारों एवं निष्ठाओं से प्रभावित होने का मिथक गढ़ा उसको धयान में रखकर उपरोक्त तथ्यों को सामने लाना समयानुकूल है। 

तिलक महाराज जब 'गीता रहस्य' रच रहे थे तो अंग्रेजी राज के विकल्प की प्रेरणा उन्हें शिवाजी महाराज और पेशवाओं की शासन व्यवस्था से मिली थी। गीता रहस्य में कौरव एक तरफ औरंगजेब का प्रतीक है तो दूसरी तरफ अंग्रेजी राज का। श्रीकृष्ण का युगानुकूलन समर्थ रामदास में खोजा जा सकता है और अर्जुन का शिवाजी महाराज में। लेकिन अंग्रेजों से लड़ने की प्रेरणा तिलक महाराज 'दासबोधा', 'ज्ञानेश्वरी' या गीता के शंकर भाष्य से नहीं लेते, उनकी प्रेरणा अंतत: अंतरात्मा से आती है। गीता रहस्य और गणपति महोत्सव एक ही रणनीति के दो पहलू हैं। तिलक महाराज को परंपरा की सीमा पता है इसके बावजूद वे राणाडे एवं गोखले की तरह सुधारवादी नहीं हैं। दूसरी ओर, कहीं न कहीं रामचन्द्र शुक्ल एवं सुधारवादियों में वैचारिक समता अवश्य है। युगपरिवर्तन को नहीं स्वीकारना और जोड़-तोड़ करके पुरानी संरचना को कायम रखना पुनरूत्थानवादी रूझान है जो सनातनी दृष्टि से अभारतीय है। हर उत्सव में हम भारतीय लोग पुनर्रचना करते हैं और उत्सव की समाप्ति पर विसर्जन कर देते हैं। केवल ब्रह्मा और विष्णु नहीं, शिव भी सनातन देवता हैं। भारतीय परंपरा में, केवल सगुण और निर्गुण् पक्ष नहीं है आस्तिक और नास्तिक पक्ष भी हैं। लोकायत भी एक वैधा भारतीय दर्शन है। नौ रसों में एक वैधा रस वीभत्स भी है। स्मृतिकारों ने केवल बा्रह्म और प्रजापत्य विवाह को नहीं स्वीकारा है बल्कि गंधार्व, राक्षस एवं पैशाच विवाह को भी एक सीमा तक वैधा माना है। भारतीय परंपरा केवल त्याग, अधयात्म और योग की नहीं है भोग, प्रकृतिवादी भौतिकता और रोग एवं चिकित्सा की भी है। भारतीय परंपरा नियम एवं सिध्दान्त पर आधारित संसार एवं जगत् की चर्चा करती है, नैतिकवादी आग्रह और अनैतिक व्यवहार में सामंजस्य बिठाने की चर्चा नहीं करती। तंत्र एवं आगम की परंपरा भी उतनी ही भारतीय है जितना वेद और वेदान्त की। तुलसी के मानस में सबको स्वीकारने का साहस है परंतु शुक्लजी की मौलिकता की अपनी सीमाएं हैं। यह सीमा कभी कबीर के मूल्यांकन में सामने आती है, कभी गांधी के मूल्यांकन को असंतुलित करती है और कभी निराला की संवेदना के साथ न्याय करने में बाधा बनती है। भारतीय परंपरा सर्वग्राही एवं कॉस्मिक रियलिस्ट (एकात्मक यर्थाथवादी) रही है। महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज इसी भारतीय परंपरा की वकालत करती है। इसमें वे तिलक महाराज, विवेकानंद, रामकृष्ण, समर्थ रामदास, तुलसीदास और कबीर से भी पीछे जाकर गीता और महाभारत की वाचिक परंपरा के लोक पक्ष के वारिस हैं और इस परंपरा के समकालीन सिध्दांतकार भी।

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