भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता
भाग 2 इसके विपरीत, स्वामी विवेकानंद के समय से हिन्दू चिंतकों ने आधुनिक सभ्यता के पैगन आधार एवं इससे उपजी बहुआयामी, विविधा, बहुकेंद्रित एवं विकेंद्रित प्रवृत्तिायों एवं जटिलताओं को काफी हद तक समझ लिया था। फलस्वरूप आधुनिक यूरोप के विज्ञान, तकनीक तथा आर्थिक एवं राजनैतिक संस्थाओं को वे सनातन भारतीय परंपराओं, दर्शनों, आस्थाओं एवं संस्कृतियों के विकास के लिए अनुकूल मानते रहे हैं। विवेकानंदवादी आधुनिक संस्कृति की रचना को शैतानों का कार्य नहीं मानते। कुछ विवेकानंदवादी कहते हैं कि ''टिकती वही चीज है जिसके पीछे साधाना होती है। उदाहरण के लिए रामकृष्ण मिशन को देखिये। अरबिन्दो आश्रम को देखिये। इस्कॉन को देखिये। योगदा सत्संग को देखिये। दूसरी ओर वर्धा और साबरमती के आश्रमों को देखिये। गांधी और विनोबा के मरते ही उनकी संस्थाओं का क्या हस्र हुआ! गांधीवादी आश्रमों की तुलना में सनातन हिन्दू साधाना से जुड़ी संस्थाएं लगातार बढ़ रही है। नई पीढ़ी को भी आकर्षित कर रही हैं।'' वे यह भी कहते हैं कि ''यूरोपीय लोगों ने संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए जो किया है उसमें केवल निहित स्वार्थ भर नहीं था, श्रध्दा का भाव भी था वर्ना इतना स्तरीय काम इतने वर्षों तक कायम नहीं रह पाता। वे भी साधाक लोग थे और हैं।'' भारतीय परंपरा के सनातन मूल्यों की जो बात विवेकानंदवादी करते हैं वह तो प्रासंगिक है। भारतीय परंपरा की जो सनातन दृष्टि है वह आज भी प्रासंगिक है। परंतु गांधीजी और उनके अनुयायियों की दृष्टि भी उतना ही भारतीय, उतना ही सनातनी और प्रासंगिक है। भारतीय परंपरा के स्वरूप एवं सनातनी ''मूल्य और दृष्टि'' की पहचान को लेकर ही तो सारा झगड़ा है। आज ''मूल्य और दृष्टि'' का प्रश्न और जटिल हो गया है। आज नयी सामग्री ढूंढ़ना उतना महत्तवपूर्ण शोधाकार्य नहीं है। जानी पहचानी स्थितियों, तथ्यों एवं उपलब्धा स्रोतों का भारतीय मानदंडों पर आधारित स्वतंत्र, विवेकजन्य समीक्षा एवं संशोधान करना संभवत: आज ज्यादा आवश्यक है। उदाहरण के लिए गांधी, नेहरू के महत्तव को स्वीकार करते हुए भी तिलक, टैगोर एवं रामचन्द्र शुक्ल जैसों की पृष्ठभूमि, कार्य एवं विचार सरनी की समीक्षा काफी महत्तव का संशोधान कार्य हो सकता है। तभी हम लोग समकालीन भारतीय समाज के भीतर पारंपरिक स्वदेशी एवं आधुनिक वैश्वीकरण के समर्थकों के बीच बहुआयामी स्पर्द्धा एवं संघर्ष को सम्पूर्णता में समझ सकते हैं। पारंपरिक स्वदेशी के सबसे बड़े प्रवक्ता महात्मा गांधी माने जाते हैं तो आधुनिक वैश्वीकरण् के सबसे समर्थ सिध्दांतकार स्वामी विवेकानंद माने जाते हैं। परंतु उनके विचार में महत्तवपूर्ण अंतर होते हुए भी काफी कुछ साझा है। दरअसल दोनों के व्यक्तित्व पर समकालीन भारत की परिस्थितियों का प्रभाव था। वे अपने समकालीनों के साथ संवाद बनाने में भी लगे हुए थे। उस समय अपने युग के सनातन सत्य एवं भारतीय परंपरा को अभिव्यक्त करने का सांस्कृतिक अभियान चल रहा था। भारतीय दृष्टि से आधुनिकता और परंपरा पर विचार करते हुए गांधीजी और विवेकानंदजी के विचारों की पूरकता स्पष्ट हो सकती है। आधुनिकता की सबसे बड़ी विशेषता इसका खुलापन, इसकी तरलता है। आधुनिकता की खास बात इसका संस्थागत रूप से एक स्वतंत्र बाजार की तरह खुला होना और सार्वजनिक क्षेत्र में भी, आत्म सजग रूप से, सर्वसमावेशी होना है। तुलनात्मक रूप से, परंपरायें इतनी खुली नहीं होती। एक पारंपरिक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में खुला हो सकता है, परंतु संस्थाओं के खुलेपन की अपनी सीमा होती है। खासकर समालोचना को पचाने के मामले में और बाहरी प्रभाव से निपटने के मामले में यह सीमा बहुत स्पष्ट दिखती है। यह सीमांकन केवल जाति के रूप में ही प्रभावी नहीं होता बल्कि संप्रदाय और घराना के रूप में भी प्रभावी होता है। आयुर्वेद जैसे विज्ञान के क्षेत्र में भी यह प्रभावी होता है। सूचनाओं का स्वतंत्र आदान-प्रदान परंपरा में सामान्यतया नहीं होता परंतु हो सकता है, इससे सैध्दान्तिक रूप से इनकार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, आधुनिकता में भी सैध्दान्तिक खुलापन चाहे जितना हो, व्यावहारिक सुलभता नहीं होती है। सब कुछ मुफ्त में उपलब्धा नहीं होता। पेटेंट नियम होते हैं। कॉपीराइट होते हैं। भाषा की सीमा होती है। एक खास भाषा में एक खास तरह से ही आधुनिकता अपनी सूचनाएं बाँटा करती है। परंपरा में भी यही होता है। परंपरा में भी पात्रता का सवाल न्यूनतम जरूरी योग्यता से ही होता है। फिर भी परंपरा में समुदायों को जैसी स्वयात्ताता मिलती है, उसकी रक्षा के लिए समुदाय के सदस्यों को वैसी स्वतंत्रता नहीं दी जाती जैसी आधुनिकता में व्यक्तियों को दी जाती है। दूसरी ओर, आधुनिकता में केवल राज्य को स्वायत्ताता प्राप्त होती है, समुदायों को नहीं। उत्तार आधुनिकता में व्यक्ति एवं बाजार की स्वायत्ताता सर्वोपरि होती है जबकि तुलनात्मक रूप से राज्य की स्वायत्ताता खोखली हो जातीहै। भारतीय परंपरा में व्यक्ति को सांसारिक दृष्टि से उतनी स्वायत्ताता प्राप्त नहीं है जितना आधुनिक व्यवस्थाओं में होती है। परंतु आधयात्मिक दृष्टि से व्यक्तिगत मुक्ति की बात बहुत सहजता से की जाती है। उदाहरण के लिए, रमण महर्षि आदि का मॉडेल व्यक्तिगत मुक्ति वाला आधयात्मिक मॉडेल है। यह सामाजिक मुक्ति का व्यवस्थित मॉडेल नहीं है। हिन्दुओं ने अब तक आत्म सजग रूप से व्यावहारिक स्तर पर क्रियाशील व्यवस्थागत विकल्प का मॉडेल एक विस्तृत ब्लू प्रिंट के रूप में विकसित ही नहीं किया। अधिाकांश आधुनिक हिन्दू चिन्तकों में इस मोर्चे पर एक आत्मचेतस रणनीतिक ढुलमुलपन (एंबीग्युटी) दिखाई देता है। महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज शायद एकमात्र अपवाद है। अधिाकांश आधुनिक हिन्दुओं में जो आत्मचेतस ढुलमुलपन दिखलायी देता है वह काफी हद तक लंबी गुलामी के दौरान अपनी सांस्कृतिक पहचान कायम रखने एवं विपरीत परिस्थिति में अपने स्व की रक्षा करने की रणनीतिक व्यावहारिकता (प्रैगमेटिज्म) के तहत धीरे-धीरे विकसित होता गया। इस प्रवृत्तिा को व्यक्तिगत रूप से बहुत लोग स्वीकारते हैं परंतु इस पर व्यवस्थित विचार करने का सार्वजनिक प्रयास प्रचलित नहीं है। इस प्रवृत्तिा को समझे बिना हिन्द स्वराज का महत्तव समझा ही नहीं जा सकता। राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है परंतु उनका जोर भारतीय समाज को यूरोपीय मानदंडों पर आधुनिक बनाने पर ज्यादा था। फलस्वरूप, भारतीय परंपरा के प्रतिनिधिा वे नहीं माने जाते। दूसरी ओर, स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके अनुयायियों ने समकालीन भारतीय परंपरा के आधिाकारिक प्रवक्ता होने का दावा किया था। परंतु स्वामी दयानन्द के अनुयायियों ने भारतीय परंपरा का कुछ इस तरह अनुवाद एवं भाष्य किया है कि आधुनिकता की विशेषताएं व्यावहारिक स्तर पर पारंपरिक ग्रंथों पर आरोपित हो गयी हैं। उदाहरण के लिए, एक बड़े आर्यसमाजी लेखक ने ऋगवेद का हिन्दी में अनुवाद किया है। उन्हें लगता है कि पश्चिम की जो अच्छी-अच्छी चीजें हैं वह सब तो हमारी परंपरा में थी ही। यह प्रवृत्तिा आर्य समाज के बाहर वाले आधुनिक हिन्दू चिन्तकों में भी स्थायी भाव ग्रहण करती जा रही है। इसकी प्रेरणा विलियम जोंस जैसे यूरोपीय विद्वानों के प्रभाव से फैला है। करीब चौथी शताब्दी से यूरोपीय विद्वानों में ज्ञान का प्रामाणिक स्रोत किताब (टेक्स्ट) रहा है। आधुनिक युग में भी रेने डेकार्ट एवं इमैनुएल कैंट के प्रभाव में ज्यादातर यूरोपीय विद्वान यही मानते हैं कि किसी चीज के बारे में प्रामाणिक ज्ञान किताबी सिध्दांत एवं बौध्दिक अवधारणाओं के आधार पर ही प्राप्त हो सकता है। विलियम जोंस के प्रभाव में जब भारत को समझने के लिए आधुनिक प्रयास इंडोलॉजी (भारतविद्या) के तहत विकसित हुआ तो यूरोपीय मानदंड पर भारत का प्रामाणिक ग्रंथ या किताब (टेक्स्ट) खोजा जाने लगा। भारतीय ग्रंथों का अनुवाद, संशोधान, संपादन एवं मूल्यांकन का साम्राज्यवादी उपक्रम चलाया गया। इस उपक्रम के सिध्दांत, मॉडेल एवं मानदंड यूरोपीय परंपरा के आधार पर तय किया गया। भारतीय विद्वानों का काम बौध्दिक सहायकों जैसा था। वे लोग यूरोपीय विद्वानों के स्वामीभक्त अनुचर की तरह 'तथ्य संकलन', 'शाब्दिक अनुवाद' एवं यूरोपीय मानदंडों पर भारतीय शास्त्रों में ''प्रक्षेपित अंश'' (अप्रमाणिक घुसपैठ) खोजते रहे और मूल्यांकन करने का काम यूरोपीय विद्वान करते रहे। बाद में इस तरह के ''आधिाकारिक मूल्यांकन'' के प्रचार, प्रसार एवं अनुकरण करने के लिए भारतीय विद्वानों को प्रायोजित अनुबंधा दिया जाता रहा। अब तो इसी प्रकार के शोधा को मौलिक एवं श्रेष्ठ माना जाता है। इसी प्रभाव के कारण आधुनिक हिन्दू चिंतकों में साधारण जनता और उसके जीने के ढ़ंग का ख्याल नहीं रहा, अंग्रेजों द्वारा चुने हुए 'टेक्स्ट' का ख्याल रहा। एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में भगवद्गीता भी अंग्रेजों के आने से पहले नहीं पढ़ी जाती थी। इसको इतना अधिाक प्रतिष्ठित यूरोपीय विद्वानों ने ही किया है पहले इसे या तो महाभारत के रूप में पढ़ा - सुना जाता था या दार्शनिक रूप से ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों के साथ प्रस्थान त्रयी के रूप में पढ़ा जाता था। आम हिन्दुओं के बीच भगवद्गीता साधारण लोगों द्वारा पढ़ने की चीज नहीं मानी जाती। साधारण लोग रामायण, महाभारत, पुराण एवं भागवत इत्यादि पढ़ते हैं। समाज में अभी भी कुछ ही लोग पारंपरिक शास्त्र, शिल्प या भारतीय गणित पढ़तें हैं, ज्यादातर लोग वाचिक परंपरा की दुनिया में ही रहते हैं। उनकी दुनिया गणित एवं व्याकरण से न तो बनती है और न चलती है। उनकी दुनिया में स्मृति, पुराण, लोककथा, महाकाव्य, मुहावरा, कहावत, लोकगीत एवं लोकसंगीत का प्रभाव गणित एवं व्याकरण से ज्यादा होता है। परंतु आधुनिक विद्वान भारत को आम लोगों की नजर से देखना समझना नहीं चाहते। वे लोग अपनी कृत्रिम दुनिया में रहते हैं। उनको इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि भारत के आम नर-नारियों का दूसरे मनुष्यों से, सृष्टि से या दूसरे जीवों से क्या रिश्ता है। उनके लिए पश्चिमी मानदंडों पर खरा उतरना अधिाक आवश्यक है। वास्तव में आम आदमी के जीवन में जाने अनजाने कितना पश्चिमीकरण हुआ है, हुआ भी है या नहीं ऐसे सवालों पर सार्वजनिक जीवन में चर्चा सामान्यत: नहीं होती। जो लोग भी सार्वजनिक जीवन में हैं, उनको आम लोगों की वास्तविक स्थिति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। जिन्हें जानकारी है वे सार्वजनिक जीवन के विमर्श में भाग नहीं लेते और आम लोगों के पक्ष का प्रतिनिधिात्व करने नहीं आते। आधुनिक भारत के पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि हमारे देश के साधारण लोग तो आलसी हैं। अंग्रेजो ने जो-जो कहा और दोहराया कि ''तुम्हारे ग्रन्थों में ऐसा लिखा है,'' यह पढ़े-लिखे भारतीय लोगों के मन में बस गया है। जैसे अंग्रेजों ने जानबूझकर यह मिथक गढ़ा कि हजारों बरस से हमारे यहाँ दरिद्रता है; कि हमारे यहाँ बरसों से छूआछूत कायम है। ऐसी मान्यताओं का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। ऐसे मिथक अंग्रेजों के द्वारा अपने राज को वैधाता देने के लिए शोधा के नाम पर गढ़े गये। परंतु मानसिक रूप से गुलाम भारतीयों ने इसको बिना परीक्षा किए स्वीकार लिया। कोई नहीं पूछता कि बतलाओ तो सही कि इन तथाकथित ऐतिहासिक तथ्यों का आधार कहाँ है? पूछने पर कुछ कुतर्की कहते है कि मनुस्मृति में या कहीं और है। असल में मनुस्मृति में क्या है यह नहीं कहते, यह भी नहीं कहते कि मनुस्मृति कब लिखी गई थी? मनुस्मृति के अलावे औैर कितनी स्मृतियाँ हैं? इन स्मृतियों का आपस में क्या संबंधा है? इन स्मृतियों का अपने युग के समाज से कैसा संबंधा था? क्या भारतीय समाज में व्यक्ति एवं समुदाय का जीवन स्मृतियों से उसी तरह नियंत्रित होता था जिस तरह सेमेटिक जाति के धार्मिक समुदायों में पवित्र ग्रंथों के आधार पर होता है? ऐसे प्रश्नों को दरकिनार करना आजकल भारत में बौध्दिक फैशन बन गया है। लेकिन इस बौध्दिक फैशन के निर्माण में साम्राज्यवादियों ने बहुत मेहनत की थी। राबर्ट क्लाइव के जमाने से भारतीयों के स्वभाव के बारे में अंग्रेजों ने बहुत जानकारी एकत्र किया। धीरे-धीरे वे समझ गये कि भारतीयों को कुछ भी तय करने में बहुत देर लगती है। भारतीय लोग स्वभाव से योजनाबध्द नहीं होते। विरोधिायों द्वारा कुछ भी अचानक कर देने पर भारतीय लोग सामान्यतय: लड़खड़ा जाते हैं। हिन्दुस्तानी लोग हवा का रूख देखकर अपनी रणनीति बदल लेते हैं। अगर परिस्थिति बदली तो भारत के पढ़े-लिखे लोग बड़ी आसानी से बदल जाते हैं। मधयकाल में यहां का पढ़ा-लिखा समाज बड़ी आसानी से अरबी फारसी में सूफियों की भाषा एवं इस्लाम की प्रगतिशीलता के गीत गाने लगा था। फलस्वरूप अंग्रेजी राज में भी ब्रिटिश राज की बरकत, ईसाई धर्म की प्रगतिशीलता, पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान एवं पश्चिमी विद्वानों द्वारा भारतीय समाज के बारे में तैयार उपनिवेशवादी विमर्श की प्रासंगिकता के गीत गाने वाले भारतीयों की कमी नहीं रही। भारतीय समाज एवं संस्कृति की अंग्रेजों की देखा-देखी कठोर आलोचना करना अधिाकांश पढ़े-लिखे भारतीयों के बीच लोकप्रिय शगल बन गया। फलस्वरूप जब महात्मा गांधी ने हिन्द-स्वराज लिखा तो भारत के पढ़े-लिखे लोगों में से अधिाकांश लोगों को यह पुस्तक और अंग्रेजी राज तथा आधुनिक सभ्यता की महात्मा गांधी द्वारा की गई आलोचना अच्छी नहीं लगी। ठीक इसी प्रकार, जब अपने ऐतिहासिक शोधा के आधार पर धर्मपाल ने अंग्रेजों के आने से पहले भारत की आर्थिक खुशहाली, तकनीकी श्रेष्ठता एवं शैक्षणिक प्रगति के बारे में तुलनात्मक आंकड़ा प्रस्तुत किया तो सहसा पढ़े-लिखे लोगों को विश्वास नही हुआ। जब यह बतलाया गया कि यह सब एडम्स रिपोर्ट में भी वर्णित है तब भी लोगों ने इस पर बहुत धयान नहीं दिया। चूंकि हम 'टेक्स्ट' के चक्कर में पड़ गये। एडम्स रिपोर्ट, महात्मा गांधी या धर्मपाल अपने क्षेत्रीय सर्वेक्षण, सामाजिक अनुभूति या संग्रहालय के आंकड़ों के आधार पर जो कहते हैं उसको पढ़े-लिखे लोग वह महत्तव नहीं देना चाहते जो पश्चिमी विद्वानों द्वारा स्थापित मानदंडों पर भारत को समझने के लिए औपनिवेशिक विद्वानों द्वारा संपादित एवं संशोधिात मनुस्मृति या गीता के शंकर भाष्य या ऋगवेद के पुरूष सूक्त जैसे 'टेक्स्टस' (आकर ग्रंथों) को देते हैं। फलस्वरूप, व्यावहारिक स्तर पर सदियों से प्रचलित परंपराओं एवं रीति-रिवाजों को आधुनिक विद्वान प्रमाण नहीं मानते। उदाहरण के लिए, भारत में विवाह एवं तलाक के बारे में इंडोलॉजी से प्रभावित अधययनों में तलाक की चर्चा कबिलाई या इस्लामी संस्था के रूप में की जाती है जबकि हिन्दू समाज की विभिन्न जातियों में बड़ी संख्या में तलाक आदि हजारों वर्ष से प्रचलन में है। जो लोग उन समूहों में रहते हैं, उन्हें यह सब मालूम है। लेकिन यह किसी 'टेक्स्ट बुक' में नहीं है। अगर इसे 'टेक्स्ट बुक' के सहारे हम समझने की कोशिश करें तो मुश्किल होगा। अपने व्यावहारिक रूप में भारतीय समाज कैसे चलता है, इससे हमारे ख्याति प्राप्त विद्वानों का अब तक ठीक से परिचय नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, अधिाकांश आधुनिक विद्वानों ने हिन्दू महापुरूषों के आदर्श एवं व्यवहार में असंगति की ओर इशारा किया है। महात्मा गांधी ने तो साफ-साफ कहा है अलग-अलग समय में एक हीं विषय पर उनके विचार बदलते रहे हैं, चूँकि उनका लगातार उद्विकास होता रहा है, उनकी अनुभूतियाँ विस्तृत एवं गहरी होती रहीं हैं। फलस्वरूप वे अपील करते हैं कि जब भी किसी पाठक को एक हीं विषय पर उनके दो विचार देखने को मिलें तो उनके बाद वाले विचार को ज्यादा तरजीह दी जाये। महात्मा गांधी के उपरोक्त मत की सांस्कृतिक गहराई समझने की बहुत कम कोशिश हुई है। महात्मा गांधी ने सांकेतिक रूप से इसमें सनातन हिन्दू धर्म की एक प्रमुख प्रवृत्तिा से खुद को जोड़ा है। जो लोग सनातन धर्म के गहरे जानकार हैं उनके लिए इसका महत्तव स्वयं सिध्द है। परंतु अधिाकांश आधुनिक विद्वानों को गांधीजी का यह आग्रह अटपटा लगता है। गांधीजी को ठीक से समझने के लिए सनातन धर्म की इस प्रवृत्तिा को समझना आवश्यक है। राम और कृष्ण के जमाने से हिन्दू लोग सिध्दांत, नीति या मतवाद के नाम पर बेवजह अड़ियल-अव्यावहारिक रूख अपनाने से बचते रहे हैं। उदाहरण के लिए भगवान राम ने खुद बालि को मारने, समुद्र को पार करने एवं मेघनाद की लक्ष्मण द्वारा हत्या करवाने जैसे प्रकरणों में एक प्रकार की सांसारिक युक्ति का सहारा लिया था। उसी तरह भगवान कृष्ण ने जरासंधा द्वारा मथुरा पर आक्रमण करने के बाद उससे लोहा लेने की तुलना में रणछोरजी कहलाना ज्यादा उचित समझा एवं भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य, जयद्रथ, कर्ण, जरासंधा एवं दुर्योधान की पाण्डवों द्वारा हत्या करवाने में शुष्क नीति या सिध्दांत पर अड़ने की तुलना में व्यावहारिक लचीलापन एवं युक्ति अपनायी।
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