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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप
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भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप
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जब विशेषज्ञ हल्की बातें करने लगें, जब शिक्षक और चितंक पत्रकार की तरह बातें करने लगें तो अनर्थकारी होता है। वर्णाश्रम धर्म की बौध्द अवधारणा कलियुग के अनुकूल है। भगवान बुध्द के अनुसार वर्णव्यवस्था का आधार जन्म न होकर स्वगुण, कर्म एवं प्रशिक्षण है। अत: शिक्षण, चिन्तन, अनुसंधान एवं धार्मिक कर्मकांड करने वाला हर व्यक्ति ब्राहृमण है। राजनीति, सेना एवं प्रशासन करने वाला हर व्यक्ति क्षत्रिय है। व्यापार करने वाला हर व्यक्ति वैश्य है और सेवा क्षेत्र से जुड़ा हर पेशेवर व्यक्ति शूद्र है। वर्णव्यवस्था में अधिकार की अपेक्षा कर्त्तव्य पर जोर है। अंग्रेजी भाषा में जिसे इथिक कहा जाता है वह वर्णव्यवस्था में वर्णाश्रम धर्म कहा जाता है। दुनिया के हर समाज के अंतर्गत वर्ण जैसा विभाजन पाया जाता हैं लेकिन चारों वर्णों के अधिकार एवं कर्त्तव्य की जितनी सूक्ष्म एवं विस्तृत व्यवस्था बौध्द वांङमय में पाया जाता है वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। समकालीन भारत के पत्रकार राजनीतिक फैशन के अनुसार अपना लेखन करते हैं। उसमें सरलीकरण और स्टिरियो टाइप पर जोर होता है। जबकि शिक्षक एवं चिन्तक ब्राहृमण कर्म करते हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे अलोकप्रिय होने का खतरा लेते हुए भी सत्य को सम्पूर्णता में पेश करेंगे अन्यथा चुप रहेंगें। पश्चिमी प्रजातंत्र में मीडिया को विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बाद चौथा खंभा माना जाता है। पश्चिमी प्रजातंत्र के आधुनिक रूप में शिक्षकों एवं चिन्तकों की कोई सुस्पष्ट भूमिका नहीं मानी गई है। जबकि भारतीय परंपरा में ब्राहृमण की एक नैतिक सत्ता होती है। वह क्षत्रियों एवं वैश्यों की अनैतिक सत्ता का नियमन करता है। प्रस्तुत लेख में मैने समाजशास्त्र के एक शिक्षक के रूप में भारतीय राजनीति के समकालीन परिदृश्य पर विचार किया है।
पश्चिमी दृष्टि के लोग मानते हैं कि भारतीय राजनीति में जाति और सम्प्रदाय की सर्वोपरि भूमिका रही है। फलस्वरूप भारतीय प्रजातंत्र में संरचनात्मक कमियां हैं। पश्चिमी प्रजातंत्र में जिस प्रकार स्वायत्त व्यक्ति का विकास हुआ है उस तरह का स्वायत्त व्यक्ति भारतीय समाज में नहीं पाया जाता लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि भारतीय राजनीति में निरंतर बदलाव होता रहा है और जाति एवं सम्प्रदाय के भीतर भी निरंतर गतिशीलता की प्रक्रिया चलती रही है। खासकर 18 वर्ष से 35 वर्ष के युवा मतदाताओं की सोच, अपेक्षा एवं आग्रह में एक नए प्रकार की चेतना है जो न तो पारंपरिक है और न पश्चिमी तरीके की आधुनिक शैली का ही है। यह एक प्रकार की समकालीन भारतीय चेतना है। इस चेतना में अभी एक अनगढ़ता है। इन युवा मतदाताओं में राजनीति के प्रति जबरदस्त आकर्षण राजनीति के माध्यम एवं शक्ति के प्रति है।विरक्ति उपलब्ध राजनीतिक दलों के प्रति है। इससे स्थापित नेताओं एवं राजनीतिक दलों में एक प्रकार की असहजता एवं छटपटाहट है। भारतीय राजनीति में गहराई आ रही है। अब आम जनता जाति से उपर उठकर मतदान करने लगी है। यह एक शुभ संकेत है। लेकिन अभी राजनीतिक पार्टियाँ जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रहीं हैं।
नीतीश कुमार लालू - राबड़ी के 16 वर्षों (1989 - 2005) के कुशासन के विरोध में स्पष्ट जनादेश लेकर एन. डी. ए. सरकार के मुखिया बने थे। लालू के जंगल राज की कहानियां सुनने के बाद गंगाजल एवं अपहरण तथा मृत्युदंड जैसी प्रकाश झा की फ़िल्मों का महत्व पता चलता है। प्रकाश झा लालू के जंगल राज (1989-2005) के महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं। लालू के प्रति नीतीश राज के दौरान जो नफ़रत दिखलाई सुनाई पड़्ती है वह अतिरंजित नहीं है। लालू राज में जो हुआ है, जैसी दहशत फ़ैली रहती थी उसको वही जानते हैं जो उस वक्त बिहार में रह रहे थे। आज के बिहार में बहुत कुछ बदल चुका है। उम्मीद यही है कि अब लालू राज की वापसी नहीं होगी। नीतीश कुमार का फ़िलहाल कोइ विकल्प नहीं है। विकल्प कांग्रेस ही हो सकती थी परंतु जगदीश टाइटलर को प्रभारी बना कर कांग्रेस ने अनिल शर्मा के मेहनत पर पानी फेर दिया । ललन सिंह, प्रभुनाथ सिंह, जगदीश शर्मा जैसे विक्षुब्धों और दिग्विजय सिंह एवं अरुण कुमार जैसे जदयू से निकाले गए लोगों ने नीतीश के खिलाफ़ सफ़ल रैली की लेकिन ये लोग नई पार्टी बनाने की घोषणा नहीं कर पाये। इसी बीच नितिन गड़करी ने डा. सी पी ठाकुर को बिहार भाजपा क अध्यक्ष बना कर बेदम हो चुकी भजपा में नई जान फूंक दी। डा. ठाकुर ने 2 दिन में नई टीम की घोषणा करके भूमिहारों को नीतीश सरकार के प्रति गोल बंद कर दिया। लालू को हराने और नीतीश सरकार को लाने में भूमिहारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भूमिहार, यादव और मुसलमान बिहार की राजनीति में प्रभु जातियां या जुझारु कौम हैं। चौथी जुझारू कौम दुसाध (पासवान) है। महादलित आयोग बनाकर नीतीश ने रामविलास पास्वान की लोजपा की कमर तोड़ दी है। मुसलमान वोट लालू, नीतीश और कांग्रेस में बंटी हुइ है। बिहार का मध्य वर्ग नीतीश कुमार के साथ है। यदि लालू, रामविलास और कांग्रेस आपस में मिल जाएं तो नीतीश कुमार को जीतने में कठिनाई होगी। कांग्रेस अगर अकेले चुनाव लड़ती है तो इसकी संभावना है कि नीतीश कुमार आसानी से जीत सकते हैं। नीतीश कुमार से उम्मीद की गई थी कि वे ठोस काम करेंगे और लंबे समय तक बिहार पर शासन करेंगे। लेकिन वे काम के साथ - साथ अनावश्यक तिकड़म करने में लग गये। वे एक कौकस से घिर गये और सबसे पहले उन्होंने जौर्ज फर्नांडीस और उनके सहयोगियों को किनारा करना शुरू किया। फिर वे लालू के साथियों को तोड़कर अपने साथ लाने में लग गए। इसके बाद वे लालू के मुस्लिम समर्थकों को अपने पक्ष में करने में लग गये। फिर वे रामविलास पासवान के वोट बैंक तोड़ने के लिए महादलित आयोग बनाने के चक्कर में पड़ गए। और अंत में उन्होंने अपने सबसे मजबूत समर्थक वर्ग भूमिपतियों को परेशान करके पिछड़ा राजनीति करना शुरू कर दिया। काश वे इतनी तिकड़म करने की जगह अपना पूरा समय बिहार के संतुलित विकास करने में लगाते। काश वे 2005 की अपनी चुनावी सफलता पर सहज विश्वास करके अपने स्वाभाविक वोट बैंक को सींचते। उनकी प्राथमिकता में तिकड़म करना प्रमुख हो गया। दुर्भाग्य से उनको किसी ने समझाया भी नहीं। सामान्यत: यह काम मीडिया का है। परन्तु आज मीडिया प्रजातंत्र का स्वतंत्र चौथा खंभा नहीं रह गया है। आज मीडिया एक पूंजीवादी व्यवसाय बन गया है। आखिरी मापदंड जब मुनाफे की रकम का जुगाड़ हो तो इस परिस्थिति में खुद को बनाए या टिकाए रखने के लिए सरकार के साथ मीडिया की पार्टनरशिप अस्वभाविक नहीं रह जाती। फलस्वरूप सरकारों के प्रमुख व्यक्ति के चारों ओर मीडिया और चाटुकारों का एक अदृश्य घेरा बन जाता है जिसके पार देखना अक्सर मुश्किल होता है। ऐसा केवल नीतीश कुमार के साथ हुआ है ऐसा नहीं है। यह भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में करीब - करीब हर राज्य के प्रमुख के साथ कमोबेश हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा ही अस्वभाविक तिकड़म कांग्रेस पार्टी कर रही है। ऐसी तिकड़म के पीछे राजनीतिक असुरक्षा की भावना होती है।
2010 के चुनाव के बाद बिहार में नया गठजोड बनेगा। लालू, राम विलास, दिग्विजय सिंह का खेमा भी चुनाव के बाद मिल जायेगा। फिर यही खेमा तीसरा मोर्चा की धुरी बनेगा। लालू और नीतीश कुमार दोनों की नजर मध्यवर्ग और मुसलमान मतदाताओं पर है। इस तरह भारतीय राजनीति का समकालीन परिदृश्य बिहार चुनाव के बाद बदलने की प्रबल संभावना है। ऐसे भी अब समय बदल गया है। जिस तरह 1980 से 1993 तक मुंबई फिल्म उद्योग में एक खराब दौर था उसी तरह बिहार की राजनीति में भी 1989 से 2005 तक एक खराब दौर था। यह मंडल और मंदिर का भयानक दौर था।
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