Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप

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भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप

 

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बालठाकरे ने मुंबई फिल्म उद्योग को दाउद इब्राहिम से मुक्त कराया। उसी तरह नीतीश कुमार ने बिहार को कुशासन से मुक्त कराया। लेकिन बाल ठाकरे और नीतीश कुमार ने अपना संतुलन खोया। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने भी जुलाई 2008 से अपना संतुलन खो दिया है। 2009 में यू. पी. ए. की जीत के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिया है। यह पूंजीपतियों की हित साधने वाली सरकार है। सरकार अमीर परस्त है जबकि राहुल गांधी की छवि गरीब परस्त, युवा परस्त जुझारू नेता की बनायी जा रही है। सोनिया गांधी की छवि त्यागी और ममतामयी नेता की गढ़ी गई है। मीडिया ने यू. पी. ए. और कांग्रेस की सकारात्मक तस्वीर गढ़ी है। विपक्ष इस समय हताश और विभाजित है। दूसरी ओर कांग्रेस तिकडम के सहारे अपने वोट बैंक को सशक्त करने में लगी हुई है। चुनावी विश्लेषक मानकर चल रहे हैं कि 2014 के चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार तीसरी बार बनेगी। मुझे ऐसा होता नहीं दिख रहा है। बिहार विधान सभा चुनाव के समय (अक्टूबर - नवंबर 2010) से नया राजनीतिक ध्रुवीकरण शुरू होगा। 2011 में बंगाल और तमिलनाडु के चुनाव में इस ध्रुवीकरण का विस्तार होगा। 2012 के दौरान यू. पी. और गुजरात के चुनाव होंगे। इस दौरान कांग्रेस की कमजोरी स्पष्ट हो जायेगी और देश में गैर - कांग्रेसवाद की बयार बहेगी। आम - आदमी का गुस्सा 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ले डूबेगा। मई 2004 में कांग्रेस नहीं जीती थी, एन. डी. ए. की हार हुई थी। जुलाई 2008 तक सरकार पर लेफ्ट फ्रंट का अंकुश था। इससे मनमोहन सिंह के विकल्प सीमित थे। वे संभल कर चल रहे थे। जुलाई 2008 से अंकुश हट गया। मई 2009 के चुनाव में यू. पी. ए. की जीत स्पष्ट थी। इससे अहंकार आया। आम आदमी के हितों की अनदेखी और कांग्रेसी जोड़ - तोड़ का तिकड़म शुरू हुआ। प्रजातंत्र में सशक्त विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया का होना जरूरी है। खासकर खगोलीकरण के वर्तमान दौर में। एक पार्टी या एक गठबंधन के लंबे शासन में सामाजिक शक्तियों के विकास में गतिरोध उत्पन्न होता है। पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट का 1977 से 2010 तक लंबा शासन इसका अच्छा उदाहरण है। लालू - राबड़ी 16 वर्ष लंबा शासन इसका दूसरा उदाहरण है। प्रजातंत्र में नियमित बदलाव होते रहना आवश्यक होता है। इससे सामाजिक संतुलन कायम होता है। संतुलित विकास की प्रक्रिया चलती है। 1984 से 2008 तक लोकसभा चुनाव में नियमित बदलाव होते रहा। इससे भारत के आर्थिक और सामाजिक विकास में सकारात्मक परिणाम आया। जुलाई 2010 से जुलाई 2016 तक स्वतंत्र भारत की कुण्डली में सूर्य की महादशा चलनी है। इस दौरान मई 2014 में लोकसभा चुनाव संभावित है। मेरी दृष्टि में यह भी राजनीतिक परिवर्तन करवायेगा। जुलाई 2010 के बाद पहला चुनाव बिहार में होना है। अत: पहला परिवर्तन बिहार में संभावित है। गठबंधन की राजनीति का नया युग शुरू होगा। सूर्य महादशा में सूर्य पूजकों का महत्व बढेग़ा। सौर ऊर्जा का महत्व बढ़ेगा। सूर्य विज्ञान एवं सूर्य सिध्दान्त प्रतिष्ठित होगा। सनातन धर्म का महत्व बढ़ेगा। चन्द्र महादशा में गठबंधन की राजनीति समाप्त होगी। भारत की कुण्डली में 2016 से 2026 तक चन्द्रमहादशा चलेगी। इसमें भारत महाशक्ति बनेगा।
स्वतंत्र भारत की कुण्डली में वृषभ लृग्न है। वृषभ शुक्र की राशि है। शुक्र महादशा जुलाई 1990 से जून 2010 के बीच प्रभावी था। इस बीच मंडल और मंदिर की राजनीति, पिछड़ा वर्ग का उदय, नारी शाक्ति का उदय, सिनेमा एवं टेलीविजन का विस्तारित प्रभाव, ग्लैमर एवं फैशन उद्योग का विकास विशेष रूप में हुआ। सूर्य सनातन धर्म के केन्द्र में हैं। वह सोलर फैमिली मुखिया हैं। वह विवेक और धार्मिक शिक्षा के संरक्षक हैं।       चन्द्रमा भावना प्रधान ग्रह है। चन्द्रमा की दशा में सांस्कृतिक आंदोलन होंगे। विश्व ग्राम में भारतीय कला एवं संस्कृति की धूम मचेगी। ऐसे परिप्रेक्ष्य में रामदेव महाराज का राजनीतिक दल बनाने का निर्णय एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना है। नेहरू काल में करपात्री जी महाराज ने रामराज्य परिषद बनायी थी। करपात्री जी देश के प्रमुख, लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित संत थे। लेकिन रामराज्य परिषद को सीमित सफलता ही मिल पायी। रामदेव महाराज योग एवं आयुर्वेद के लोकप्रिय विशेषज्ञ हैं। राजनीति में आने के बाद उनके कितने समर्थक उनका साथ देते हैं यह देखना दिलचस्प होगा। उनके एक समर्थक लालू यादव ने तो उनका खुला विरोध शुरू कर दिया है। देर - सबेर मुलायम सिंह भी उनका विरोध करेंगे ही। कांग्रेस उनके साथ जाने से रही। अत: कुल मिलाकर उनकी सफलता - असफलता से एन. डी. ए. का भविष्य ही प्रभावित होना है।
लालू यादव भगवान सूर्य को समर्पित छठ पूजा करने वाले लोगों में अग्रगण्य हैं। दूसरी ओर नीतीश कुमार सोलर एनर्जी के समर्थक हैं।  लालू की तुलना में नीतीश सक्षम प्रशासक हैं। उनकी छवि एक ईमानदार नेता की भी है। परन्तु वे धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं। उनकी छवि एक तिकडमबाज नेता की है। दूसरी ओर लालू यादव एक धार्मिक व्यक्ति हैं। नीतीश की तुलना में वे कम सक्षम प्रशासक हैं। उन पर भ्रष्टाचार का भी आरोप है। लेकिन उनकी छवि एक सरल पारंपरिक व्यक्ति की भी है। लोग मानते हैं कि लालू खुद उतने बुरे व्यक्ति नहीं हैं परन्तु 16 वर्षों के उनक शासन में उनकी पार्टी में अवांक्षित व्यक्तियों को संरक्षण प्राप्त था। लालू कहते फिर रहे हैं कि ''कुछ गलतियां हुई हैं। माफ कर दो। अब मैं सम्हल गया हूँ।'' देखना यह है कि जनता लालू को माफ करती है या नीतीश को दुबारा सत्ता सौंपती है। लालू भारतीय राजनीति के दिलचस्प नेता हैं। उनमें चमत्कारी नेतृत्व क्षमता रही है। वे ओजस्वी वक्ता हैं। उनका वोट बैंक काफी हद तक उनके साथ है। जबकि नीतीश कुमार का वोट बैंक अभी बनने की प्रक्रिया में है। 2005 में जिन लोगों ने उनको जिताया था वे उनकी तिकडमों को देखते हुए सदमा में हैं। ये लोग लालू को वोट नहीं देना चाहते। लेकिन ये लोग नीतीश सरकार से भी पूरी तरह खुश नहीं हैं। अत: ये वोट डालने के बदले घर बैठ कर तमाशा देख सकते हैं। नीतीश अपनी छवि बनाने के चक्कर में भाजपा के परंपरागत वोटरों के हितों की लगातार उपेक्षा करते हुए अपना अलग वोट बैंक बनाने में लगे हुए हैं। मामला धीरे - धीरे बिगड़ता जा रहा है। लालू यादव की वापसी अभी होना आसान नहीं है, लेकिन नीतीश और भाजपा के गठबंधन को बहुमत मिलना उतना सरल नहीं है। अत: खंडित जनादेश और नया गठबंधन की संगावना बढ़ गई है। इसी से नयी राजनीति का जन्म होगा। जो 2014 के लोकसभा चुनाव को बहुत गहराई से प्रभावित करेगी।

दलित समाज की जातियां भीतर से बहुत धार्मिक रही हैं। डाक्टर अंबेदकर और महात्मा गांधी दोनों इसको भलीभांति समझते थे। ब्राहमणों और सवर्णों में भी पारंपरिक लोग काफी धार्मिक रहे हैं। तथाकथित पिछड़ी जातियों में धार्मिकता की मात्रा पारंपरिक रूप से कम रही है। आर्यसमाज के प्रभाव में जाट जाति का संस्कृतिकरण हुआ। रामदेव महाराज के प्रभाव में यादवों का भी संस्कृतिकरण हो रहा है। रामजन्म भूमि आंदोलन में लोधों का संस्कृतिकरण हुआ था। डाक्टर लोहिया ने भी पिछड़ों में संस्कृतिकरण की अलख जगाने की कोशिश की थी। परन्तु वे जाति तोड़ने के चक्कर में पड़े रहे और संस्कृतिकरण का उनका अभियान राजनीतिक आंदोलन में खो गया। उनके जाने के बाद समाजवादियों ने मंडल कमीशन की बैशाखी पकड़कर आरक्षण की राजनीति को अपना एकमात्र एजेन्डा मान लिया। अब समय बदला है। रामदेव महाराज ने सांस्कृतिक मुद्दे उठाना शुरू किया है। उनको राजनीतिक सफलता मिले या न मिले लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू धर्म के पक्ष में माहौल बनाना शुरू किया है। नीतीश को घेरने के लिए लालू यादव ने भी सांस्कृतिक मुद्दे उठाना शुरू किया है। विकास का मुद्दा नीतीश का ट्रंप कार्ड है तो सांस्कृतिक अस्मिता का मुद्दा अपनी भाषा में लालू ने उठाना शुरू किया है। मायावती ने भी सांस्कृतिक अस्मिता की राजनीति शुरू कर दी है। बाबा रामदेव, लालू यादव और मायावती की भाषा मध्यवर्ग से अलग है। मध्यवर्ग के लोग पश्चिमीकरण के समर्थक हैं। दलित - पिछड़े संस्कृतिकरण के नए दायरे में विकास की बात करते हैं। इस नए दायरे को ठीक से समझना आवश्यक है।

 

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