Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप

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भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप

 

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यह समृध्दिकरण और सशक्तिकरण की मंगलकारी अवधारणा का सरल रूप है, यह गांधी , अंबेडकर, लोहिया, दयानंद आदि के विमर्श से निकला है। यह वेलफेयरिज्म (कल्याणकारी योजनावाद) की पश्चिमी अवधारणा से अलग है। वेलफेयरिज्म की विचारधारा के तहत आम - आदमी की जीविका और साधन विकास के नाम पर छीन कर उन्हें निरीह बनाया जाता है और फिर कल्याण एवं सेवा के नाम पर उनका धर्मान्तरण किया जाता है। कांग्रेस पार्टी की नीतियां वेलफेयरिज्म पर ही आधारित रही हैं चाहे यह नरेगा की योजना हो या आरक्षण की योजना हो। उद्देश्य वोट बैंक बनाना है। कल्याणकारी योजना पहले धर्मांतरण के काम आती थी अब वोट बैंक बनाने के काम आती है। गांधी जी को काफी पहले समझ में आ गया था कि समाज को राजनीति ने तोड़ा है अत: वे अनैतिक राजनीतिक की कमर तोड़ने के लिए राजनीति में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने के लिए सामने आये।
भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी गणपति के साथ रहती हैं। हर परिवार की जीविका के साधन पर उसी परिवार का नियंत्रण होता है। गांधी के सर्वोदय में इसी मंगलकारी अवधारणा का समावेश है। हर व्यक्ति और हर परिवार के पास एक शिल्प या तकनीक या हुनर होना जरूरी है। बिहार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कैंपस खोलने की जरूरत नहीं है। दोनों संस्थायें अंग्रेजी राज में बनी थीं। दोनों संस्थायें आज के संदर्भ में अप्रासंगिक हो चुकी हैं। बिहार की जरूरत युगानुकूल तकनीकि एवं व्यावसायिक शिक्षा है। बिहार की जरूरत वैकल्पिक ऊर्जा का दोहन है। सौर ऊर्जा का उत्पादन भारत में प्राथमिकता पाये तो आम आदमी का भला होगा। उत्तर भारत में जल ऊर्जा का उत्पादन होना चाहिए। इसके लिए भारत सरकार नेपाल से समझौता करे तो पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और असम में बाढ़ का प्रकोप भी कम होगा और बिजली भी पैदा होगी। जैविक खेती का विकास करना आवश्यक है। इससे उत्तम भोजन और उत्तमदवायें मिलेंगी। योग और आयुर्वेद का प्रचार - प्रसार भी इस देश के लिए अच्छा है। सूर्य महादशा और चन्द्र महादशा के आने वाले 16 वर्षों में सांस्कृतिक राजनीति एवं मंगलकारी अर्थव्यवस्था का भारत में विकास होना तय है। इसका माध्यम कौन बनेगा यह भविष्य के गर्भ में है। नियति उपलब्ध साधन से ही विकल्प पैदा करती है।

उत्तर प्रदेश में बसपा सांस्कृतिक अस्मिता की राजनीति कर रही है जबकि कांग्रेस विकास की राजनीति कर रही है। बिहार में नीतीश कुमार सुशासन एवं विकास की राजनीति कर रहे हैं जबकि शिक्षा व्यवस्था का जाने - अनजाने बंटाधार कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दूसरे नम्बर की पार्टी बनने की लड़ाई लड़ रही है। जबकि बिहार में कांग्रेस चौथे नम्बर की पार्टी बने रहने की लड़ाई लड़ रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा चौथे नम्बर की पार्टी है। बिहार में भाजपा तीसरे नम्बर की पार्टी है। नीतीश और लालू में प्रतियोगिता है। लालू के पास फिलहाल कोई मुद्दा नहीं बचा है। वे नीतीश की गलतियों और जदयू के विक्षुब्धों पर भरोसा किये हुए हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम की भी हालत लालू जैसी है। उनके पास भी फिलहाल मुद्दा नहीं बचा है। परन्तु मायावती की असली प्रतियोगिता अब मुलायम से न होकर राहुल गांधी से है। इस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में बहुकोणीय प्रतियोगिता होगी। मायावती और नीतीश कुमार अपनी वरीयता बनाये रखने में कामयाब हो सकते है। लेकिन स्पष्ट बहुमत पाना आसान नहीं होगा। खासकर उत्तर प्रदेश में बहुकोणीय मुकाबला रोकने का कोई उपाय नहीं है। बिहार में गठबंधन की राजनीति चुनाव पूर्व से ही चलेगी। उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति चुनाव बाद चलेगी। देश की जरूरत एक नया दल है। लेकिन यह एक संसाधन एवं श्रमसाध्य काम है। इसके लिए टैलेन्ट (प्रतिभा) खोजना आसान काम नहीं है। सवाल सांस्कृतिक नवजागरण का है। इसके लिए गहन चितंन - मनन एवं गवेषणा की जरूरत है। इसमें कोई भी शक नहीं कि भारत एक हिन्दू बहुल देश है। इसमें भी कोई शक नहीं कि भाजपा का आज एक जनाधार है। लेकिन यह जनाधार आज 1998 - 1999 के मुकाबले निश्चित रूप से घटा है। जबकि भारतीय मतदाता की संख्या गुणात्मक रूप से बढ़ी है। आज 18 साल 35 वर्ष के युवा मतदाता करीब 40 प्रतिशत हैं। युवा मतदाताओं को नितिन गड़करी की भाजपा कितना आकर्षित कर पायेगी यह इस पर निर्भर करेगा कि आने वाले 14 वर्षों में भाजपा क्या कार्यक्रम लेती है। और कैसा नेतृत्व विकसित करती है। इसका घोषणा पत्र क्या होता है। इसकी रणनीति क्या होती है। 1998 से 2004 के बीच भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर बिना तैयारी के सत्ता मिल गई थी और वे लोग सत्ता का सदुपयोग नहीं कर पाये। अब लंबे समय तक छटपटाते रहेंगे कि कभी सत्ता में थे। सत्ता केवल मीडिया मैनेजमेंट से नहीं मिलती, सत्ता पाने के लिए योजना और कार्यक्रम चाहिए। भारत अभी भी गांव और कस्बों में बसता है। उसको वही समझ सकता है जो वहां का हो, उनके साथ उठता - बैठता हो, उनकी बोली बोलता हो। उत्तर भारत से लोकसभा के 267 सदस्य चुन कर आते हैं। उत्तर भारत की राजनीति में संरचनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है। देश में 5 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। जिनमें से 40 प्रतिशत केवल उत्तर प्रदेश में हैं। तात्कालिक रूप से ये लोग बसपा के साथ हैं परन्तु यह अस्थायी व्यवस्था है। पहले ये लोग कांग्रेस के साथ थे। 1985 के आसपास ये लोग रामजन्मभूमि आंदोलन के रास्ते भाजपा से जुड़े। भाजपा से मोहभंग होने के बाद 2006 के आसपास ये लोग बसपा से जुड़े। अब कांग्रेस की नजर यू. पी. के ब्राह्मण एवं मुसलमान मतदाताओं पर है। राहुल गांधी ने 2008 के आसपास युवा मतदाताओं को आकर्षित करना शुरू किया था लेकिन जल्द ही कांग्रेस की प्राथमिकता मुसलमानों और ब्राह्मणों को आकर्षित करना हो गया। अन्य दलों की तुलना में कांग्रेसपार्टी की तीन विशेषताएं हैं (1) ऐतिहासिक विरासत (2) निर्विवाद नेतृत्व (3) आर्थिक सबलता। स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक विरासत, नेहरू - गांधी परिवार का निर्विवाद नेतृत्व और धनपतियों का आर्थिक सहयोग के कारण मध्यमार्गी पार्टी के रूप में शासन करना 1947 से कांग्रेस पार्टी के लिए तुलनात्मक वरीयता दिलवाता रहा है। लेकिन इन्हीं कारणों से कांग्रेस पार्टी यथास्थितिवादी रही है। युवा वर्ग के आम वोटरों में पैठ बनाना कांग्रेस के लिए अब उतना आसान नहीं रह गया है। राजशेखर रेड्डी की असामयिक मृत्यु से 2014 में कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में निश्चित रूप से नुकसान होगा। सीटें घटेंगी। तमिलनाडु में भी कांग्रेस और डी. एम. के. गठबंधन को 2014 के लोकसभा चुनाव में नुकसान होना तय है। गुजरात, उडी.सा, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली में भी कांग्रेस की सीटों में कोई खास बढ़ोतरी नहीं होने वाली है। उत्तर प्रदेश में 21 सीटें में कुछ इजाफा अवश्य हो सकता है। कुलमिलाकर 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 205 सीटों से कम सीटें आने की प्रबल संभावना है। 191 सीटें लाकर 1989 में राजीव गांधी सरकार नहीं बना पाये थे। जबकि 1984 के चुनाव में उन्हें 416 सीटें प्राप्त थीं। अपने समय में राजीव गांधी राहुल गांधी से ज्यादा लोकप्रिय थे। वे युवाओं में एक आइकॉन की तरह उभरे थे। 1985 में वे इकीसवीं सदी की बात करते थे।

 

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