Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप

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भारतीय राजनीति का समकालीन स्वरूप

 

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2009 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा युवा सांसद चुनकर आये। राहुल गांधी, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अगाथा संगमा कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अलग हटकर सोचती है। वह साहसी, खतरे उठाने वाली और रचनात्मक है। यह पीढ़ी उस दौर में जवान हुई जब भारत उतना गरीब, पिछड़ा और अविकसित मुल्क नहीं रह गया है। यह पीढ़ी आजादी की लड़ाई और बरसों की गुलामी और शोषण से खुद को आजाद करने की जद्दोजहद से अपरिचित है। यह पीढ़ी उस दौर में बड़ी हुई है, जब हम विश्व में सिर ऊंचा करके खड़े हैं। यह पीढ़ी पुराने कायदे - कानूनों, उचित - अनुचित के पांरपरिक नियमों से उतनी बंधी हुई नहीं है। उनका मन, सोच औश्र मस्तिष्क ज्यादा खुले और आजाद है। यह पीढ़ी टेकनोलॉजी के युग में बड़ी हुई है। उसका वैश्विक दायरा इंटरनेट और कमप्यूटर से नियंत्रित है। नई पीढ़ी सत्ता पाने या सफलता पाने के मामले में ज्यादा धैर्य और विवेक है। राहुल गांधी इसके उदाहरण हैं। परंतु राजनीति में सक्रिय युवा बेहतर होने के बावजूद देश के आम युवाओं के लिए रोल मॉडेल नहीं हैं। ज्यादातर युवा राजनेता जमीन से उठकर शिखर पर नहीं पहुंचे हैं। इनकी तुलना में क्रिकेट और सिनेमा तथा उद्योगों के क्षेत्र के युवा रोल मॉडेल हैं चूंकि अधिकांश रोल मॉडेल जमीन से उठकर शिखर पर पहुंचे हैं।
युवाओं में नई ऊर्जा, उत्साह, उम्मीद, सपनों तथा आकांक्षाओं का भंडार है। वे नई संभावनाओं की जमीन तलाश करते हैं। खतरा उठाने का ज्यादा साहस है। नौकरी करने की बजाय वे अपना काम शुरू करना चाहते हैं। वे पुराने मानदंडों और बनी बनाई लीक के हिसाब से काम नहीं करना चाहते। उनमें हार या असफलता की आशंका कम है। फिल्म इंडस्ट्री में युवा बेहतरीन और लीक से हटकर काम कर रहे हैं। वे ऐसे विषयों पर फिल्में बनाने का खतरा उठा रहे हैं जो पहले बिलकुल अछूते विषय माने जाते थे। साहित्य, संगीत, सिनेमा, खेल, विज्ञान, टेकनांलॉजी और व्यवसाय में अपने अभिनव प्रयोगों और कल्पनाशीलता से सफलता की ऊचाइयां छू रहे हैं। वे अपना जीवन साथी खुद ढूंढ़ रहे हैं। वे लकीर के फकीर नहीं हैं। परंतु युवा भारत की एक धूसर तस्वीर भी है। हमारे समाज में फैल रही उपभोक्तावादी संस्कृति युवाओं में जबरदस्त लोभ पैदा कर रही है। वह बंगला गाड़ी आदि आधुनिकतम सुविधाओं की ओर तेजी से खींच रहा है। पिछले दस सालों की तुलना में 2009 में अपराधों में बेतहाशा वृध्दि हुई है। डकैती, हत्या और फिरौती के लिए अपहरण जैसे मामले बढ़ रहे हैं। इनमें ऐसे युवाओं की बहुतायत है, जिनके कोई क्राइम रिकार्ड नहीं हैं। युवा अपराध की तरफ उन्मुख हो रहे हैं। तेजी से हो रहे सामाजिक - सांस्कृतिक परिवर्तनों के चलते अब हम ऐसे मुहाने पर खडे हैं जहां सफलता ही आखिरी मापदंड है और सफलता का अर्थ है पैसा। हमारे युवाओं में धनपतियों का खासा क्रेज है। रातों रात धनी हो जाने की चाहत युवाओं को अपराध की ओर धकेल रही है। छोटे - छोटे बच्चे निराशा में खुदकुशी कर रहे हैं। उन पर चैंपियन बनने का दबाव है। उन पर टॉपर बनने का दबाव इस हद तक है कि कुछ बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं तो कुछ रातोंरात अमीरी के सपने को साकार करने के लिए आक्रामकता और अपराध का सहारा ले रहे हैं। कुछ अन्य युवा नशाखोरी के शिकार हो रहे है।

धरती के मौजूदा संसाधनों का 80 फीसदी उपयोग तो उत्तर की मात्र 20 फीसदी आबादी कर रही है, जबकि दक्षिण (विकासशील या गरीब राष्ट्र) की विशाल जनसंख्या, यानी दुनिया की करीब 80 फीसदी आबादी के हिस्से में केवल बचे खुचे 20 फीसदी संसाधन ही आ रहे हैं। पर्यावरण का विनाश व संसाधनों की लूट - खसोट तब तक कायम रहेगी, जब तक भोगवादी अमीर राष्ट्र अपनी कभी न खत्म होने वाली 'भूख' पर अंकुश नहीं लगाएंगे और अपनी विलासिता का रवैया नहीं बदलेंगे। तीसरी दुनिया की बढ़ती आबादी को प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट की जिम्मेदारी डाल कर विकसित राष्ट्र अपने अपराधबोध से मुक्त नहीं हो सकते। जब तक धनाढय देश अपनी उच्च - स्तरीय उपभोग की जीवन शैली को कायम रखेंगे तब तक पर्यावरण और सभ्यता का संकट कायम रहेगा। पर्यावरणीय विनाश राष्ट्रीय सीमाओं का आदर नहीं करता और हर हद पार करके पूरी धरती को अपने शिकंजे में कस लेता है। उप - सहारा अफ्रीका के साहेल इलाके के एक औसत किसान की तुलना में एक आम स्विटजर लैंडवासी कोई 2000 गुना अधिक जहरीला व्यर्थ पदार्थ वातावरण में उड़ेलता है। जिस प्रकार भारत जैसे देश में भी शहर में रहने वाला औसत इंसान एक ग्रामवासी की अपेक्षा कई गुना अधिक ऊर्जा की खपत करता है, ठीक उसी प्रकार दुनिया के भोगवादी अमीर राष्ट्र तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की अपेक्षा सैकड़ों गुना अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं। बिगड़ते पर्यावरण और बढ़ती गरीबी व भूखमरी के दोषी बढ़ती आबादी वाले देश नहीं, अपितु वे राष्ट्र हैं, जिनकी जनसंख्या वृध्दि या तो स्थिर हो चुकी है अथवा जिसकी आबादी घट रही है। भारत जैसा दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या वाला महादेश अगर आज भी टिका हुआ है तो उन करीब 40 फीसदी इंसानों की समुचित संसाधन व्यवस्था की बदौलत, जो गरीबी रेखा के नीचे वास करते हैं। ये गरीब, संसाधन - विहीन लोग अब तक मर - खप गए होते, यदि वे अपने सीमित संसाधनों का अत्यंत मितव्ययिता के साथ प्रयोग नहीं करते। आज अमीर देशों में पैदा होने वाला हर बच्चा गरीब देश में जन्में शिशु से 100 गुना अधिक संसाधन हड़प रहा है। दूसरी ओर एक गरीब इंसान की सुरक्षा का एकमात्र आधार उसकी संतान है। अत: वह संतान पैदा करेगा हीं। उत्तरी अमेरिका का एक निवासी एक अफ्रीकी नागरिक की तुलना में 15 गुना ऊर्जा का उपभोग करता है। मंदी की मार झेल चुके क्षेत्रों में पुराने अनुभवी लोगों और नए लोगों के बीच प्रतियोगिता काफी ज्यादा होगी। नए लोगों में वही जगह बना पाएंगे, जो अपने लक्ष्य के प्रति अधिक केंद्रित होंगे। भारतीय राजनीति के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह उभरती हुई विश्व व्यवस्था में सत्य और न्याय का झड़ा बुलंद करे। 

 

 

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