Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छायावाद का वास्तविक स्वरूप

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छायावाद का वास्तविक स्वरूप

 

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बंगाली नवजागरण की तरह हिन्दी में छायावाद एक प्रकार का भारतीय नवजागरण(रेनैसां) का काल है और इस युग की रचनाओं में युगीन जीवन दर्शन की पुनर्रचना हुई है। इस काल के गद्य को प्रेमचंद की कहानियाँ एवं उपन्यास तथा प्रसाद के नाटकों ने जो गहराई एवं नयापन दिया है उसमें परम्परा और आधुनिकता का संश्लेषण है, जिसे इस दृष्टि से समझने का प्रयास ही नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए गोदान की कथावस्तु को मार्क्सवादी आलोचकों ने भारतीय समाज एवं संस्कृति के   यथार्थवादी चित्रण मानकर परम्परा की आलोचना की। जबकि गोदान  एक महान छायावादी उपन्यास है, जिसमें अंग्रेजी राज द्वारा उत्पादित उपनिवेशवादी समाज के निर्माण की प्रक्रिया में समाज की विकलता एवं विरूपता का चित्रण है, जिसकी समस्याओं का निदान महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज में है न कि मार्क्सवादी क्रांति में। होरी और धनिया अंग्रेजी उपनिवेशवाद के द्वारा निर्मित सामाजिक परिस्थिति से पीड़ित हैं, वे लोग हिन्द स्वराज द्वारा अपेक्षित ग्रामीण स्वराज के वास्तविक पात्र नहीं हैं। गोदान का यथार्थ विदेशी दासता की बोझ तले विद्रूप हुए समाज का यर्थाथ हैं, इसमे सामान्य भारतीय पारम्परिक गांव के सामाजिक संबंधों के यर्थाथ का चित्रण नहीं है। ठीक उसी प्रकार निराला की प्रतिनिधि रचना कुकुरमुत्ता या 'तोड़ती पत्थर' भी अंग्रेजी राज की पराधीन दशा की आलोचना है। निराला की विचारधारा का दस्तावेज 'राम की शक्ति पूजा' और 'तुलसीदास' के काव्य में अभिव्यक्त हुआ है। 'तोड़ती पत्थर' और 'राम की शक्ति पूजा' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। निराला तुलसीदास के ही वारिस हैं। वे तुलसीदास की विचारधारा के समकालीन प्रतिनिधि है। दोनों ने प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग के बीच तथा वैष्णव  एवं शाक्त परम्परा के बीच समन्वय का काम किया है। मुगलकाल की दासता से तुलसीदास को भारतीय नवजागरण का संदर्भ मिलता है। अंग्रेजीराज की दासता से निराला को भारतीय नवजागरण का संदर्भ मिलता है। जागो फिर एक बार नामक कविता में निराला का असली स्वरुप सामने आता है। तुलसी के उत्तराधिकारी रचनाकार होने और परम्परा के स्रोत से जुड़े होने के कारण ही निराला मार्क्सवादी आलोचना के चौखट में समा नहीं पाते और उनकी खंडित व्याख्या प्रस्तुत करने की विवशता प्रकट हो जाती है।

प्रेमचंद के सेवासदन में गांधी का सेवाग्राम आश्रम की छाया है और गोदान में हिन्द स्वराज की विचारधारा से उपनिवेशवादी समाज की ठेंठ भारतीय आलोचना है। प्रेमचंद की दोनों रचनाओं को एक ही गांधीवाद की दो परिस्थितियों में अभिन्न अभिव्यक्ति मानना पड़ेगा। गबन का नायक अंग्रेजी राज में पैदा हुआ काला अंग्रेज है। वह भारतीय मध्यवर्ग का प्रतिनिधि है। गबन के नायक की तुलना गोदान के मिस्टर मेहता से करना चाहिए। निर्मला उपन्यास में गांधी और दयानंद की विचारधाराओं का संश्लेषण है।ठीक इसी प्रकार पंत की आरंभिक और बाद की रचनाओं में कृत्रिम विभाजन नहीं किया जा सकता। पंत एक वैष्णव रचनाकार हैं। वे श्री अरविन्दो की तरह वासुदेव कृष्ण के उपासक हैं। प्रकृति को समर्पित पंत की रचनाएं - पल्लव और गुंजन में प्रकृति वासुदेव कृष्ण के शरीर का विस्तार है। वह उस तरह की निर्जीव प्रकृति नहीं है जो वर्डसवर्थ जैसे रोमांटिक कवियों में 'नेचर' की तात्विक स्थिति है। उनकी कविताओं में प्रकृति जर्मन कवि गेटे (या गोथे) की तरह एक रहस्यवादी चीज है जो श्री अरबिन्दो की सावित्री महाकाव्य में भी है। पंत की बाद की रचनाओं पर तो श्री अरबिन्दो का स्पष्ट प्रभाव है ही, प्रारंभिक रचनाओं में भी श्री अरबिन्दो की रचनाओं से सहधर्मिता है।

महादेवी समकालीन मीराबाई हैं। वे भारतीय परम्परा में राधातत्व की अभिव्यक्ति हैं। उनकी रचनाओं में वही करुणा, वही वात्सल्य, वही श्रृंगार, वही शांत रस, वही अद्भुत तत्व मिलता है जो मीराबाई की रचनाओं में या श्रीमद्भागवत की नायिका राधा में है। वे प्रकृति की स्वतंत्र स्त्री चेतना की रचनात्मक अभिव्यक्ति हैं। वे मुक्त रचनाकार हैं। वे एक साथ माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका और तपस्विनी की तरह प्रकृति, नियति और समाज से संबंधित होती है तथा संबोधित करती हैं। प्रसाद की कामायनी एवं प्रसाद के नाटक भारतीय परम्परा की समकालीन अभिव्यक्ति हैं। इसमें शैवागम का तांत्रिक मत अपने समकालीन विलास में  अभिव्यक्ति हुआ है। तंत्रालोक या ध्वन्यालोक, शिव सूत्र या विज्ञानभैरव की भाषा समकालीन पाठकों के लिए दुरूह है। प्रसाद ने इसी सिध्दांत को समकालीन भाषा एवं समकालीन मुहाबरे में प्रस्तुत किया है। उनके नाटक पश्चिमी अर्थों में ऐतिहासिक नहीं हैं, बल्कि भारतीय जीवन- आदर्शों तथा समाजिक आदर्शों की ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से समकालीन अभिव्यक्ति हैं। उनके नाटक उसी प्रकार भारतीय  पारम्परिक आदर्शों को अभिव्यक्त करते हैं जिस तरह तुलसीदास वाल्मीकि के रामायण को अभिव्यक्त करते हैं या महात्मा गांधी हिन्द स्वराज में अंग्रेजीराज से पूर्व के भारतीय ग्रामीण समुदाय को प्रस्तुत करते हैं। यह सृजानात्मक अन्वयन है, स्वतंत्र कृति नहीं ।  यह मिथक रचना या पुरा-लेखन जैसी कृति है। इसमें एक पारम्परिक मानक है परंतु साँचा नया है, समकालीन है। कथा वस्तु सनातन है, लेकिन रूपविधान नया है।

 

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