छायावाद का वास्तविक स्वरूप
पेज 5 परंतु स्वामी विवेकानंद के बारे में चेलिशेव से सहमत होना कठिन है कि ''विवेकानंद प्रथमत: धार्मिक सुधारक थे। उनके सामाजिक और राजनैतिक आर्दश काल्पनिक थे।'' विवेकानंद के विचार पारम्परिक एवं आधुनिक विचारों के समन्वय पर आधारित थे इसे काल्पनिक कहना चेलिशेव की नासमझी है। विवेकानंद अद्वैतवेदांत के समकालीन प्रतिनिधि थे और उनके विचार ठोस भारतीय दर्शन पर आधारित थे। छायावादी साहित्य की व्याख्या करते हुए सुमित्रानंदन पंत पल्लव(1926) की प्रस्तावना में सर्वव्यापी सामंजस्य का पक्ष-पोषण करते हैं। चिर-परिवर्तनशील और चिर-नवीन, चिर-युवा और सुन्दर प्रकृति में इस सामांजस्य की सर्वथा समीचीन अभिव्यक्ति पंत की रचनाओं में मिलती है। मानव-जीवन में भी ऐसा ही सामंजस्य देखने की कवि की इच्छा है। वास्तविकता और कल्पना (संभावना) की असंगति पर काबू पाकर छायावादी कवि प्राणवान यथार्थ को आदर्श मूल्यों से सहज रूप से जोड़ते हैं; महान अतीत , दुखद वर्तमान और उज्जवल भविष्य को एक सूत्र में बांधते हैं। अनुभूतियों के गहनतम सूक्ष्म प्रकाश डालने में पंत को महारत हासिल थी। प्रभाकर माचवे कहते हैं कि छायावाद मार्ग-सन्धि की कविता है, जिसमें दो मार्गो में से अनेक को चुना जा सकता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी के विचार धारात्मक एवं सौन्दर्य बोधात्मक सिद्वांतों पर आधारित उपदेशवादी और बुद्विवादी कविता से सन्तोष न पाकर निराला ने चैतन्यशील प्रकृति के आंतरिक जगत में प्रवेश किया। उनकी विद्रोही मन:स्थिति को, जीवन को नूतन बनाने और मानव-आत्मा को मुक्त करने की उनकी अभिलाषा को यह प्रकृति प्रतिबिम्बित करती थी। कुछ आलोचकों के अनुसार प्रसाद की कामायनी छायावाद की अंतिम श्रेष्ठ उपलब्धि है। हिन्दी कविता के नूतनीकरण की इच्छा से प्रेरित होकर प्रसाद ने कामायनी में भारत की पौराणिक कथाओं के पात्रों और विषय-वस्तुओं को नये सांचों में ढ़ाला है। ठीक इसी प्रकार महादेवी वर्मा के बारे में यह कहा जाता है कि रहस्यवादी गूढ़ार्थ, विश्व के मर्मो में पैठने की अभिलाषा, नीरव स्वरों और अर्धस्वरों से ध्वनित लघु प्रगीतात्मकता, चिरस्थायी विषादभरी मन: स्थिति बौध्दधर्म से प्रभावित करुणा की पुकारें आदि महादेवी वर्मा की कविता की विशिष्टतायें हैं। छायावादी कविता बिम्ब, प्रतीक, रूपक और उपमाओं के साथ भावावेगों से भी ओतप्रोत है। छायावादी कवि काव्य- सृजन के प्रति प्राचीन भारतीय छन्द शास्त्र के नियमों को नहीं मानते। काव्य रूपों के परिष्कार का प्रयत्न अपने आप में उनका ध्येय नहीं होता। उनका ध्येय मनुष्य के आंतरिक जगत का सर्वांगीण उद्धाटन होता है। विश्व के प्रति नये, समन्वित दृष्टिकोण को नये रूप में मूर्त करना उनका प्रमुख उद्देश्य होता है। पल्लव की प्रस्तावना में पंत ने लिखा है कि 'कविता के लिए चित्र भाषा की आवश्यकता पड़ती है, उसके शब्द सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, जो अपने भावों को अपनी ही ध्वनि में आखों के सामने चित्रित कर सकें'। भाषा में, शैली में, विषयवस्तु के चयन में, संयोजन में सबमें छायावादी कवि रीतिकालीन नियम - भंग करते हैं, नये अलकांर लागू करते हैं, मौलिक काव्य - रूपों, छंदों, नये लयविन्यास और तुकों की प्रणालियों का सृजन करते हैं। उत्तरमध्य युगीन काव्य में ऐन्द्रिक प्रेम- पात्रा के ही रूप में नारी का चित्रण होता था और उसके सौन्दर्य के बाह्य लक्षणों पर ही ध्यान दिया जाता था इसके विपरीत छायावादी कवियों के लिए स्त्री का आन्तरिक जगत ही प्रधान होता है। उसकी भावनाओं, मन: स्थितियों और अनुभूतियों की सम्पूर्ण विविधता को वे प्रकाश में लाते हैं। छायावादी कवियों की सृजन - प्रेरणा का प्रधान - स्रोत मध्यकालीन भक्ति - काव्यधारा रही है जिसका उद्भव मध्यकालीन उत्पीड़न और अवरूध्द जीवन - क्रम के विरुध्द प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। इसका उद्देश्य एक विपरीत समय में भारतीय संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्ध्दन था। ठीक उसी तरह छायावाद का जन्म रीति - कालीन कविता निवृत्ति मार्गी परम्परा और सूफी श्रृंगार के साथ - साथ अंग्रेंजीराज के पूंजीवादी उपभोक्तावाद के विरुध्द भारतीय नवजागरण के उन्मेष के रूप में हुआ। मार्क्सवादी आलोचकों ने भक्ति साहित्य और छायावाद को अपनी विचारधारा के प्रचार - प्रसार के लिए एक हथियार के रूप में उपयोग कर हिन्दी भाषी जनता के साथ छल किया है। यह ठीक है कि भक्ति साहित्य और छायावाद के स्वर में पर्याप्त जनपक्षधरता है परन्तु यह किसी भी दृष्टिकोण से भौतिकवादी या ऐन्द्रिक सुख को चरम मानने वाली विचारधारा के साथ मेल नहीं खाती।
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