Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छायावाद का वास्तविक स्वरूप

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छायावाद का वास्तविक स्वरूप

 

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पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी और प्रेमचंद आधुनिक काल के हिन्दी- नवजागरण के पंच महाभूत हैं। पंच महा'पुरूष' हैं। पंच महाचेतना हैं। ये हिन्दी की समकालीन साहित्य के वृहद पंच हैं। इनकी पंचायत में ही 'भारतीयता' का विवाद सुलझ सकता है। इनकी स्वीकृति से ही भारतीय दृष्टिकोण को वैधता मिल सकती है; वर्ना 'भारतीयता' के नाम पर प्राच्यवाद   (ओरिएंटलिज्म) ही परोसा जाता रहा है। खासकर मार्क्सवादी आलोचकों के द्वारा छायावाद को पश्चिमी रोमांटिसिज्म की छाया घोषित  किया जाता रहा है। सच्चाई यह है कि हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना एक प्रकार का प्राच्यवादी वाग्विलास ही अधिक है, रचनाओं और रचनाकारों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कम है। ये लोग एक कृत्रिम साँचे में छायावादी प्रवृत्ति को केवल कविता में शामिल करते हैं तथा गद्य साहित्य को इसके वलय से बाहर रखते हैं। ये लोग केवल 1918 से 1936 के बीच के काव्य (उच्छवास से युगांत) को छायावादी मानते हैं, जबकि 1917 से 1947 तक के गांधीयुग में हिन्दी साहित्य के गद्य एवं काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति छायावादी बनी रही है। अत:  छायावाद के वास्तविक स्वरूप का व्यवस्थित मूल्यांकन होना अभी बाकी है।फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आधुनिक भारत में छायावादी रचनाओं ने हिन्दी नवजागरण का एक सम्मिलित स्वर प्रस्तुत किया। इस स्वर के संभवत: सबसे सबल प्रतिनिधि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' थे।

निराला (जनवरी -1896 -15 अक्टूबर 1961) की रचनाओं में उनके युग की आत्मा प्रतिबिम्बित हुई है। उत्पीड़न और अत्याचार के सामने न झुकनेवाली अपनी विद्रोही, अदम्य और चिर अन्वेषणशील आत्मावाले महाकवि निराला का जीवन कंटकाकीर्ण था। उनका जीवन उनकी मातृभूमि और जनता के भाग्य से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। वह युग अन्तर्विरोधों से पूर्ण कठिन युग था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम स्वरूप में उपनिवेशवादी शिकंजे की चूलें हिला रहा था। नये भारत के निमार्ण के मार्गों की खोज हो रही थीं। शुरू में निराला सौन्दर्य, प्रेम और विषाद का गान करनेवाले रोमांटिक कवि थे। भारत की प्राचीन एवं मध्यकालीन धार्मिक और दार्शनिक शिक्षाओं में आस्था रखते थे। धीरे- धीरे उन्हें उपनिवेशवादी शिकंजे के सूक्ष्म पाश और स्वाधीनता आंदोलन के अंतर्विरोधी स्वरों की कमजोरी समझ में आने लगी और रचनात्मक स्तर पर वे अपने युगबोध को स्वतंत्र स्वर देने लगे। सौभाग्य से उस युग में जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा भी अपने युग बोध को स्वतंत्र स्वर दे रहे थे। यह कोई संगठित या समन्वित प्रयास नहीं था, परंतु इनकी रचनाओं के कथ्य-तथ्य, दृष्टिकोण, आदर्श एवं मूल्यों के स्तर पर सहधर्मिता थी। इसे छायावाद के नाम से लोकप्रियता मिली।

1919 में पत्नी और पिता की मृत्यु के बाद पुत्र-पुत्री और चार भतीजों के पालन - पोषण का सारा बोझ निराला जी पर आ गया। उस समय वे 23 वर्ष के थे। सन् 1920 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और आकस्मिक कामों से किसी तरह गुजारा करने लगे। इस दौरान उन्होंने तुलसीदास के कृतित्व तथा बंगाल एवं हिन्दी के व्याकरण का तुलनात्मक अध्ययन किया। इसी बीच उन्होंने सरस्वती पत्रिका में एक लेख लिखा। इस लेख से प्रभावित होकर महावीर प्रसाद  द्विवेदी ने उन्हें रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता की पत्रिका समन्वय में काम दिलवा दिया। वे श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानंद की रचनाओं के प्रभाव में आए। उन्होंने श्रीरामकृष्ण वचनामृत का बंगला भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया। एक बार उन्होंने कहा, ''जब मैं बोलता हूँ, तब यह न समझिए कि मैं बोल रहा हूँ। वास्तव में मेरी जबान से बोल रहे हैं स्वयं विवेकानंद।''स्वामी विवेकानंद की मृत्यु 1902 में हो चुकी थी परन्तु 1920 के आसपास उनका प्रभाव कलकत्ता में अपने चरम पर था। कलकत्ता में बिताए कुछ वर्षों की गहरी छाप निराला जी के सभी कार्यों पर अंत तक कमो - बेश बना रहा। उनके सामाजिक, राजनैतिक और सौन्दर्यबोधात्मक दृष्टिकोणों के गठन में इन वर्षों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। विवेकानंद एवं श्रीरामकृष्ण की रचनाओं के अलावा उन्होंने बंकिमचन्द्र  चट्टोपाध्याय,   शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे अन्य प्रसिध्द लेखकों की कृतियों का बंगला से हिन्दी अनुवाद भी किया।

सन् 1923 में निराला 'मतवाला' नामक हिन्दी पत्रिका में काम करने लगे। पत्रिका के अठारहवें अंक में निराला की 'जुही की कली' नामक कविता छपी जो उन्होंने 1916 में लिखी थी। इस पत्रिका के लिए उन्होंने साहित्य, दर्शन, धर्म आदि विषयों पर लेख, समीक्षा और शोध - प्रबंध लिखा। जुही की कली की रचना 1916 में हुई थी। इसी को ध्यान में रखकर छायावाद का प्रारंभ 1916 - 17 से मानने का तर्क सामने आया। जबकि इसका प्रकाशन 1923 के आसपास हुआ। परंतु निराला की पुस्तकाकार रचनाएं 1928 के बाद ही प्रकाशित हो पायी जब वे कलकत्ता से लखनऊ के एक प्रकाशनगृह में काम करने आए। तोड़ती पत्थर नामक कविता में निराला वास्तविकता की नकल नहीं उतारते। अभागी युवती के बिम्ब में वे सारी भारतीय जनता के हताशापूर्ण अभावों और दुख को देखते हैं। कविता की सारी बिम्बात्मक - संरचना उसके मूलभाव पर जोर देती है, उसे उग्र बनाती है। सरल, कथात्मक अंदाज, छोटी - छोटी पंक्तियाँ, बातचीत के ढंग की वक्तृता, लक्षणा एवं व्यंजना का लगभग अभाव, जीवनारूप सत्यता और दैनंदिन विशिष्टता का वातावरण उत्पन्न करते हैं।

 

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