छायावाद का वास्तविक स्वरूप
पेज 6 यह भारतीय नवजागरण को समवेत स्वर प्रदान करने वाला साहित्यिक युग है। उदाहरण के लिए, परम्परागत उपमाएं और रूपक पंत की कविताओं में नवीनता का सृजन करते हैं। जैसे पंत की दृष्टि में पर्वतीय वायु पेड़ों को या पत्तों को नहीं हिलाती, बल्कि बांसुरी बजाने वाले गोपवेशधारी भगवान कृष्ण बन जाती हैं। नवजात शिशु की तुलना पंत उस कोमल, अर्द्धोन्मीलित वासन्तिक कलिका से करते हैं, जो अभी यह नहीं जानती कि उसमें कैसे सौन्दर्य एवं सौरभ की निधि छिपी हुई है। पंत की कविता में पवन आकाश की उत्ताल तरंग बन जाता है, तो जल - प्रपात नीरव पर्वत का गूंजता हुआ गान, जबकि आकाश का तारा अति सुन्दर दिव्य विहंग बन जाता है। उसी तरह प्रसाद की कामायनी में काव्य का प्रधान वैचारिक सारतत्व अभिव्यक्त हुआ है तथापि ये कवि की व्यक्तिगत मनोंदशाओं के प्रतीक नहीं हैं। काम की पुत्री श्रध्दा और मानव वंश के प्रणेता मनु भारत के पौराणिक पात्र हैं। प्रसाद उनमें आधुनिक मानवीय तत्व भरते हैं। वह यह सन्देश देना चाहते हैं कि आत्म त्यागपूर्ण हार्दिक प्रेम, नि: स्वार्थता और आन्तरिक शुध्दता मनुष्य के वे गुण हैं, जो स्वार्थ परता, हिंसा और क्रूरता पर आधारित आधुनिक समाज में स्वास्थ्यकर औषधि का काम दे सकते हैं। उसी तरह मीरा बाई के प्रगीतों में भगवान के प्रति आध्यात्मिक प्रेम प्राय: वास्तविक मानवीय भावना का रूप ले लेता है, मनुष्य को शुध्द करता है, उसे उदात्त आदर्शों की ओर प्रेरित करता है। प्रकृति - वर्णन, प्रेम और धार्मिक - दार्शनिक चिन्तन से पूर्ण भक्ति काव्य में मनुष्य की सुन्दरता समंजस रूप से प्रकृति की सुन्दरता से एकाकार हो जाती है। बंगला के भक्तकवि गोविन्ददास के गीतों में कृष्ण की प्रेमिका के अंगों में आसपास का सारा जगत् दिखाई देता है। पार्थिव मानव के प्रति भक्तिकाव्य की रूचि और प्रकृति की प्रतिमाओं की सहायता से उसके आन्तरिक जगत पर प्रकाश डालने और उसके बाह्य रूप का वर्णन करने के प्रयत्न का छायावादी कवियों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। उसी तरह प्रेमचंद के कथा साहित्य में नौ रसों का वर्णन है। कफन, पूस की रात जैसी जनपक्षधर कहानी के साथ प्रेमचंद ने पंच परमेश्वर और बड़े घर की बेटी जैसी आदर्शवादी कहानी भी लिखी थी। गोदान के साथ सेवासदन भी लिखा था। जिस तरह तुलसीदास की सम्पूर्ण रचनाओं में मध्यकालीन जीवन की सभी छटा काव्य के रूप में व्यक्त हुई है ठीक उसी प्रकार छायावादी साहित्य के गद्य एवं काव्य सभी रूपों में अंग्रेजीराज के उत्तरार्ध्द के दौरान भारतीय जीवन की जड़ता और गतिशीलता, सौन्दर्य एवं विरूपता सबका समग्र एवं संतुलित वर्णन है। भक्तिकाल और छायावादी युग में समरूपता तो नहीं है परन्तु सहधर्मिता एवं समानधर्मिता अवश्य है।
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