Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

हिन्दी सिनेमा की प्रमुख प्रवृत्तियां

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हिन्दी सिनेमा की प्रमुख प्रवृत्तियां

 

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2001 में प्रदर्शित फिल्म लगान समकालीन हिन्दी सिनेमा का मूल पाठ है। इसके निर्देशक आशुतोष गोवरिकर है। यह कहानी और पटकथा की दृष्टि से 1957 की फिल्म नया दौर (बी. आर. चोपड़ा) से बेहतर फिल्म है। तांगा और मोटर (मैन बनाम मशीन) की रेस में तांगा की जीत 1957 में लोग देख - समझ - कुछ हद तक विश्वास कर सकते थे चुंकि नेहरू  युग में महात्मा गांधी की विचारधारा एक वैकल्पिक स्वप्न के रूप में जिन्दा थी। आज की नई पीढ़ी नया दौर को भूतकाल की स्मृति में एक यात्रा मानकर के तहत उसी तरह देखती है जैसे पुरातात्विक संग्रहालय देखा जाता है। उसमें नया दौर 1957 की प्रतिनिधि फिल्म न होकर 18 वीं शताब्दी की फिल्म लगती है। 18 वीं -19 वीं शताब्दी के बीच की ही कहानी लगान में भी है। गोस्त खाओ ''क्रिकेट के खेल में जीत लगान में माफी'' या ''गोस्त खाओ तो मंदिर में पूजा की व्यवस्था की जा सकती है'' जैसी नैतिक दुविधा से भारतीय लोग 1757 और 1857 के बीच जूझ रहे थे। बाद में भारतीय मध्यवर्ग का उसी तरह विकास हुआ जिस तरह क्रिकेट, चाय, अंग्रेजी शिक्षा, अफीम, कुत्ता पालना, कोट पतलून और सरकारी नौकरी का महिमामंडन हुआ। 1983 का     एकदिवसीय विश्वकप (कपिल देव) संभवत: आशुतोष गोवरिकर के लिए स्थूल मेटाफर रहा हो (लॉइर्स के मैदान पर 1983 में वेस्टइंडिज को हराकर विश्वकप जीतना)। भुवन में कपिल देव की छाया है या धोनी का भविष्य लेकिन 2001 में बनी लगान देबकी बोस से मनोज कुमार (चंडीदास से (क्रांति या) रोटी कपड़ा और मकान) तक की धारा का पुनरोदय है।
कलात्मक रूप से स्वदेश और जोधा अकबर में आशुतोष उत्तरोत्तर निखरते चले गए। वे देवकी बोस, लेखटंडन परम्परा के फिल्मकार हैं। उनका संबंध थियेटर से रहा है। मराठी थियेटर या हिन्दी थियेटर का उनका एक ग्रुप था। जिसमें आमिरखान भी शामिल थे। कई फ्लॉप के बाद लगान बनी। लगान एक डिफेंसिव फिल्म है। स्वदेश में एक एजेंडा या मेनिफेस्टो है। लेकिन जोधा अकबर में एक ऐतिहासिक दृष्टि है। यह सनातन धर्म की स्वाभाविक कथा है जिसमें ऐतिहासिक जबड़े में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना अपनी आत्माभिव्यक्ति करती है। यह राज्य बनाम लोक समाज, राजा बनाम सामान्य नारी के सत्ता विमर्थ की अनहोनी अनगढ़ कथा जिसे संरचात्मक विन्यास के संभावना शून्य रेगिस्तान में एक दूब की तरह उगते दिखलाया गया है। 2008 भारतीय सिनेमा के लिए अद्भुत वर्ष है। 2007 में भूल भूलैया, गुरू और नमस्ते लंदन महत्वपूर्ण फिल्म थी। 2008 में रेस, जाने तू या जाने ना, किस्मत कनेक्शन, सिंह इज किंग पिछले वर्ष(2007) की चक दे इंडिया, तारे जमीन पर और खुदा के लिए की श्रृखला है। आ जा नचले, भूतनाथ या थोड़ा प्यार, थोड़ा मैजिक की नीयत अच्छी थी। सांवरिया में महान बनने की जिद आड़े आ गया।
महान बनने कहलाने की सनक संजीदा इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी (रोग) साबित होती है। कलाकार या साधक को महानता की प्राप्ति के लिए सनक या जुनून न हो तो उसमें जोश या उत्साह नहीं होता। लेकिन महानता के पीछे भागने वाले लोग आत्ममुग्धता के रोग से ऐसे ग्रसित होते हैं कि हम दिल दे चुके सनम की ऊंचाई से देवदास, ब्लैक, सांवरिया की यात्रा कर बैठते है। या सरफरोश से शिखर पर पहुंच जाते हैं या आग से सत्यम शिवम सुन्दरम और राम तेरी गंगा मैली तक पहुंच जाते हैं। या देवर्षि नारद से बंदर बन जाते है। इसी लिए कला की फिसलन पर भक्तिमार्ग के साधकों ने सबसे ज्यादा उपलब्धि प्राप्त किया है। कर्ममार्ग या ज्ञान मार्ग में महानता का रोग महामारी की तरह फैलता रहा है। विश्वविद्यालय एवं कला के क्षेत्रों में सामान्य साधकों का हमेशा अभाव रहा है, 'महान साधक' ही ज्यादा रहते हैं। व्यक्तिगत पतन और कलात्मक उत्पाद कलियुग में अलग - अलग चीजें हैं। मनोज कुमार, राजकपूर, मनमोहन देसाई या यश चोपड़ा से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उपकार, रोटी कपड़ा और मकान, पूरब और पश्चिम तथा शहीद की तुलना मेहबूब, शांताराम, बिमल रॉय या केदार शर्मा की फिल्मों से की जानी चाहिए।

 

 

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