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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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हिन्दी सिनेमा की प्रमुख प्रवृत्तियां
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हिन्दी सिनेमा की प्रमुख प्रवृत्तियां
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भारतीय सिनेमा में पंजाबियों और बंगालियों के बाद पारसी समुदाय के लोगों की भूमिका संभवत: सबसे अधिक रही है। भारतीय सिनेमा को कलकत्ता से छोटे शहरों और कस्बों तक ले जाने में कलकत्ता के मदान थियेटर के मदान साहब और बाद में सोहराब मोदी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। मदान ने प्रदर्शन श्रृंखला का निर्माण किया था। सोहराब मोदी ने भी चलते फिरते सिनेमा को लेकर अनेक नगरों और कस्बों की यात्राएं की तथा प्रदर्शन क्षेत्र में सफलता अर्जित करके फिल्म निर्माण में प्रवेश किया। सोहराब मोदी ने ठेठ पारसी थियेटर की परम्परा में इतिहास आधारित सिनेमा का विकास किया। सिकंदर और पुकार ने भारी सफलता अर्जित की लेकिन रानी लक्ष्मीबाई की व्यावसायिक सफलता ने मिनर्वा मूवीटोन की कमर तोड़ दी।
आजाद भारत के दर्शक की बदलती हुई रूचियों की अवहेलना के कारण सोहराब मोदी समेत कई महारथियों के सिनेमा का दुखांत हुआ और दशकों से संचित जायदाद और गुडविल का क्षरण शुरू हुआ। भारत के सबसे पुराने और सर्वाधिक गौरवशाली घराने टाटा ने भी किसी जमाने में पहल की थी। जे. बीज वाडिया और मेहबूब खान की कुछ फिल्मों में उन लोगों ने पैसा लगाया था। अभी कुछ वर्ष पूर्व टाटा की एक शाखा ने फिल्म निर्माण में पूंजी लगाई थी परन्तु निर्माता के गैर व्यवसायी तौर - तरीकों से तंग आकर उस शाखा को ही किसी अन्य कारपोरेट को बेच दिया। अनुशासन को धर्म मानने वाले पारसी लोग सितारा मूड से शासित उद्योग के साथ सहकार करने में असहनता पाते रहे हैं। वाडिया भाइयों ने सितारों को लेकर फिल्में बनाने की बजाय अपनी शर्तों पर अपनी शैली की फिल्में बनायी। जैसे राजश्री प्रोडक्शंस वाले बनाते रहे हैं। या महेश भट्ट बनाने की कोशिश करते हैं।
ऐतबार (अमिताभ, जॉन अब्राहम) में टाटा का पैसा लगा था और इसे सुजीत कुमार के बेटे ने बनाया था। टाटा ने मुंबई में एक सिनेमा घर का भी निर्माण किया है जो आज भी चल रहा है। वाडिया ब्रदर्श की स्टंट फिल्मों में ट्रिक फोटोग्राफी का विकास हुआ था। वाडिया के स्टूडियो में तकनीकी प्रयोग लगातार होते रहे। बाबू भाई मिस्री और पीटर परेरा जैसे ट्रिक फोटोग्राफी के महारथी वाडिया ब्रदर्श के ही शार्गिद थे। पीटर परेरा ने मि. इंडिया की लोकप्रियता में भूमिका निभायी थी।
जाल मिस्री और उनके भाई फाली मिस्री भी पारसी थे। जाल मिस्री ने राजकपूर और चेतन आनंद की फिल्मों में अद्भुत फोटोग्राफी की थी उदाहरण के फिल्म बरसात एवं कुदरत में। मेहबूब खान को आर्देशर ईराणी, टाटा परिवार और फरदून ईराणी का सहयोग मिलता रहा था। फरदून ईराणी डॉन 1978 के निर्माता थे। मीनू कात्रक और सरोश मोदी मेकअप के क्षेत्र में तकनीकी दक्षता के प्रतिमान हैं। फारूख रत्नोशी ने खुद्दार, काश और जुबैदा का निर्माण किया। भारतीय सिनेमा के तकनीकी पक्ष को विकसित करने में पारसी समुदाय के लोगों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। अभिनय में भी तकनीकी दक्षता की दृष्टि से अरूणा ईराणी या बोमन ईराणी की तुलना किसी भी दक्ष कलाकार से की जा सकती है। भारतीय सिनेमा के वर्तमान फिल्म उद्योग में कारपोरेट शैली के उदय के साथ पारसी प्रतिभा और अनुशासन का मॉडेल उपयोग में आ सकता है।
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