उभरती हुई विश्वव्यवस्था एवं भारतीय राजनीति
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1960 के दशक से अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी यूरोप और नैटो गठबंधन के देशों में काफी तीव्र गति से ग्लोबलाइजेशन या वैश्वीकरण की प्रक्रिया चल रही है। 1989 में पूर्वी जर्मनी का पश्चिमी जर्मनी में विलय हो गया। 1991 तक आते-आते सोवियत संघ का विघटन हो गया और पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ समर्थक द्वितीय विश्व में भी ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया तेज हो गई। देंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में चीन ने 1978 के आसपास बाजारी समाजवाद को स्वीकार करके चीन को ग्लोबलाइजेशन से जोड़ दिया। 1970 के दशक में तीसरी दुनिया में गुट-निरपेक्ष आंदोलन दम तोड़ चुका था और पूरी दुनिया दो गुटों के बीच बंट चुकी थी। सोवियत संघ के पतन होते ही तीसरी दुनिया में अमेरिकी प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ और इनकी अर्थव्यवस्थाओं में भी ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव बढ़ने लगा। 1991 तक आत-आते भारत में भी उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू करके भारतीय अर्थव्यवस्था को अमेरिकी ग्लोबलाइजेशन के प्रभाव में विकसित होने के लिए बाध्य होना पड़ा। 1971 तक आते-आते भारत सोवियत गुट में शामिल हो चुका था। नेहरू ने 1947-48 में अमेरिकी प्रस्ताव को खारिज करके गुटनिरपेक्ष रहने का निर्णय किया फलस्वरूप मजबूरन अमेरिका को पाकिस्तान को अपना मित्र एवं मोहरा बनाना पड़ा। यदि नेहरू अमेरिकी प्रस्ताव स्वीकार कर नैटो गठबंधन में शामिल हो गए होते तो दक्षिण एशिया का इतिहास कुछ और होता। नैटो देशों में प्रजातांत्रिक पूंजीवादी की नीति मानी जाती है। भारत में नेहरू ने प्रजातांत्रिक समाजवाद की नीति अपनाया। चीन में समाजवादी तानाशाही रहते हुए भी चीन सोवियत गुट से 1960 के दशक में ही अलग हो चुका था। स्टालिन और माओत्से तुंग की मार्क्सवादी समाजवाद की व्याख्या अलग विन्यास में विकसित हुई। माओ के मरते ही देंग ने चीन को बाजारवादी समाजवाद के रास्ते पर चलाना शुरू किया। स्टालिन के उत्तराधिकारियों ने 1970 के दशक में सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को सोवियत विदेश नीति के दबाब में चरमराने दिया लेकिन जरूरी परिवर्तन नहीं किया। फलस्वरूप 1990 तक आते-आते स्थिति विष्फोटक हो गई और चीन की तरह सोवियत संघ का समाजवादी राजनीतिक व्यवस्था कायम नहीं रह पाया। गोर्बाचोव एवं येल्तसिन देंग की तरह विजनरी नहीं थे। मंदी के इस दौर में करीब 30 लाख लोग चीन में बेरोजगार हुए हैं। चीन में करीब 40 लाख लोग सेना में हैं। चीन की सेना दुनिया की सबसे बड़ी सेना है। अमेरिका केन्द्रित विश्वव्यापी मंदी ने चीन में बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज खड़ी की है। फिर भी चीन की मार्क्सवादी सरकार अपनी नीतियों में बदलाव नहीं लाने वाली है। एक पार्टी की तानाशाही में इस असंतोष को कुचलना कोई मुश्किल काम नहीं है। चीन के पास खेतीहर जमीन भारत से कम है। उसकी जनसंख्या 135 करोड़ है। भारत की जनसंख्या 120 करोड है। चीन के लैंड मास में पहाड़ी जमीन ज्यादा है खेतीहर कम। लेकिन उपज दर भारत से ज्यादा है। 20 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था पहले नम्बर की हो सकती है यदि विजनरी लीडरशिप आम आदमी का प्रशिक्षण करके उनकी क्षमता का तकनीकि विकास कर सके।
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