Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

उभरती हुई विश्वव्यवस्था एवं भारतीय राजनीति

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उभरती हुई विश्वव्यवस्था एवं भारतीय राजनीति

 

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सौभाग्य से 1991 से 1996 के बीच नेहरूवादी कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व पी. वी. नरसिम्हा राव जैसे विजनरी नेता के पास था। भारत उस दम घोंटु माहौल से बाहर निकल आया। 1996 से 1998 के बीच राजनीतिक अस्थिरता रही लेकिन नरसिंह राव की सही समय की गई सही नीतियों के हस्तक्षेप के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था सरपट दौड़ने लगी। फिर 1998 से 2004 तक अटल बिहारी बाजपेयी के कुशल नेतृत्व में नरसिंह राव की नीतियों को तार्किक परिणति दी गई। 2004 से अब तक मनमोहन सिंह उन्हीं नीतियों को कुल मिलाकर आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से विश्व अर्थव्यवस्था सितम्बर 2008 से स्टैगफलेशन यानि मंदी के भयानक दौर से गुजर रही है। करीब हर तीस साल बाद अर्थव्यवस्था में मंदी का ऐसा दौर आया  करता है। भारतीय ज्योतिषी इसे सिंह राशि के शनि का प्रभाव कहते हैं। इस मंदी के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था तुलनात्मक रूप से कम प्रभावित रही है लेकिन कमरतोड़ मंहगाई से आम आदमी का जीवन बेहाल हो गया है। इस मंहगाई से राहत दिलाने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार के साथ न तो कोई योजना है और न इच्छा शक्ति। विदेश नीति के मोर्चों पर भी मनमोहन सिंह की सरकार के पास कोई दीर्घकालिक नीति में दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव दिखता है। विश्व में अमेरिकी वर्चस्व को जेहादी इस्लाम और माओवादी आतंकवाद का रणनीतिक गंठजोड़ कम से कम एशिया में लगातार चुनौती दे रहा है। अमेरिका बार-बार नीतिगत भूल कर रहा है। माओंवादियों के पीछे चीन है। जेहादी इस्लाम के केन्द्र में पाकिस्तान एवं ईरान। 1978 से जेनरल    जियाउल हक ने पाकिस्तान को जेहादी इस्लाम का प्रयोगशाला बना दिया है। इसी बीच 1979 में ईरान में इस्लामिक का्रंति हो गई। तब से पाकिस्तान और ईरान जेहादी इस्लाम को अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ वैचारिक एवं रणनीतिक नेतृत्व दे रहे हैं। संयोग से 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में घुसपैठ कर अपने सर्मथकों की सरकार बनाने की भूल कर दिया। अमेरिकी नेतृत्व ने रूसी हस्तक्षेप के खिलाफ अफगानिस्तान में मुजाहिदीन एवं तालिबान को खड़ा किया और पाकिस्तान की लगातार आर्थिक एवं सैनिक मदद करता रहा। 1979 से 2009 तक पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को अमेरिकी मदद लगातार मिलती रही। पाकिस्तानी सेना को अमेरिका के साथ - साथ चीन की मदद भी मिलता रहा। अमेरिका की चीन नीति भी खामियों से भरपूर है। एक तरफ अमेरिका चीन के आर्थिक विकास में 1979 से लगातार आर्थिक मदद करता रहा है दूसरी ओर चीन अपने समाजवादी तानाशाही के चलते अपने गरीब मजदूरों और स्थानीय पर्यावरण का असीम शोषण करके लगातार अमेरिका  अर्थव्यवस्था एवं अमेरिकी विदेश नीति के ऐशियायी लक्ष्यों को खोखला करता रहा है। खासकर बाजारवादी प्रजातंत्र के विस्तार की घोषित नीति के खिलाफ चीनी और पाकिस्तानी गठजोड़ काफी खतरनाक साबित हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में भारत और अमेरिका के बीच बहुआयामी विमर्श की आवश्यकता है। लेकिन इस विमर्श को चलाने की पात्रता, अनुभव, कल्पनाशीलता एवं दृढ़ता मनमोहन सिंह सरकार में नहीं है। दुर्भाग्य से अन्य राजनीतिक दलों का नेतृत्व भी बौध्दिक रूप से अपरिपक्व एवं रणनीतिक दृष्टि से बौना है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक अप्रत्याशित रूप से मुश्किल समय में जी रहे हैं।

इकीसवीं शताब्दी के पहले दशक में आतंकवादी घटनाओं के साथ - साथ ईंग्लैंड, स्पेन, फ्रांस जैसे विकसित देशों में भी अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं। इनमें अधिकांश सशस्त्र आंदोलन हैं। 2001 से 2004 के बीच विश्व के 31 संप्रभुराष्ट्रों में अलगाववादी घटनायें चल रही हैं। 1989 के बाद यूरोप समेत पूरी दुनिया में पूरे कोल्डवार (1945 से 1989) से  ज्यादा युध्द हुए है। 1989 के बाद असफल राष्ट्र - राज्यों की संख्या बढ़ी है। इसी तरह पूरी दुनिया में महामारी का सामान्य भय बढ़ा है। जिस तरह मध्य काल में ब्लैक डेथ (काली मृत्य) का भय फैला रहता था उसी तरह अब एड्स एवं किस्म- किस्म के फ्लु (जैसे स्वाइन फ्लु, एवियन फ्लु) जैसी महामारियों का भय फैला रहता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम का प्राकृतिक असंतुलन बढ़ा है। कहीं सूखा, कहीं बाढ़, कहीं अल नीनो, कहीं सुनामी, कहीं कैटरीना (समुद्री ज्वार) और कहीं भूकंप का डर बैठा है तो कहीं चोरी, डकैती, बलात्कार या बम विस्फोट का डर बैठा है।

 

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