उभरती हुई विश्वव्यवस्था एवं भारतीय राजनीति
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अभी सारी दुनिया मंदी से और भारत की आम जनता महंगाई से त्रस्त है। 1930 की महामंदी के समय बेरोजगारी में 25 फीसदी से भी ज्यादा उछाल आया था, शेयरों के दाम अस्सी फीसदी से भी ज्यादा गिर गए थे। हजारों बैंकों में ताले लगा दिए गए थे और गृहविहीन हो चुके लोगों को न्यूयॉर्क और देश के दूसरे हिस्सों में उग आए टेंट-शहरों में लंबे अरसे तक गुजर-बसर करनी पड़ी थी। 1973-1974 की आर्थिक गिरावट का नतीजा यह निकला था कि कई साल तक दो अंको की मुद्रास्फीति ने व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले लिया था और न्यूयॉर्क शहर तकरीबन दिवालिया होने के कगार पर था। दुनिया में दूसरी जगहों पर 1930 की मंदी के कारण सरकारों का पतन हो गया था और गुस्साई भीड़ द्वारा सत्ता के केंद्रों पर हमले करने की खबरें आ रही थीं। आज के अमेरिका में सवा करोड़ से कुछ ज्यादा कारखाना कर्मचारी जितना माल पैदा करते हैं, पचास साल पहले उतना उत्पादन पांच से छह करोड़ लोग कर पाते थे। इसी तरह आज अमेरिका के तीस लाख किसान जितनी पैदावार निकालते हैं, उतनी पैदावार तीस के दशक में दस करोड़ किसानों की मेहनत से होती थी। ये तथ्य कुछ-कुछ बता सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी की पहली मंदी का सामाजिक असर उतना खराब क्यों नहीं पड़ा। विशेषज्ञों की एक दिलचस्प मान्यता यह बन रही है कि ग्लोबल पैमाने पर लगातार चलते रहने वाले पूंजी प्रवाह के इस अनूठे युग में ऐसी मंदियां बार-बार आएंगी और उन देशों को ज्यादा सताएंगी जो समझदारी का दामन छोड़ कर ज्यादा बड़ा आर्थिक एडवेंचर करने के फेर में रहेंगे। भूमंडलीकरण के कारण दुनिया आपस में पहले से कहीं ज्यादा जुड़ चुकी है, इसके बावजूद अमेरिका और यूरोप पर आए संकट का असर बाकी दुनिया पर खास नहीं पड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था को आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षाकृत बंद प्रणाली के तौर पर देखा जाता है जिसका लाभ उसे मिलना लाजमी था। दूसरे, भारत के बैंक आज भी कर्ज देने और वसूली आदि के उन कड़े नियमों का पालन करते हैं जिनका नब्बे के दशक में पश्चिमी लोग मजाक बनाते थे। यह दूसरी बात है कि वही लोग आज उन नियमों को भारत की खूबी मान रहे हैं। आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व व्यापी मंदी से तो बची हुई है लेकिन बेहिसाब महंगाई से परेशान है। खासकर आम आदमी इस खुदरा महंगाई से बहुत परेशान है। भारत में समकालीन महंगाई का असली कारण बेहिसाब मुनाफा खोरी है। मुनाफाखोरी अब व्यावसायिक सफलता और चतुराई का दूसरा नाम है। आज बाजार पर आधारित प्रतियोगिता प्रतियोगिता से अलग हो चुका है। कंपनियों की ताकत व उनके संसाधन काफी बढ़ते जा रहे हैं। जिसकी जितनी ताकत या हैसियत है, उसी अनुपात में उसे सरकार का समर्थन हासिल हो रहा है। राजनीति का व्यावसायीकरण और व्यवसायों का राजनीतिकरण हो चुका है। राजनीति और व्यवसाय के इस गठजोड़ का महंगाई से सीधा संबंध है। बाजार की ताकतें सरकार की मौन स्वीकृति या प्रत्यक्ष समर्थन पाकर निरकुंश तरीके से दाम बढ़ाती हैं। इसके साथ ही जमाखोरी करके, मिलावट करके, लागत में वृध्दि दिखाकर और हिसाब में गड़बड़ियां करके भी व्यापारीवर्ग भारी मुनाफाखोरी करते हैं। राजनीतिक चंदो आदि देकर सरकार पर दबाव बनाने में तो वे सफल हो ही जाते हैं, साथ ही उनकी किसी नियामक संस्था के प्रति जवाबदेही नहीं होती। फिर भी महंगाई के विरूध्द कोई आंदोलन नहीं हो पा रहा है।
मई 2009 के संसदीय चुनाव में 542 स्थानों में से 360 पर करोड़पतियों ने कब्जा जमा लिया। पी सईनाथ के अनुसार 2008-2009 और 2009-2010 के वार्षिक बजटों में सीमा शुल्क और आबकारी कर को हटाने के साथ-साथ प्रत्यक्ष करों की कटौती से केन्द्र सरकार ने पांच लाख करोड़ रूपयों की छूट या सौगात धनीवर्ग को दे दी है। प्रतिदिन का हिसाब लगाने पर वह 700 करोड़ रूपए होता है। इस समय महंगाई चरम पर है। उसे रोकने में सरकार की असफलता को पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने की रणनीति माना जा सकता है। लोकतंत्र जिस तरह पूंजीपति वर्ग के हाथों का खिलौना बनता जा रहा है उससे आम जनता में असंतोष का उभरना स्वाभाविक ही है। सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों के निजीकरण, सरकार के अपने विभागों में ठेकेदारी को बढ़ाने और श्रम कानूनों में शिथिलता आने से दुखी होकर 14 सितम्बर 2009 को नई दिल्ली में देश के सभी केन्द्रीय मजदूर संगठनों ने एकजुट होकर सरकार को चेतावनी दी। ऐसा पहली बार हुआ कि कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा और निर्दल मजदूर संघ एक ही मंच पर आने को बाध्य हुए। सभी मेहनतकश किसान, मजदूर, जनजाति वगैरह मिलकर लोकतंत्र पर धनिक वर्ग के इस घेरे को तोड़ सकें, वह तभी मुमकिन हो, जब वे न केवल एकजुट हों, बल्कि शांतिपूर्ण आंदोलनों को सभी स्तरों पर चलाएं। जनता में तीव्र असंतोष है। उसे संगठित करके सही दिशा देना जरूरी है। वह दिशा लोकतंत्र को उसकी संपूर्णता में सुरक्षित करने की ही हो सकती है। लोकतंत्र को धनतंत्र, परिवारतंत्र और जातितंत्र ने बुरी तरह घेर लिया है। अक्सर ये तीनों साझीदार बन जाते हैं। भारत की नई पीढ़ी में वैचारिक प्रतिबध्दता नहीं है। उसे उपभोक्तावादी जीवन शैली पाने की जल्दी है। उसे त्याग की भाषा समझ में नहीं आती। पहचान के सवाल पर वह कभी-कभी संस्कृति के सवाल से प्रभावित हो जाता है परन्तु राजनीति उसके लिए मूलत: उपभोक्तावादी अवसरवाद का मामला बनता जा रहा है। खासकर हिन्दू मध्यवर्ग के बच्चों के लिए सांस्कृतिक मुद्दों की तुलना में योग एवं अध्यात्म की उपभोक्तावादी पैकेज ज्यादा महत्वपूर्ण है। हिन्दू पुनरूत्थान का दौर थम गया है। आस्था चैनल पर अब अंग्रेजी राज की आलोचना के बहाने संदर्भहीन, प्रसंगहीन प्रलाप चल रहा है। इसे भारत स्वाभिमान जगाने का प्रयास माना जा रहा है। आस्था चैनल की या स्वामी रामदेव की टी आर पी रेटींग घटी है। स्वामी रामदेव का बाजार बढ़ा है। उनका बैंक बैलेंस बढ़ा है लेकिन उनके चमत्कार में कमी आई है। दूसरी तरफ इस्लाम और माओवाद का आकर्षण बढ़ा है। लियो-सैटर्ण (सिंह राशि का शनी) 2007-09 फेज़ में निश्चित रूप से हिन्दू पुनरूत्थान की तुलना में इस्लामिक पुनरूत्थान और माओवादी पुनरूत्थान बढ़ा है। सी पी एम की जगह बंगाली राजनीति में ममता एवं माओवादी बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में मुसलमान कांग्रेस के साथ फिर जुड़ ग़ए हैं। मध्यवर्ग कांग्रेस के साथ फिर जुड़ गया है। गरीबों के प्रति प्रतीकात्मक राजनीति बढ़ी है। आम आदमी के मुद्दे कांग्रेस नहीं उठा रही है परंतु राहुल की ब्रांडिंग प्रो-पुअर, प्रो दलित चमत्कारी युवा आदर्श नेता के रूप में की जा रही है। इससे वोट नहीं मिलेगा लेकिन मोरल औरा बनेगा। कमसे कम मीडिया के उपभोग के लिए कच्चा माल बनेंगी। अभी भारत में ऐसा नेतृत्व चाहिए जो भारत को विकासशील देश से विकसित देश बना सके। इसके लिए शिक्षा एवं विकास का मॉडेल बनाना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में महात्मा गांधी के सभ्यतामूलक विमर्श को ही प्ररेणा - स्रोत बनाकर भारत विश्व - ग्राम में विकसित, पल्लवित एवं पुष्पित हो सकता है।
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