उभरती हुई विश्वव्यवस्था एवं भारतीय राजनीति
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इस बीच गैर बराबरी बढ़ी है। शोषण, भुखमरी, कुपोषण और वेश्यावृत्ति बढ़ी है। सरकारी लेन - देन में भ्रष्टाचार और दलाली बढ़ी है। प्रजातांत्रिक पूंजीवादी व्यवस्था का वैश्विक स्तर पर भले कोई विकल्प न हो लेकिन स्थानीय स्तर पर सशस्त्र विद्रोह के द्वारा विकल्प खड़ा करने की लगातार कोशिश हो रही है। इनमें से अधिकांश विद्रोह आतंकवाद का सहारा लेकर अपने लक्ष्य की पूर्ति करना चाहते हैं। भारत में भी काश्मीर, आसाम, नागालैंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार में आतंकवादी समूह स्थानीय स्तर पर सक्रिय हैं। ऐसे समूहों की प्रकृति भिन्न - भिन्न प्रकार की है। अधिकांश समूहों का गठन निराश युवकों ने किया है। एक बार संगठित हो जाने पर ये स्थानीय लोगों से जबरन वसूली कर समानांतर सरकार चलाना चाहते हैं। जहां तक आधूनिक राष्ट्र - राज्यों की बात है तो थाइलैंड और अफगानिस्तान तथा कुछ हदतक चीन, जापान, ईरान और इथोपिया के अलावे दुनिया के सभी राष्ट्र यूरोपीय साम्राज्यों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपनिवेश रहे हैं। अप्रत्यक्ष उपनिवेश को ट्रष्टीशिप कहा जाता था। जैसे भारत के बहुत सारे प्रिंसली स्टेट्स या मध्य ऐशिया के राज्य ट्रष्टीशिप के तहत अप्रत्यक्ष उपनिवेश थे। लेकिन जहां तक शोषण की बात है तो वस्तुओं के विनियम की शर्तों के तहत चीन, जापान, ईरान और इथोपिया का भी शोषण हुआ था। द्वितीय विश्वयुध्द के बाद यूरोपीय साम्राज्यों के उपनिवेश समाप्त हो गये और अमेरिका तथा सोवियत संघ के उपनिवेश शुरू हुए। इन्हें उपनिवेश के बदले मित्र देश कहा जाता था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया में केवल एक ही विश्व साम्राज्य बचा है, अमेरिकी साम्राज्य जो ग्लोबलाइजेशन के तहत अपना उपनिवेश चला रहा है। अमेरिकी साम्राज्य की ताकत इसकी सेना एवं सैनिक उद्योग, डॉलर के रूप में अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा, विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोश, संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी अमेरिका नियंत्रित संस्थाएं, अमेरिकी पेटेण्ट कानून तथा हॉलीवुड की फिल्में हैं। हर साम्राज्य का उद्देश्य अमन-चैन कायम करना होता है। अमेरिकी ग्लोबलाइजेशन मूलत: आर्थिक साम्राज्य है जिसे राष्ट्र-राज्य नामक संस्था, समकालीन तकनीक एवं सूचना क्रांति के कारण अवरोधों का सामना करना पड़ रहा है। यूरोपीय युनियन बनने के बाद माना जा रहा था कि ऐशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में भी राष्ट्र-राज्य कमजोर हो जायेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आर्थिक ग्लोबलाइजेशन के दौर में 2007-2009 के बीच जो मंदी आयी है और बाजार तथा बैंको के दिवालिया होने की श्रृंखला चली है उसमें राष्ट्र-राज्य की भूमिका पूरी दुनिया में एक बार फिर बढ़ी है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन इस जटिल विश्व व्यवस्था में दिशा एवं दृष्टि के स्तर पर मनमोहन सिंह की सरकार भ्रमित एवं विचलित है। मंहगाई एवं भुखमरी से आम जनता को बचाने के लिए यह नरेगा जैसी कागजी कार्यक्रम चला रही है जिससे भ्रष्टाचार की एक नया गंगोत्री बही है। आर्थिक, तकनीकी, सांस्कृतिक, कूटनीतिक एवं राजनीतिक स्तर पर तदर्थवादी नीतियों से काम लिया जा रहा है। देश में कानून - व्यवस्था - विकास के बारे में ठोस चिन्तन का अभाव है।
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