भारतीय राजनीति का भविष्य
पेज 1 भारतीय राजनीति में एक नए युग का शुभारंभ हो गया है। हमारे प्रजातंत्र में समन्वय का युग शुरू हुआ है। 1947 से 1977 तक थीसिस था। 1977 से 2007 एंटीथीसिस था। अब सिन्थेसिस का युग है। यह कमसे कम 30 वर्षों तक चलेगा। अब किसी भी तरह के अतिवाद या उग्रवाद के लिए जगह नहीं है। मध्यमार्ग ही सबका मार्ग होगा- लेफ्ट, राइट या सेन्टर (वामपंथ, दक्षिण पंथ, केन्द्रवाद या छद्म सेकुलरवाद/ धर्मनिरपेक्षवाद) सबको अति से बचना होगा। भारत एक हिन्दू बहुल देश है साथ ही यह विविधताओं वाला देश भी है। प्रजातंत्र की जड़ें गहरी हो चुकी हैं। देश की जनता समझदार हो चुकी है। आप केवल नारे लगाकर या मीडिया प्रबंधन के द्वारा इस देश की सत्ता नहीं पा सकते। ठोस काम करना होगा। सामाजिक न्याय की ईमानदार कोशिश करनी होगी। जनता बेहतर या कम खतरनाक विकल्प चुनेगी। इस देश का मानस क्रांति में विश्वास नहीं करता है। क्रमिक सुधार में विश्वास करता है। अनाडियों या ढ़ोंगियों की जमात से यह पारदर्शक भोगियों को ज्यादा भरोसेमंद मानता है। सी एस डी एस के एक अध्ययन से पता चला है कि राष्ट्रीय चुनाव 2009 के दौरान कांग्रेसी गठबंधन ने शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी सीटों और वोट प्रतिशत का इजाफा किया है। बंगलुरू और अहमदाबाद को छोड़कर भारत के सभी महानगरों में कांग्रेसी गठबंधन ने दूसरों का सफाया कर दिया है। कांग्रेसी गठबंधन ने 57 बड़ी शहरी सीटों में से 34 पर जीत हासिल की, जबकि भाजपायी गठबंधन को महज 19 सीटें मिलीं। अर्धशहरी इलाकों की 144 सीटों में से कांग्रेसी गठबंधन को 81 सीटों पर सफलता मिली जबकि भाजपायी गठबंधन को यहां पर मात्र 39 सीटें मिलीं। शहरी मध्यवर्ग के मतदाताओं के बीच कांग्रेसी गठबंधन भाजपायी गठबंधन से 15 फीसदी आगे रहा। भाजपा 1990 के दशक तक शहरी मध्यवर्ग की पार्टी मानी जाती थी। 1950 के दशक से 2009 के चुनाव तक जनसंघ-भाजपा ने कांग्रेस को भ्रष्ट, वंशवादी, छद्म धर्मनिरपेक्ष पार्टी के रूप में मीडिया में पेश किया है। मध्यवर्ग में भाजपा की लोकप्रियता ने 1990 के दशक में इसे केन्द्रीय स्तर पर सत्ता सुख हासिल करने का मौका दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी इस भाजपा के प्रतीक पुरूष थे। उन्होंने जनसंघ-भाजपा को 1950 के दशक से एक सुयोग्य एवं सक्षम टीम के बलपर कांग्रेसी वर्चस्व के प्रभावी विकल्प के रूप में तैयार किया था। इसमें दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, जगन्नाथ राव जोशी, सुन्दर सिंह भंडारी, जे.पी. माथुर, केदारनाथ साहनी, केवल रतन मलकानी, लालकृष्ण आडवाणी, भैरो सिंह शेखावत, कुशाभाऊ ठाकरे, जनाकृष्णमूर्ति, विजया राजे सिंधिया, ओ. राजगौपाल, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विष्णुकांत शास्त्री और कैलाशपति मिश्र आदि शामिल थे। 1985 में लालकृष्ण आडवाणी का दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में उदय हुआ। 1985 से अटल बिहारी वाजपेयी जननेता बने रहे और संगठन तथा विचारधारा के मामले में आडवाणी का वर्चस्व स्थापित होना शुरू हुआ। इनके आसपास जनता एवं इस देश की अस्मिता से कटे चाटुकारों, मैनेजरों और मीडिया प्रबंधकों की भीड़ इकट्ठा होने लगी। 1990 के दशक से तिकड़मी पार्टी एवं सरकारी महकमों में प्रतिष्ठित होते रहे और जमीनी कार्यकर्ता एवं प्रतिबध्द विचारक दरकिनार होने लगे। मध्यवर्ग और मीडिया में भाजपा को लोकतांत्रिक, नैतिक, प्रखर राष्ट्रवादी और नरम हिन्दुत्व वाला पार्टी माना जाता रहा। 1998 से 2004 तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता मिलने के बाद प्रमोद महाजन, ब्रजेश मिश्र, रंजन भट्टाचार्य, अरूण जेटली, यशवंत सिन्हा, सुधीन्द्र कुलकर्णी, बलबीर पुंज, दीपक चोपड़ा जैसे लोग असली भाजपा बन चुके थे। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी इनके अलावा किसी की भी सुनते ही नहीं थे। 2004 के बाद धीरे-धीरे आडवाणी सुधीन्द्र कुलकर्णी, दीपक चोपड़ा, प्रद्युत बोरा, बलबीर पुंज, नरसिम्हा राव आदि के मार्ग दर्शन में चलने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी अपने ''परिवार'' तक सिमटकर रह गए। इस भाजपा को मध्यवर्ग के मतदाता के बीच हो चुके गुणात्मक परिवर्तन की जमीनी समझ नहीं रह गई थी। प्रतिबध्द कार्यकर्ता एवं जमीनी विचारक छटपटाते - छटपटाते घर बैठ चुके थे। 2009 के चुनाव परिणाम पर इसका असर पड़ना ही था।
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